पुण्यतिथि | राम सरूप अणखी: साहित्य की ‘अणख’
गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी, नानक सिंह, जसवंत सिंह कंवल के बाद राम सरूप अणखी पंजाबी और पंजाब के ऐसे लेखक थे, जिन्हें सबसे ज्यादा पढ़ा गया. उनके निधन के दस साल बाद भी उन्हें पढ़ने वालों का दायरा अब भी बढ़ ही रहा है. पंजाबी के हिन्दी तथा दूसरी भाषाओं में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले साहित्यकारों में उनका नाम सबसे ऊपर है. वह अपनी मिट्टी के ऐसे घने वृक्ष थे, जो अब भी छांव दे रहा है. पंजाब, ख़ासकर मालवा, का ग्रामीण समाज और किसानी जनजीवन उनके कथा साहित्य की आधारभूमि रहा है. मालवा के केंद्र में बसा क़स्बेनुमा शहर बरनाला ‘अणखी के शहर’ के नाम से भी जाना जाता है. युवावस्था में पुश्तैनी गांव धौला से वह यहां आकर बस गए थे, लेकिन मुड़-मुड़कर अपने गांव की मिट्टी की ओर जाते थे. हर हफ़्ते धौला जाना उन्होंने ताउम्र जारी रखा. मौसम, हालात और सेहत जैसी भी हो, यह सिलसिला कभी नहीं टूटा. धौला और उसके इर्द-गिर्द के गांव-क़स्बे और वहां के बाशिंदे उनके हर उपन्यास-कहानी में मिलेंगे. गांव और ग्रामीण उनकी माशूक थे. मिट्टी से इतनी बेइंतहा मोहब्बत करने वाले लेखक बहुत कम हैं और अणखी सरीखे तो और भी कम. उनकी अस्थियां भी, वसीयत और आख़िरी इच्छा के मुताबिक इन्हीं खेतों और ज़मीन को सींचने वाली नहरों में विसर्जित की गई थीं.
सत्तर के दशक में ‘सारिका’ के संपादक कमलेश्वर को राम सरूप अणखी ने खुद अनुदित करके अपनी एक कहानी छपने भेजी तो उसमें पंजाबी ग्राम्य जीवन की अद्भुत यथार्थवादी छवियां देखकर कमलेश्वर बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने स्वीकृति के साथ एक लंबी चिट्ठी अणखी को भेजी. ख़तो-क़िताबत का यह सिलसिला धीरे-धीरे दोस्ती में तब्दील हो गया. राम सरूप अणखी हिन्दी कथा-पुरुष और कमलेश्वर के प्रिय पंजाबी कथाकार हो गए. एक मायानगरी बंबई में बैठा था तो दूसरा सुदूर पंजाब के एक बड़े गांव जैसे क़स्बे बरनाला में. दोनों के बीच सालों की ख़तो-क़िताबत को आसानी से ‘कमलेश्वर-अणखी संवाद’ जैसी किसी पत्र-ग्रंथावली का रूप दिया जा सकता है.
हिन्दी पाठकों ने राम सरूप अणखी को ‘सारिका’ के कमलेश्वर काल में जाना और इसी से उन्हें हिन्दी समाज का एक बड़ा पाठक-प्रशंसक वर्ग हासिल हुआ. इस पत्रिका में अणखी ने कभी-कभार वाला स्तंभ लेखन भी किया. वह ‘सारिका’ में नियमित प्रकाशित होने वाले इक़लौते पंजाबी लेखक थे. हिन्दी के बेशुमार पाठक और लेखक अभी हैं जिन्होंने ग्रामीण पंजाब के दुर्लभ और यथार्थ से ओतप्रोत ताने-बाने को ‘सारिका’ में अणखी की रचनाओं के जरिए जाना-समझा.
राम सरूप अणखी के दोस्ताना मोह और उनके रचित पंजाब के गांवों को करीब से देखने की ख़्वाहिश ने कमलेश्वर को बरनाला की यात्रा भी कराई. हिन्दी के कई नामचीन साहित्यकार अणखी के बुलावे पर बरनाला आए. और उस पंजाब और पंजाबियत से रूबरू हुए, जिसे उन्होंने किताबों-कहानियों में पढ़ा भर था.
‘सारिका’ के जरिए राम सरूप अणखी की कहानियां और उपन्यास अंश व्यापक हिन्दी समाज तक तो पहुंचे ही, आगे वहीं से उनका गुजराती, मराठी, तेलुगू, कन्नड़, उर्दू, अंग्रेज़ी, डोगरी और मलयालम में अनुवाद का सिलसिला शुरू हुआ. इससे वह विभिन्न भाषाओं में देश भर में पढ़े जाने लगे और ख़ूब मक़बूल हुए. विदेशी भाषाओं रूसी, चीनी, जर्मन और स्पेनिश में भी उनकी कहानियों के अनुवाद हुए और पढ़े गए.
नागपुर की एक पाठक शोभा उनकी बड़ी प्रशंसक थीं. वह उनकी कोई भी रचना पढ़कर उन्हें चिट्ठी लिखतीं और नियमानुसार अणखी हर चिट्ठी का जवाब देते. पत्नी की असामायिक मृत्यु के बाद वह अवसाद से गुजर रहे थे. उसी दौरान शोभा जी से उनका रिश्ता प्रेम में बदल गया और दोनों ने अपने-अपने संबंधियों-रिश्तेदारों के विरोध के बावजूद विवाह कर लिया. राम सरूप अणखी शोभा जी को अपनी सबसे बड़ी और अमूल्य ‘रॉयल्टी’ कहा करते थे. अभी कुछ महीने पहले ही शोभा जी का देहांत हुआ है. वह खुद भी मराठी में लिखती थीं.
राम सरूप अणखी का 28 अगस्त, 1932 को धौला में जन्मे. खेती से गुज़ारा मुश्किल से होता था तो सरकारी स्कूल में अध्यापक हो गए. एमए तक पढ़ाई की और बाद में उनके कथा साहित्य पर एमफिल तथा पीएचडी होने लगीं. उनकी अब तक प्रकाशित 40 पुस्तकों में 15 उपन्यास, 12 कहानी संग्रह, चार काव्य संग्रह, यात्रा वृतांत, आत्मकथा सहित कई संपादित पुस्तकें हैं. उपन्यास ‘कोठे खड़क सिंह’ (हिन्दी में ‘एक गांव की कहानी’) के लिए उन्हें 1987 में अखिल भारतीय साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया. ‘कोठे खड़क सिंह’ के सौ के करीब संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और यह पंजाबी/हिन्दी में अणखी का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला उपन्यास है. कई अन्य भाषाओं में भी इसका अनुवाद चर्चित रहा. उनके एक अन्य उपन्यास ‘प्रतापी’ को भी ख़ूब सराहना मिली. इन दोनों उपन्यासों ने पंजाबी प्रकाशन जगत और पाठक समुदाय में नए रिकॉर्ड क़ायम किए हैं. ‘प्रतापी’ पर टीवी धारावाहिक बना. उनकी प्रतिनिधि कहानियों पर भी टीवी ड्रामे बन चुके हैं.
उन्नसवीं सदी के आखिरी दशक में पंजाब की बदहाल होती किसानी और किसान एवं खेत मजदूरों की दर्दनाक आत्महत्याओं पर राम सरूप अणखी ने कई बहुचर्चित उपन्यास लिख कर भूमिपुत्रों की पीड़ा को रचनात्मक तथा हस्तक्षेपकारी अभिव्यक्ति दी. उनके इन उपन्यासों के मृत या जिंदा पात्र आज भी बरनाला, बठिंडा, मानसा, संगरूर और मोगा के गांवों में मिल जाएंगे. सबके परिवार भी. ‘सल्फास’ और ‘कनकां दा क़त्लेआम’ सरीखे उनके उपन्यास मरती किसानी का सच शिद्दत से बयान करते हैं. कोठे खड़क सिंह और प्रतापी की मानिंद इन उपन्यासों के संस्करण भी प्रतिवर्ष तकरीबन दो बार प्रकाशित होते हैं. रोजी-रोटी की तलाश में बिहार और उत्तर प्रदेश से पंजाब आने वाले प्रवासी खेत मजदूरों की पीड़ा पर भी उन्होंने खूब लिखा. पंजाबी में लिखे ऐसे एक दुर्लभतम उपन्यास (भीमा) का अनुवाद मशहूर हिन्दी कथाकार अमरीक सिंह दीप ने ‘बिहारी एक्सप्रेस’ नाम से किया है. इसी वर्ष उन्हीं का किया अनुवाद ‘कनक का कत्लेआम’ (पंजाबी में कनकों का कत्लेआम) अमन प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. पंजाबी किसानी के मौजूदा यथार्थ के अनछुए पहलुओं को समझने के लिए हिन्दी पाठकों को दोनों उपन्यास जरूर पढ़ने चाहिए. यह जानने के लिए भी कि कोई बड़ा लेखक कैसे ख़ुद मिट्टी होकर अपनी मिट्टी की सच्ची बात करता है.
राम सरूप अणखी को पंजाबी साहित्य की ‘अणख’ बखूबी कहा जा सकता है. ‘अणख’ का व्यवहारिक मतलब जिद्दी आत्मसम्मान/आत्मदृढ़ता और इज्जत भी होता है. वह सही मायने में यकीनन ‘अणखी’ थे. अध्यापकी की सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने मासिक पंजाबी पत्रिका ‘कहानी पंजाब’ का प्रकाशन-संपादन शुरू किया. कहानी पंजाब के बैनर तले वह हर साल डलहौजी में एक भव्य कहानी संगोष्ठी कराते थे जिसमें तमाम भारतीय भाषाओं के लेखक शिरकत करते थे. अणखी जी के निधन के बाद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और ख़ुद पंजाबी के ख्यात लेखक और उनके बेटे डॉक्टर क्रांतिपाल ने न ‘कहानी पंजाब’ का सिलसिला थमने दिया और न डलहौजी में होने वाली कहानी संगोष्ठी का. तीन दिवसीय डलहौजी संगोष्ठी अब अणखी साहब की याद में (आमतौर पर 28 से 30 अगस्त तक) होती है. इस संगोष्ठी में लेखक अपनी कहानी पढ़ता है और सहभागी लेखक उस पर विस्तृत चर्चा करते हैं. डलहौजी कहानी संगोष्ठी में हिस्सेदारी करने वाले लेखक अनूठे अनुभव लेकर लौटते हैं.
राम सरूप अणखी के कथा संसार के पात्र और कथानक साधारण ग्रामीण, किसानी जीवन स्तर के रहे हैं. उनमें कोई बहुत आकाशाचारी मनोकामनाएं नहीं हैं. न ही कुछ ज्यादा हासिल करने की चाहत. उनके लिए जीवन को अपने ढंग से जी सकना और निभा पाना ज्यादा अर्थ रखता है. बतौर लेखक अणखी ने अपने लेखन में न कभी समाज सुधारक बनने की कोशिश की और न ही उपदेशक होने की. उनके पात्र ऊंचे और बड़े ख़्वाब नहीं देखते. बेशक बेहतर ज़िंदगी और बेहतर दुनिया को बनाने और उसमें जीने का जज़्बा ज़रूर उनमें कूट-कूट कर भरा हुआ है.
राम सरूप अणखी के ज्यादातर उपन्यासों और कहानियों का परिवेश ग्रामीण है. लिखने से पहले वह कई गांवों में डूबकर विचरते. उस गांव का पूरा नक्शा कागज पर उतारते. हर गांव के एक-एक घर में जाते और तमाम सदस्यों से मिलते. इसे भी नोट करते कि कौन-सा किसान किस कृषि यंत्र के साथ खेती करता है. दुधारू और पालतू पशुओं तक का आचार-व्यवहार करीब से देखते. उसके बाद कई महीनों की मेहनत कागज पर उपन्यास के रूप में उतरती. लिखी कृति का कई बार पुनर्लेखन करते. बरनाला का वह कमरा जिसमें बैठकर राम सरूप अणखी ने लिखते थे, अभी भी जस का तस है. उनकी यादों की ख़ुशबू बिखेरता हुआ. उसी कमरे में अपने अवसान की शाम 14 फरवरी 2010 वह आख़िरी बार बैठे थे.
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