शहीदी दिवस | क्रांतिकारी सूफ़ी अम्बा प्रसाद
जंग-ए-आज़ादी में शामिल बहुतेरे ऐसे नाम हैं, जिनका योगदान महत्व का है मगर जिनके करतब और कारनामे हम विस्मृत करते गए हैं. अम्बा प्रसाद भटनागर यानी सूफ़ी अम्बा प्रसाद का नाम ऐसे ही विस्मृत लोगों की फ़ेहरिस्त में शामिल है. देश की आज़ादी की ख़ातिर अंग्रेज़ी हुकूमत का सक्रिय विरोध करने वाले अम्बा प्रसाद भारत माता सोसायटी (अंजुमन-ए-मुहिब्बान-ए-वतन) के संस्थापक सदस्य थे और भगत सिंह के आदर्श भी. सरदार अजीत सिंह और ग़दर पार्टी की क्रांतिकारी गतिविधियों को बढ़ाते हुए अम्बा प्रसाद और उनके सहयोगी, ईरान (पर्शिया) पहुंच गए, जहाँ उन्होंने ब्रिटिश सैन्य अफ़सर डायर का मुक़ाबला किया. यह वही कुख्यात डायर था, जो साल भर बाद अमृतसर में जलियांवालाबाग नरसंहार के लिए ज़िम्मेदार था. शीराज़ की लड़ाई में क्रांतिकारी अम्बा प्रसाद 21 जनवरी 1917 को शहीद हो गए और आज भी “आग़ा सूफ़ी” के नाम से विख्यात हैं.
अम्बा प्रसाद की पैदाइश सन् 1858 में मुरादाबाद में हुई थी. वह बहुत मेधावी किन्तु एक हाथ से अपंग थे. इस बारे में वह हंस कर कहते थे कि पूर्व जन्म में उनकी वह भुजा 1857 की क्रांति में अंग्रज़ी फ़ौजों से लड़ाई लड़ते हुए कट गई थी. उन्होंने क़ानून की पढ़ाई थी. घर-गृहस्थी के शुरुआती दिनों में ही पत्नी की मृत्यु हो जान के बाद उनमें ऐसा वैराग्य जागा कि निरासक्त हो गए. एक सूफ़ी संत की शिक्षा से प्रेरित हो वह अध्यात्म के साथ समाज और देश की सेवा के प्रति समर्पित हो गए. वह 32 साल के थे, जब उन्होंने उर्दू पत्रकारिता शुरू की. वह देश की परिस्थितियों के बारे में लिखते हुए अंग्रेज़ी हुकूमत की आलोचना करते और हिन्दू-मुस्लिम एकता को प्रोत्साहित करते थे.
हुकूमत ने उन पर बार-बार देशद्रोह के आरोप लगाए. एक बार वह दो साल के लिए और दूसरी बार छह साल के लिए जेल भी गए. उनकी लिखी किताब ज़ब्त कर ली गई और अख़बार बंद कर दिया गया. बाल गंगाधर तिलक और सरदार अजीत सिंह से प्रभावित हो कर 1907 में उन्होंने पंजाब के किसान आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की. बाद में सरदार किशन सिंह (भगत सिंह के पिता) के साथ अम्बा प्रसाद नेपाल चले गए. लाला हरदयाल की सलाह पर भारतीय स्वतंत्रता के क्रांतिकारी आंदोलन को बाहर से मदद का प्रबंध करने के लिए अम्बा प्रसाद कुछ साथियों के साथ ईरान जाकर बस गए. उनका मकसद भारतीय क्रांतिकारियों को ईरान के रास्ते तुर्की और रूस भेजना सुगम करना था.
ईरान में अम्बा प्रसाद एक सूफ़ी का जीवन जीने लगे, लेकिन स्थानीय बच्चों को आधुनिक शिक्षा देने के इरादे से उन्होंने शीराज़ में पहला ऐसा स्कूल शुरू किया, जिसमे अंग्रेज़ी की पढ़ा ई भी होती थी. आग़ा सूफ़ी का पढ़ाया हुआ एक विद्यार्थी बाद में ईरान का विदेश मंत्री भी बना था. प्रथम विश्व युद्ध के समय जब सन् 1916-17 में ईरान के दक्षिणी तटीय भूभाग पर ब्रिटिश साम्राज्य ने नियंत्रण करने के अभियान किए तब सूफ़ी अम्बा प्रसाद ने ईरानी लोगों की मदद के लिए एक आम सेना दल संगठित की और ब्रिटिश सशस्त्र सेनाओं से लड़ाई लड़ी.
केरमान, सीस्तान, बाम, ग्वादर और कराची मार्ग पर इसी दल ने देशभक्तों को मदद दे कर सफलता हासिल की. लेकिन शीराज़ की घेराबंदी में कई देशभक्त शहीद हुए. क्रूर सैन्य अफ़सर डायर से सूफ़ी अम्बा प्रसाद का आमने-सामने का मुक़ाबला हुआ. अम्बा प्रसाद को बंदी बनाया गया, और उनको मृत्युदंड देना तय किया गया. अगले रोज़ भोर में सूफ़ी को जब फांसी पर चढ़ाने के लिए उन्हें लेने गए तो सूफ़ी योगासन में समाधि लगाकर बैठे हुए पाए गए. वह हमेशा कहा करते थे कि इस जन्म में वह अंग्रेज़ों के हाथों नहीं मारे जा सकते, और उन्होंने ख़ुद ही प्राण त्याग दिए थे.
सूफ़ी की समाधि शीराज़ में ही थी हालांकि अब यक़ीन के साथ नहीं कहा जा सकता कि वह कहाँ स्थित है? सूफ़ी की शहादत का महत्व इसी से आंका जा सकता है कि सरदार भगत सिंह ने सूफ़ी के सर्वोच्च त्याग की प्रशंसा करते उनके लिए श्रद्धांजलि लिखी.
(प्रो.अभय सिंह के संकलन से)
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