मेरे हिस्से की ज़िंदगी भी जी लेना मेरे दोस्त

  • 12:01 am
  • 23 March 2020

पंजाबी का कोई और कवि हिन्दी में इतना मकबूल नहीं है, जितना कि पाश. विशाल हिन्दी समाज में पाश ग़ैर-हिन्दी भाषाओं के सर्वाधिक प्रिय कवि हैं. अख़बारों के लेखों से लेकर कितनी ही किताबों में पाश की कविताओं के हवाले से विचार और संदर्भ तय करने से तो यही लगता है. कितनी ही किताबें उनकी स्मृति को समर्पित हैं. हिन्दी फ़िल्म ‘आर्टिकल-15’ एक और मिसाल है, जिसमें एक क़िरदार पुलिस अफ़सर का प्रतिरोध करते हुए पाश का नाम लेकर उनकी कविता की पंक्तियां बतौर संवाद बोलता है. यों वह तमाम भारतीय भाषाओं में पढ़े और सराहे जाते हैं. उनकी कविताओं से वाक़िफ़ आम आदमी की स्मृति में पाश प्रतिरोध का खरा पैमाना हैं.

अवतार सिंह संधू यानी पाश ने 15 साल की उम्र में कविताएं लिखना शुरू कर दिया था. उनकी कविताओं के तेवर और विद्रोही स्वर देखते हुए पहले-पहल नाटककार गुरशरण सिंह ने उन्हें ‘क्रांतिकारी कवि’ का ख़िताब दिया. बीस बरस का होते-होते उनका पहला संग्रह ‘लौह कथा’ छप गया. पढ़ने की ललक उनमें इतनी ज़बरदस्त थी कि अपना खेत खोदकर उन्होंने एक तहख़ाना बनाया, और वहां लाइब्रेरी बनाकर दुनिया भर की किताबें जुटाईं. नक्सली लहर के दौरान, सन् 1969 में जब उन्हें मनगढंत आरोपों में गिरफ़्तार करके जेल भेजा गया तब पुलिस ने किताबों के इस ख़जाने को ‘सुबूत’ के बहाने ‘लूट’ लिया. पाश रिहा हुए लेकिन जब्त हुई किताबें उन्हें वापस नहीं मिलीं. पुलिस से मिली यातना का उन्हें इतना मलाल नहीं था, जितना कि किताबें खो देने का.

यों वह ख़ुद पढ़ने के लिए कॉलेज नहीं गए लेकिन उनका कविता संग्रह एमए में पढ़ाया गया. पाश की एक काव्य-पंक्ति दुनिया भर में मशहूर है, “सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना…!” उनका मानना था कि पहले बेहतर दुनिया सपनों में आएगी और फिर यही सपने साकार होंगे लेकिन ज़रूरी लड़ाई या संघर्ष के साथ! पाश को क्रांति का कवि कहा जाता है. जिस तरह का जीवन उन्होंने जिया, उसमें ऐसा सूक्ष्म कला-बोध आसान नहीं है. उनका अपना सौंदर्य शास्त्र है, जो टफ़ तो है मगर रफ़ नहीं. वहां ग़ुस्सा, उबाल, नफ़रत, प्रोटेस्ट और ख़ूंरेज़ी तो है ही, गूंजें-अनुगूंजें भी हैं. सपाट सच हैं, पर सपाटबयानी नहीं. अदब की दुनिया में आसमां सरीखा कद रखने वाले पाश धरा के कवि थे.

पाश की तमाम कविताएं हिन्दी में अनूदित हैं. ज्ञानरंजन के संपादन में निकलने वाली हिन्दी पत्रिका ‘पहल’ ने अस्सी के दशक में भारतीय कविता पर एक बेहद महत्वपूर्ण और बहुचर्चित अंक निकाला. इसमें नक्सली लहर से वाबस्ता पंजाबी कवियों को भी जगह दी गई थी. लाल सिंह दिल, अमरजीत चंदन, संतराम उदासी के साथ पाश को भी ज्ञानरंजन ने ऐहतराम के साथ छापा था. पाश की कविताओं को ख़ूब सराहना मिली और हिन्दी समाज में उनका एक बड़ा पाठक वर्ग तैयार हुआ. ‘पहल’ ने पाश को हिन्दी साहित्य जगत से कई दोस्त दिए. पाश की कविताओं का हिन्दी अनुवाद पढ़ने के बाद आलोक धन्वा तो उनसे मिलने जालंधर में उनके गांव उग्गी पहुंच गए थे. पाश उन दिनों ख़ुफिया पुलिस की निगरानी में थे सो आलोक धन्वा पुलिस हिरासत में जाते-जाते बचे. ‘पहल’ के बाद उनकी कविताएं कई अन्य महत्वपूर्ण हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की पत्रिकाओं में छपीं. उनके अनुवाद हिन्दी के जरिए संभव हुए. मराठी, गुजराती, कन्नड़, तेलुगू, उर्दू, अंग्रेजी सहित तमाम भारतीय भाषाओं में पाश को खूब पढ़ा जाता रहा है.

उनकी कविताओं को हिन्दी समाज तक पहुंचाने में चमन लाल और सुभाष परिहार का बहुत योगदान रहा है. राजकमल प्रकाशन ने पाश का कविता संग्रह ‘बीच का रास्ता नहीं होता’ छापा, जिनका अनुवाद और संपादन डॉ. चमन लाल ने किया. पाश की समग्र कविताएं आधार प्रकाशन से भी छपीं. हिन्दी के नामवर आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने उनकी तुलना लोर्का से की और उन्हें ‘शापित कवि’ क़रार दिया. उनका मानना था कि जब भी भारत की जुझारू और प्रतिरोधी कविता की बात होगी तो पाश को सबसे आगे रखना अनिवार्य होगा. मैनेजर पांडे भी पाश को भारत के जनवादी और क्रांतिकारी कवियों में पहली क़तार का अहम कवि मानते हैं.

विचारधारा के स्तर पर वह हर क़िस्म की कट्टरता और अंधविश्वास के ख़िलाफ थे. पंजाब में आतंकवाद की काली आंधी आई तो उन्होंने वैचारिक लेखन भी किया. वह अपना दिमाग़ और शरीर इसलिए बचाना चाहते थे कि इन तमाम अलामतों का विरोध कर सकें. उनका मानना था कि अगर मस्तिष्क रहेगा तो बहुत कुछ संभव होगा. वह दुनिया बनेगी जिसकी दरकार है बेहतर जीवन के लिए. जीवन पर मंडराते ख़तरे के बाद वह विदेश चले गए. अपना अभियान जारी रखा. वहां से उन्होंने ‘एंटी-47’ पत्रिका निकाली.

अपनी धरती-अपना वतन बार-बार खींचता था सो कुछ दिनों के लिए अपने गांव लौट आते थे. 23 मार्च, 1988 को वह अपने गांव में थे कि जब आतंकवादियों ने घात लगाकर उन्हें क़त्ल कर दिया. क़ातिल नहीं जानते थे कि ज़िस्म ख़त्म होने पर भी फ़लसफ़ा और लफ़्ज़ बचे रह जाते हैं. 23 मार्च भगत सिंह की शहादत का दिन है और अब पाश का भी. न भगत सिंह मरे और न पाश! ‘अब मैं विदा लेता हूं’ कविता में पाश ने कहा है, ‘मुझे जीने की बहुत चाह थी/ कि मैं गले-गले तक ज़िंदगी में डूब जाना चाहता था/ मेरे हिस्से की ज़िंदगी भी जी लेना मेरे दोस्त…!’ उनके हिस्से की ज़िंदगी बहुतेरे लोग जी रहे हैं.

पाश की हत्या से हफ़्ता भर पहले ‘रविवारी जनसत्ता’ में उनकी कविता ‘सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना…’ छपी थी. पाश की हत्या के तुरंत बाद मंगलेश डबराल ने श्रृद्धांजलि लेख लिखा, जिसका शीर्षक था – ‘क्रांति के लिए थी पाश की कविता.’ और विष्णु खरे के शब्दों में, ‘दुनिया के किसी कवि के पास ऐसी कविता नहीं है!


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