मजरूह | वही कहा जो ख़ुद पे गुज़री
‘मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर/लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया’ उर्दू अदब में ऐसे बहुत कम शेर हैं, जो शायर की पहचान बन गए और आज भी सियासी, समाजी महफिलों और तमाम ऐसी बैठकों में कहावतों की तरह दोहराए जाते हैं. मजरूह सुल्तानपुरी गर अपनी ज़िंदगी में इस शेर के अलावा कुछ और नहीं लिखते, तब भी इस शेर के बदौलत ही अदबी दुनिया में उनकी अलग पहचान होती. इस शेर को लिखे हुए एक लंबा अरसा गुज़र गया, मगर इसकी तासीर ठंडी नही हुई.
एक सदी पहले एक अक्टूबर, 1919 को आज़मगढ़ ज़िले के निज़ामाबाद गांव में जन्मे, असरार-उल हसन ख़ान यानी मजरूह सुल्तानपुरी के घर वालों और ख़ुद उन्होंने कभी यह नहीं सोचा था कि आगे चलकर गीत-ग़ज़ल उनकी ज़िंदगी बन जाएंगे और वे अपने नग़मों और शायरी से ही दुनिया भर में जाने-पहचाने जाएंगे. उनके वालिद चाहते थे कि वह अच्छी पढ़ाई करके नौकरी हासिल करें और इसी चाहत में उन्हें मदरसे भेज दिया गया. जहां उन्होंने उर्दू, अरबी और फ़ारसी ज़बान सीखी.
शुरूआती तालीम के बाद उन्होंने ‘तक्मील उत्तिब कॉलेज’ लखनऊ से यूनानी चिकित्सा में डिग्री हासिल की और सुल्तानपुर में प्रैक्टिस करने लगे. लेकिन उनकी क़िस्मत में तो कुछ और ही मंज़ूर था. शेर-ओ-अदब की चर्चा सुनते-सुनते, उनके अंदर भी शेर कहने का शौक़ पैदा हुआ. अपने इस शौक के बारे में उनका ख़ुद का यह कहना था,‘‘मैंने अपने जमालियाती ज़ौक (सौंदर्य बोध) की तस्कीन के लिए सन् 1940 में शायरी शुरू की. इब्तिदा गीत-नुमा नज़्मों से हुई. लेकिन बेहद जल्द मैं ग़ज़ल की तरफ आ गया.’’ बहरहाल कुछ ही समय में वे बाक़ायदगी से शायरी करने लगे.
हकीमी करने के साथ-साथ मुशायरों में अपनी आमद बढ़ा दी. इस सिलसिले में उन्होंने उस दौर के मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी को अपना उस्ताद बना लिया. जिगर साहब से उन्होंने बहुत कुछ सीखा. उनमें से एक सीख यह थी कि,‘‘अगर किसी का कोई अच्छा शेर सुनो, तो कभी नकल न करो, बल्कि जो गुज़रे (आत्मानुभव), वही कहो.’’ एक लिहाज़ से कहें, तो उर्दू अदब में मजरूह सुल्तानपुरी का आगाज़ जिगर मुरादाबादी की शायरी की रिवायतों के साथ हुआ और आख़िरी वक्त तक उन्होंने इसका दामन नहीं छोड़ा.
मजरूह सुल्तानपुरी शुरू में तरक़्क़ीपसंद तहरीक की विचारधारा और सियासत से रजामंद नहीं थे. इस विचारधारा से उनके कुछ इख्तिलाफ़ (विरोध) थे, लेकिन बाद में वे इस तहरीक के सरगर्म हमसफ़र बन गए. उनका यक़ीन इस बात में पुख़्ता हो गया कि समाजी मकसद के बिना कोई भी अज़ीम फ़न पैदा नहीं हो सकता. एक बार उनका यह ख़्याल बना, तो उनकी शायरी बामक़सद होती चली गई.
मजरूह सुल्तानपुरी की शायरी का शुरूआती दौर, आज़ादी के आंदोलन का दौर था. उस वक्त जो भी इंक़लाबी मुशायरे होते, वे उनमें हिस्सा लेते. उनकी ग़ज़लों में तरन्नुम और सादगी का दिलकश मेल होता था. मजरूह की शुरू की ग़ज़लों को यदि देखें, तो उनमें एक बयानिया लहज़ा है, लेकिन जैसे-जैसे उनका तजुर्बा बढ़ा, उनकी ग़ज़लों की ज़बान और मौजूआत में नुमायां तब्दीली पैदा हुई और इशारियत (सांकेतिकता) और तहदारी (गहराई) में भी इज़ाफ़ा हुआ.
तरक़्क़ीपसंद तहरीक के शुरूआती दौर का अध्ययन करें, तो यह बात सामने आती है कि तरक़्क़ीपसंद शायर और आलोचक ग़ज़ल की विधा से मुतमईन नहीं थे. उन्होंने अपने तईं ग़ज़ल की पुरज़ोर मुख़ालिफत की, उसे जानबूझकर नजरअंदाज किया. यहां तक की शायर-ए-इंकलाब जोश मलीहाबादी, तो ग़ज़ल को एक काव्य विधा की हैसियत से मुर्दा करार देते थे. विरोध के पीछे अक्सर यह दलीलें होती थीं कि ग़ज़ल नए दौर की जरूरतों के लिहाज से नाकाफ़ी ज़रिया है. कम अल्फ़ाज़, बह्रों-छंदों की सीमा का बंधन खुलकर कहने नहीं देता. लिहाज़ा उस दौर में उर्दू अदब में मंसूबाबंद तरीके से नज़्म आई. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, अली सरदार ज़ाफरी, साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी, वामिक़ जौनपुरी और मज़ाज़ वगैरह ने एक से बढ़कर एक नज़्में लिखीं. हालांकि इन लोगों ने ग़ज़लें भी लिखीं, लेकिन मजरूह ने सिर्फ ग़ज़ल लिखी.
मजरूह सुल्तानपुरी ने न सिर्फ़ ग़ज़लें लिखीं, बल्कि वे उन शायरों में शामिल रहे, जिन्होंने ग़ज़ल की हमेशा तरफ़दारी की और इसे ही अपने जज़्बात के इज़हार का ज़रिया बनाया. ग़ज़ल के बारे में उनका नजरिया था,‘‘मेरे लिए यही एक मोतबर जरिया है. ग़ज़ल की ख़ुसूसियत उसका ईजाजो-इख्तिसार (संक्षिप्तता) और जामइयत (संपूर्णता) व गहराई है. इस ऐतिबार से ये सब से बेहतर सिन्फ (विधा) है.’’ ग़ज़ल के जानिब मजरूह की ये बेबाकी और पक्षधरता आख़िरी समय तक क़ायम रही.
ग़ज़ल के विरोधियों से उन्होंने कभी हार नहीं मानी. प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सदस्य सज्जाद जहीर ने अपनी किताब ‘रौशनाई’ में मजरूह सुल्तानपुरी की ग़ज़ल के जानिब इस जज्बे और हिम्मत की दाद देते हुए लिखा है,‘‘मजरूह को बंबई में गोया दो मोर्चों पर जंग करनी पड़ती थी. एक तरफ वह अपने पहले के रिवायती ग़ज़ल गायकों और शाइरों से तरक्कीपसंदी के उसूलों को सही मनवाने के लिए लड़ते, दूसरी तरफ तरक़्क़ीपसंद लेखकों की अक्सरियत से ग़ज़ल को स्वीकार कराने और उसकी अहमियत को तसलीम करवाने के लिए उन्हें असाधारण साहित्यिक वाद-विवाद करना पड़ता.’’
अलबत्ता रिवायती ग़ज़ल के घिसे-पिटे मौजू और तर्जे बयान को उन्होंने अपनी तरफ से बदलने की पूरी कोशिश की. जिसमें वे कामयाब भी हुए. मजरूह की शायरी में रूमानियत और इंकलाब का बेहतरीन संगम है. ऐसी ही उनकी एक ग़ज़ल के कुछ अश्आर इस तरह से हैं, ‘‘अब अहले-दर्द (दर्दवाले आशिक) ये जीने का अहतिमाम (प्रबंध) करें/उसे भुला के ग़मे-ज़िंदगी (जीवन के दुःख) का नाम करें./…गुलाम रह चुके, तोड़ें ये बंदे-रुसवाई (बदनामी की जंजीर)/ ख़ुद अपने बाज़ू-ए-मेहनत (परिश्रम करने वाली बांहों का) का एहतिराम करें.’’
मजरूह सुल्तानपुरी की इस बात से हमेशा नाइत्तेफ़ाक़ी रही कि मौजूदा ज़माने के मसायल को शायराना रूप देने के लिए ग़ज़ल नामौजू है, बल्कि उनका तो इससे उलट यह साफ़ मानना था,‘‘कुछ ऐसी मंज़िलें हैं, जहां सिर्फ ग़ज़ल ही शायर का साथ दे सकती है.’’ कमोबेश यही बात काज़ी अब्दुल गफ्फ़ार, मजरूह की एक मात्र शायरी की किताब ‘ग़ज़ल’ की प्रस्तावना में लिखते हुए कहते हैं, ‘‘मजरूह का शुमार उन तरक्कीपसंद शायरों में होता है, जो कम कहते हैं और (शायद इसलिए) बहुत अच्छा कहते हैं. ग़ज़ल के मैदान में उसने वह सब कुछ कहा है, जिसके लिए बाज़ तरक़्क़ीपसंद शायर सिर्फ़ नज़्म का ही पैराया ज़रूरी और नागुजीर (अनिवार्य) समझते हैं. सही तौर पर उसने ग़ज़ल के क़दीम शीशे (बोतल) में एक नई शराब भर दी है.’’
काज़ी अब्दुल गफ्फ़ार की यह बात सही भी है. उनकी एक नहीं, कई ऐसी ग़ज़लें हैं जिसमें विषय से लेकर उनके कहन का अंदाज़ निराला है. मसलन ‘‘सर पर हवा-ए-ज़ुल्म चले सौ जतन के साथ/ अपनी कुलाह कज है उसी बांकपन के साथ.’’, ‘‘जला के मश्अले-जां हम जुनूं-सिफात चले/ जो घर को आग लगाए हमारे साथ चले.’’ मजरूह, मुशायरों के कामयाब शायर थे. ख़ुशगुलू (अच्छा गायक) होने की वजह से जब वे तरन्नुम में अपनी ग़ज़ल पढ़ते, तो श्रोता झूम उठते थे. ग़ज़ल में उनके बग़ावती तेवर अवाम को आंदोलित कर देते.
मजरूह सुल्तानपुरी के क़लाम में हालांकि ज्यादा ग़ज़लें नहीं हैं. उनकी किताब ‘ग़ज़ल’ में सिर्फ 50 ग़ज़लें ही संकलित हैं, लेकिन इन ग़ज़लों में से किसी भी ग़ज़ल को कमजोर नहीं कह सकते. उन्होंने अदबी क़लाम कम लिखा, लेकिन बेहतर और लाजवाब लिखा. मजरूह की एक नहीं, बल्कि कई ऐसी ग़ज़लें हैं, जिनमें उन्होंने समाजी और सियासी मौजूआत को कामयाबी के साथ उठाया है. इनमें उनके बग़ावती तेवर देखते ही बनते हैं.
मुल्क की आज़ादी की तहरीक में ये ग़ज़लें, नारों की तरह इस्तेमाल हुईं. ‘‘सितम को सर-निगूं (झुका सर), ज़ालिम को रुसवा हम भी देखेंगे/ चले ऐ अज्मे बग़ावत (बगावत का निश्चय) चल, तमाशा हम भी देखेंगे/……अभी तो फ़िक्र कर इन दिल से नाज़ुक आबगीनों (कांच के बने हुए) की/ ब-फ़ैज़े-अम्न (शांति और अमन के सौजन्य से) फिर सागर (शराब का प्याला) में दरिया हम भी देखेंगे/निगारे-चीं (चीन की कला का प्रिय) का घायल तोड़ता है दम सरे-मक़तल (वधस्थल के सामने)/ बचाले आके एजाजे-मसीहा (मसीहा का कमाल) हम भी देखेंगे/ जबीं (माथे) पर ताजे-जर (पूंजी-रूपी ताज), पहलू में जिंदा (जेलखाना), बैंक छाती पर/ उठेगा बेकफ़न कब ये जनाजा हम भी देखेंगे.’’
मजरूह सुल्तानपुरी की शुरूआती दौर की ग़ज़लों पर आज़ादी के आंदोलन का साफ़ असर दिखलाई देता है. दीगर तरक़्क़ीपसंद शायरों की तरह, उनकी भी ग़ज़लों में मुल्क के लिए मर-मिटने का जज़्बा नज़र आता है. ये ग़ज़लें सीधे-सीधे अवाम को संबोधित करते हुए लिखी गई हैं. ‘‘आहे-जां-सोज (जान को जला देने वाली आह) की महरूमी-ए-तासीर (प्रभाव की विफलता) न देख/ हो ही जाएगी कोई जीने की तद्बीर (उक्ति) न देख/…..यह ज़रा दूर पे मंज़िल, यह उजाला, यह सुकूं/ ख़्वाब को देख अभी ख़्वाब की ताबीर न देख/ देख जिंदां से परे, रंगे-चमन, जोशे-बहार/ रक्स करना है तो फिर पांव की जंज़ीर न देख.’’
अवामी मुशायरों में तरक़्क़ीपसंद शायर जब इस तरह की ग़ज़लें और नज़्में पढ़ते थे, तो पूरा माहौल मुल्क की मोहब्बत से सराबोर हो जाता था. अप्रत्यक्ष तौर पर ये अवामी मुशायरे अवाम को बेदार करने का काम करते थे. ख़ास तौर से मजरूह की शायरी उन पर गहरा असर करती. ‘‘तकदीर का शिकवा बेमानी, जीना ही तुझे मंज़ूर नहीं/ आप अपना मुकद्दर बन न सके, इतना तो कोई मजबूर नहीं/….‘मजरूह’ उठी है मौजे-सबा (सुबह का शीतल हवा का झोंका), आसार लिए तूफ़ानों के/ हर कतरए-शबनम (ओस की बूंद) बन जाए, इक जू-ए-रवां (बहती नदी) कुछ दूर नहीं.’’
लंबे संघर्षों के बाद, जब मुल्क आज़ाद हुआ तो मजरूह सुल्तानपुरी ने इस आज़ादी का इस्तेकबाल करते हुए लिखा,‘‘अहदे-इंक़लाब आया, दौरे-आफ़ताब आया/मुन्तज़िर (प्रतीक्षित) थीं ये आंखें जिसकी एक ज़माने से/ अब ज़मीन गायेगी, हल के साज पर नग़मे/ वादियों मे नाचेंगे हर तरफ तराने से/ अहले-दिल उगायेंगे ख़ाक से महो-अंजुम (चांद-सितारे)/अब गुहर (मोती) सुबक (कम कीमत का) होगा जौ के एक दाने से/ मनचले बुनेंगे अब रंगो-बू के पैराहन/अब संवर के निकलेगा हुस्न कारखाने से.’’
मजरूह की ग़ज़लों में आत्मविश्वास और आत्मसम्मान ग़जब का है. उनकी ग़ज़लों के कई शेर इस बात की तस्दीक करते हैं. मसलन ‘‘हम ही काबा, हम ही बुतख़ाना, हमीं हैं कायनात/हो सके तो खुद को भी इक बार सजदा कीजिए.’’ या फिर‘‘अश्कों में रंगो-बूए-चमन (उपवन के रंग और गंध) दूर तक मिले/जिस दम असीर (बंदी) हो के चले गुलसितां से हम.’’, ‘‘ये हुक्म है रहे मुट्ठी में बंद सैले-नसीम (बहती हवा)/ये जिद है बहरे-तपां (तपने के लिए) कूजा-ए-कुहन (पुराना घड़ा) में रहे.’’ शायर का ये आत्मसम्मान ही है, जो उसे अपने से ताक़तवर से सीधे-सीधे भिड़ा देता है. किसी तरह का कोई भी डर, उन्हें अपनी अभिव्यक्ति करने से रोक नहीं पाता.
मजरूह सुल्तानपुरी का आगाज़ फ़िल्मों में कैसे हुआ? इसका किस्सा कुछ इस तरह से है, मशहूर फिल्म निर्माता ए.आर. कारदार ने अपनी फ़िल्म ‘शाहजहां’ के गीतों के लिए जिगर मुरादाबादी को साइन किया हुआ था. लेकिन जिगर साहब ने किसी वजह से यह फ़िल्म नहीं की. उन्हीं दिनों मुम्बई के एक मुशायरे में ए. आर. कारदार ने मजरूह को सुना और उनकी ग़ज़ल ‘‘शबे-इंतजार की कश्मकश में न पूछ कैसे सहर हुई/ कभी इक चिराग बुझा दिया, कभी एक चिराग जला दिया.’’ को भरपूर दाद देते हुए अपनी फ़िल्म के लिए गाने लिखने की पेशकश कर दी. मगर मजरूह ने फ़िल्मों के लिए लिखने से साफ़ इंकार कर दिया. वजह, उन दिनों फ़िल्मों में काम करने को अच्छा नहीं समझा जाता था. शरीफ़ घराने के लोग इस काम को कमतर समझते थे.
बहरहाल जिगर मुरादाबादी की समझाने के बाद किसी तरह से मजरूह गाने लिखने के लिए तैयार हुए. पहली ही फ़िल्म में उन्हें नौशाद के साथ काम करने का मौक़ा मिला. फ़िल्म के सारे गाने ही सुपरहिट साबित हुए. मजरूह के गीत और केएल सहगल की मख़मली आवाज में जो गीत आये, वे आज भी सिनेमा प्रेमियों की ज़बान पर हैं. मसलन‘‘ग़म दिए मुस्तकिल, कितना नाज़ुक है दिल, ये न जाना’’, ‘’जब दिल ही टूट गया, हम जी के क्या करेंगे.’’ ख़ास तौर से‘’जब दिल ही टूट गया…’’ इस गीत से केएल सहगल इतना मुतास्सिर हुए थे कि उन्होंने अपने अंतिम संस्कार के वक्त इस गीत को बजाने की वसीयत की थी और उनकी मौत के वक्त ऐसा ही किया गया.
‘शाहजहां’ के कामयाब गीतों के साथ ही मजरूह सुल्तानपुरी का फ़िल्मी सफ़र शुरू हो गया. उनकी कलम से एक के बाद एक शाहकार गीत निकले. ‘अंदाज’, ‘आरजू’, ‘सी.आई.डी.’, ‘चलती का नाम गाड़ी’, ‘नौ-दो ग्यारह’, ‘पेइंग गेस्ट’, ‘काला पानी’, ‘दिल्ली का ठग’, ‘पारसमणि’, ‘दोस्ती’, ‘फुटपाथ’, ‘तीन देवियां’, ‘बंबई का बाबू’ आदि फ़िल्मों के लगातार हिट गीतों ने उन्हें फ़िल्मी दुनिया में शिखर पर पहुंचा दिया. उनके लिखे गाने फ़िल्मों की कामयाबी की जमानत होते थे. हालांकि ‘मजरूह’ के मायने घायल होता है, लेकिन इससे उलट अपने पचास साल के फ़िल्मी कैरियर में मजरूह के गीतों ने टूटे हुए दिलों पर मरहम लगाने का काम किया है. उनके गीत आज भी उसी शिद्दत और प्यार से गुनगुनाये जाते हैं.
मजरूह सुल्तानपुरी ने 1945 से लेकर 2000 तक हिन्दी फिल्मों के लिए गीत लिखे. अपने पचपन साल के फ़िल्मी सफ़र में उन्होंने 300 फिल्मों के लिए तकरीबन 4000 गीतों की रचना की. फ़िल्मी दुनिया में इतना लंबा समय और इतने सारे गीत किसी भी गीतकार ने नहीं रचे हैं. यह वाकई एक कीर्तिमान है. मजरूह ने नौशाद से लेकर चित्रगुप्त, एस.डी. बर्मन, ओ.पी. नैयर, ख़य्याम, आर. डी. बर्मन और नये से नये संगीतकार राजेश रोशन, अनु मलिक, जतिन ललित, एआर रहमान और लेस्ली लेविस तक के साथ काम किया. फ़िल्म निर्माता नासिर हुसैन के साथ उनकी खूब जोड़ी जमी. ‘तुमसा नहीं देखा’, ‘दिल दे के देखो’, ‘फिर वही दिल लाया हूं’, ‘तीसरी मंजिल’, ‘प्यार का मौसम’, ‘कारवां’, ‘यादों की बारात’, ‘हम किसी से कम नहीं’, ‘ज़माने को दिखाना है’, ‘कयामत से कयामत तक’, ‘जो जीता वही सिकंदर’ आदि नासिर हुसैन की इन सभी फिल्मों के सुपर हिट गाने मजरूह के ही लिखे हुए हैं.
फ़िल्मी गीतों ने मजरूह सुल्तानपुरी को ख़ूब इज्जत, शोहरत और पैसा दिया. बावजूद इसके वे अदबी काम को ही बेहतर समझते थे. अपने फ़िल्मी गीतों के बारे में उनका कहना था,‘‘फ़िल्मी शायरी मेरे लिए ज़रिया-ए-इज्ज़त नहीं, बल्कि ज़रिया-ए-मआश (जीविका का साधन) है. मैं अपनी शायरी को कुछ ज्यादा मैयारी (ऊंचे स्तर की) भी नहीं समझता. इसके जरिए मुझे कोई अदबी फ़ायदा भी नहीं पहुंचा है, बल्कि फ़िल्मी मसरुफियत मेरी शेर-गोई (काव्य लेखन) की रफ़्तार में हाइल रही.’’ यह बात सही भी है. फ़िल्मी गानों की मसरुफियत के चलते, वे ज्यादा अदबी लेखन नहीं कर पाये. लेकिन उन्होंने जो कुछ भी लिखा, वह उन्हें ऊंचे ग़ज़लकार के दर्जे में शामिल करने के लिए काफी है.
फ़िल्मों में जब भी मजरूह को गुंजाइश मिली, उन्होंने गीत की बजाय ग़ज़ल को आगे बढ़ाया और ये ग़ज़ल खूब मकबूल भी हुईं. फ़िल्मों में ऐसी ही उनकी कुछ मशहूर ग़ज़लें हैं,‘‘रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह/बैठे हैं उन्हीं के कूचे में हम आज गुनहगारों की तरह.’’ (ममता), ‘‘हमीं करें कोई सूरत उन्हें बुलाने की/सुना है उनको तो आदत है भूल जाने की.’’ (एक नज़र) इनमें भी फ़िल्म ‘दस्तक’ की ये ग़ज़ल, ‘‘हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाजार की तरह/उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह./….मजरूह लिख रहे हैं वो अहले-वफे का नाम/हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह.’’, तो जैसे पूरी फ़िल्म का केन्द्रीय भाव प्रकट कर देती है.
मजरूह सुल्तानपुरी ने ग़ज़लें, नज़्में, शेर जो कुछ भी रचा, वह सारा उर्दू और दीगर ज़बानों के अलावा देवनागरी लिपि में भी आ गया है. उनकी कुछ ग़ज़लों का अंग्रेजी में अनुवाद हुआ है. किताब का नाम ‘नेवर माइंड युअर चेन’ है. मजरूह ने हालांकि ज्यादातर ग़ज़लें ही लिखीं हैं, लेकिन उनकी जो नज़्में हैं मसलन ‘क़लम’, ‘लता मंगेशकर के नाम’ आदि वे भी किसी स्तर से कम नहीं. अदब की ख़िदमत और फ़िल्मी दुनिया में लिखे गीतों के लिए मजरूह सुल्तानपुरी, अपनी ज़िंदगी में ही कई अवार्डों से नवाजे गए.
मजरूह सुल्तानपुरी फ़िल्मी दुनिया में ऐसे गीतकार थे, जिन्हें सबसे पहले ‘दादा साहब फाल्के अवार्ड’ मिला. 24 मई, साल 2000 को 80 साल की उम्र में वे इस फ़ानी दुनिया से रुख़सत हो गए. मजरूह सुल्तानपुरी नहीं हैं, पर उनकी शायरी-गीत आज भी हवाओं में ये सदा दे रहे हैं, ‘‘हमारे बाद अब महफ़िल में अफ़साने बयां होंगे/ बहारें हम को ढूंढ़ेंगी न जाने हम कहां होंगे.’’
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