यथार्थ की कसौटी और कहानी में गढ़ंत

कहानी पर गढ़ंत विषय पर सोचते हुए लगा कि दरअसल यह कोई एक विषय या एक सवाल नहीं, यह तो भारी भरकम गठरी है, जिसकी गांठ खोलते ही न जाने कितने सवालों से सामना होगा – रचना, रचना कर्म की प्रकृति, मायनों और उद्देश्यों से संबंधित लगभग सारे ही सवाल. सबसे पहले यही कि ‘गढ़ंत’ के क्या मायने? क्या यह वही है जिसके लिए हम ‘रचना’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं या उससे कुछ अलग या इतर? क्या रचना और गढ़ना एक ही है या उसमें कुछ अंतर है? ‘रचना’ शब्द में ही निहित है, वह जिसे सयत्न रचा जाता है और इस मायने में हर रचना गढ़ी गई होती है, यहां तक कि वे रचनाएं भी जो जीवन के एक यथावत टुकड़े या फांक या कतरन सरीखी जान पड़ती हैं. जैसे अमरकांत की कुछ कहानियां या रेणु की – जिनमें रचे जाने का कोई यत्न नज़र नहीं आता. वह कौन सी रचना है जिसके लिए रचना शब्द नाकाफ़ी है और जिसके लिए यह नया लफ़्ज़ लाने की ज़रूरत महसूस की गई – गढ़ंत जो ख़ुद एक गढ़ंत यानी गढ़ा गया लफ़्ज़ जान पड़ता है. एक ऐसा लफ़्ज़ जिसका परिचय या परिभाषा ख़ुद उसी के भीतर है या कहें, जो ख़ुद अपना उदाहरण भी है.

रचना जीवन के बारे में होती है और कई बार वह जीवन से भी आकर्षक हो सकती है – क्योंकि जीवन अनगढ़ और बेतरतीब होता है जबकि रचना को सचेत रूप से, सप्रयत्न और प्यार और लगाव से रचा जाता है – फिर भी वह जीवन नहीं होती, न जीवन का स्थानापन्न. दरअसल रचना या कहानी में जो होता है वह जीवन नहीं, एक पुनर्रचित जीवन होता है, जिसे लेखक जीवन से कुछ तत्व उधार लेकर रचता है. असली जीवन कठोर और लौहवत नियमों में जकड़ा होता है. उसकी देश और काल में एक चौहद्दी होती है. रचना में उस चौहद्दी को तोड़ दिया जा सकता है. उन नियमों को उलट-पलट कर दिया जा सकता है, उन्हें उनकी पराकाष्ठा तक ले जाया जा सकता है. रचना में जो समय होता है, वह वास्तविक या भौतिक काल यानी वह काल जिसमें हम सबका जीवन गुज़रता है, से अलग हो सकता है. वहां उसकी रफ़्तार को लेखक तेज़ या मंद कर सकता है, यहां तक कि बिल्कुल रोक सकता है. वाचक ख़ुद को वर्तमान में रखते हुए अतीत की कहानी सुना सकता है, अतीत में रखते हुए सुदूर अतीत की कहानी सुना सकता है या भविष्य में रखते हुए अभी की या निकट अतीत की या सुदूर अतीत की कहानी सुना सकता है. वह इतिहास के किसी कालखंड में ख़ुद को रखते हुए प्राग-इतिहास की कहानी सुना सकता है या किसी ऐसे भविष्य की जो अभी आया ही नहीं.

जेम्स जॉयस के उपन्यास ‘यूलिसिस’ में समय की रफ़्तार इतनी धीमी है कि चौबीस घंटों की कहानी छह सौ पन्नों में कही जा पाती है – और इसके बिल्कुल दूसरे छोर पर हंगारी लेखक लायोश जिलाही की एक छोटी कहानी है ‘यान कोवाच का अंत’…दो-तीन पेज की लेकिन एक पूरे जीवन की बल्कि मुख्य पात्र के मरने के बाद के 49 वर्षों की भी एक मुकम्मिल जान पड़ने वाली कहानी. गुंटर ग्रास के प्रसिद्ध उपन्यास ‘द टिन ड्रम’  में समय का प्रवाह जारी रहता है, सिर्फ़ एक पात्र के लिए, कहानी के मुख्य पात्र के लिए वह एक जगह ठहर जाता है, जब वह सचेत रूप से ख़ुद यह तय करता है कि वह आगे ग्रो नहीं करेगा, फिर पूरे उपन्यास में उसकी आयु तीन साल रहती है जबकि उसके इर्द-गिर्द सब पुराना पड़ता है, लोग बूढ़े होते हैं. और इसके दूसरे छोर पर याद आती है उदय प्रकाश की कहानी ‘मैंगोसिल’ जसमें सिर्फ़ एक पात्र, चंद्रकांत थोराट और शोभा के बच्चे सूर्यकांत या सूरी के लिए वक्त बेतहाशा तेज़ भागता है, वह तेज़ी से बूढ़ा होता जाता है और उसका सिर, हमारे समय के कितने ही भेदों और रहस्यों को भीतर छुपाये उसका सिर बड़ा होता जाता है. फिर यह तो भौतिक समय है, जो हमारे बाहर बहता है. उससे अलग एक मनोवैज्ञानिक समय होता है जो हमारे भीतर बहता है. इन दोनों समय में जो रिश्ता होता है, वह क्या होता है और क्या हो सकता है, यह मारिओ वेर्गास ल्योसा एक लेख में बताते हैं. इस लेख में वे एक कहानी का ज़िक्र करते हैं – अमेरिकी लेखक एम्ब्रोस बियेर्स की कहानी ‘ऐन अकरेंस एट आउल क्रीक ब्रिज’  जो 1890 में छपी थी. यह एक प्रसिद्ध कहानी है लेकिन मुझे हाल में पढ़ने का मौक़ा मिला. कहानियों का कथासार बताना कहानी पढ़ना नहीं होता, न कहानी पढ़ने का विकल्प ही. लेखक के श्रम को और उसके जूझने को आदर देते हुए कहानियों को पूरा पढ़ा जाना चाहिए, एक-एक शब्द पर ठहरते हुए, उनके सारे प्रकट-अप्रकट मायनों और भाषा के स्वरों और अनुगूंजों को धीरज के साथ भीतर उतारते हुए.

फिर भी, यह अठारहवीं शताब्दी में अमेरिकी गृहयुद्ध के समय घटित होती है. दक्षिणी प्रांत का एक प्लांटर है, पैटन फारकर जो एक रेल के पुल से लटका दिया जाने वाला है. उसने रेल की पटरियां उखाड़ने की कोशिश की थी. कहानी पुल पर उसके गले में पड़े फंदे के दृश्य से शुरू होती है. नीचे गहरी नदी है और वह पुल पर दो स्लीपरों के बीच एक तख़्ते पर खड़ा है, हथियारबंद सिपाहियों से घिरा हुआ. उसके हाथ पीछे की तरफ़ बंधे हुए हैं. ख़ामोशी से उसे लटकाये जाने की तैयारियां की जा रही हैं – क्योंकि मृत्यु एक गणमान्य अतिथि है जिसका स्वागत गरिमामय तरीक़े से किया जाना चाहिए, आदर और ख़ामोशी के साथ. लेकिन जैसे ही उसके जीवन के अंत की घोषणा करता आदेश आता है, रस्सी टूट जाती है और वह नीचे नदी में गिर जाता है. होश खो बैठता है. काफी समय के बाद, जब होश आता है तो गले में घुटन के साथ कुछ कसता हुआ महसूस हो रहा है. वह कुछ सोच पाने की स्थिति में नहीं है, केवल महसूस कर सकता है. किसी तरह वह अपने हाथों को मुक्त करता, गले में पड़े फंदे से छुटकारा पाता है. कमांडर के फ़ायर के आदेश पर पुल से सिपाहियों का जत्था नदी में देखते हुए गोलियों की बौछार करता है. वह बचने के लिए गहरी डुबकी लेता है और जब ऊपर आता है तो पानी में डूब रही, नीचे जाती गोलियां, धातु के चपटे टुकड़े उससे टकराते हैं. एक उसके कॉलर और गर्दन के बीच फंस जाता है जो उसे पानी में भी काफी गर्म महसूस होता है. उसे भी अपने से अलग कर वह जल्दी से पानी में छोड़ देता है. आसन्न मृत्यु से संघर्ष करते हुए अब उसकी सारी इंद्रियां चरम रूप से जागृत हैं. वह एक-एक चीज़ महसूस औऱ दर्ज कर सकता है – चेहरे पर पानी का टकराना, दूर पुल पर धुंधले नज़र आते सिपाही, किनारे के जंगल के पेड़, पत्तियां, पत्तियों की सलवटें, टिड्डियां, जुगनू, चमगादड़. एक गोली क़रीब ही पानी से टकराती, फिर दूसरी. एक संतरी राइफल की दूरबीन से झांकता नज़र आता है और वह यहां तक देख पाता है कि उसकी आंखें भूरी हैं. वह यह भी सोच लेता है कि वे समझ लेंगे कि एक साथ की जाने वाली गोलियों की बौछार से वह ख़ुद को डुबकी लेकर वैसे ही बचा सकता है जैसे एक अकेली गोली से …और अब वे यह ग़लती नहीं दुहराएंगे. सिपाही अब शायद अलग-अलग गोलियां चलाएंगे.

ये सब ख़्याल उसके मन में चल रहे हैं. वह एक ऊंची लहर में फंस जाता है जो उसे बहुत दूर ले जाकर किनारे पटक देती है. वहां की मुलायम रेत में वह अपनी उंगलियां गाड़ देता है. एक-एक पत्थर को वह यूं छूता है जैसे वे क़ीमती हीरे हों. रोता रहता है. थका मांदा, वह सूरज से दिशा का अनुमान लगाता दिन भर चलता रहता है लेकिन जंगल है कि ख़त्म नहीं होता. वह बहुत घना जंगल है, जिसमें कोई रास्ता तो छोड़ें, एक पगडंडी भी नहीं. रात होने तक वह थकान से चूर होकर गिर पड़ता है, फिर पता नहीं कब तक, लेकिन लंबे समय तक सोया रहता है. एक अनंत अर्से के बाद वह एक बुख़ार जैसी अवस्था में जागता है, फिर चलता है. न जाने कब और कितनी देर के बाद वह पाता है कि वह अपने घर के सामने है. पहले उसे वह सपने सरीखा लगता है लेकिन धीरे-धीरे यक़ीन आता है कि सचमुच… सब कुछ ठीक वैसा ही है जैसा वह छोड़कर गया था, सुबह के प्रकाश में जगमगाता हुआ. वह थके हाथों से गेट को धकेलता है और चौड़े रास्ते पर चलते हुए एक स्त्री के वस्त्रों की आश्वस्ति भरी फड़फड़ाहट की आवाज़ सुनता है. उसकी पत्नी ताज़ादम, ख़ूबसूरत, सीढ़ियां उतरती हुई नज़र आती है. दूर से उसे देखती, चेहरे पर एक छलकती हुई लेकिन अनकही ख़ुशी के साथ उसका इंतज़ार कर रही है. आह कितनी सुंदर है वह. वह उसकी ओर दौड़ता है और उसे छूने, अपनी भुजाओं में कसने ही वाला थी कि चंद लम्हे पहले से कस रही रस्सी अचानक उसकी सांसे रोक देती है. हम स्तब्ध रह जाते हैं जब जानते हैं कि यह समूची ख़ौफ़नाक़ कहानी उसके अंतःकरण के बीच से गुज़री है. यह सारा जीवन उसने बस एक ही पल में, एक तेज़ी से बीत गए क्षण में जी लिया है.

ऐसी ही एक और कहानी है बोर्गेस की ‘द सीक्रेट मिरेकिल’. यह कहानी भी वहां शुरू होती है जहां कथा का नायक जो एक कवि है, मार दिया जाने वाला है, मरने के एक पल पहले. ऐन उस पल में उसे ईश्वर के द्वारा एक वर्ष की आयु और दे दी जाती है. उसे एक काव्य नाटक लिखना है, जिसे लिखना उसके जीवन की सबसे बड़ी साध है, मगर जीवन भर की तैयारी के बावजूद वह लिख नहीं सका है. इस तरह दिए गए अतिरिक्त समय में वह अपनी उस महत्वाकांक्षी रचना को पूरा कर लेता है. लेकिन इस तरह से बिताए गए पूरे वर्ष का विस्तार बस उतने वक्त का है, जितने में फ़ायरिंग स्क्वाड का मुखिया ‘फ़ायर’ का ऐलान करता है और गोली अपने लक्ष्य को पा लेती है. यानी बस एक पल. पलक का एक बार झपकना. ल्योसा कहते हैं – सभी (अच्छी) कहानियां अपने काल का निर्धारण ख़ुद करती हैं, उनका एक निजी काल तंत्र होता है, पाठक के जीवन के वास्तविक समय से इतर. ये दो विदेशी कहानियां थीं लेकिन स्मृति पर ज़ोर दें तो हमें कई भारतीय कहानियां भी याद आ सकती हैं जो इसी तरह असली काल पर निर्भर न रहते हुए अपना काल ख़ुद गढ़ती हैं.

यह तो रचनाओं के काल का प्रश्न था. इसी तरह वे घटनाक्रम और जीवन प्रसंगों को भी अपनी तरह से गढ़ सकती हैं – असली जीवन की कठोर और निश्चित भौतिकता से परे. कुछ कहानियों का ज़िक्र करना चाहूंगा, याद दिलाने के लिए और इस उम्मीद में कि शायद इनमें हमें ‘गढ़ंत’ की कोई साफ़ सुथरी परिभाषा मिल सके.  पुश्किन की 1833 में लिखी गई कहानी ‘द क्वीन ऑफ़ स्पेड्स’ या ‘हुकुम की रानी’ में एक बूढ़ी काउंटेस अपनी मौत के बाद भूत बनकर अपनी मौत का बदला लेने आती है. बदला पूरा हो जाता है तो कथानायक जिसका नाम हर्मन है, क्या देखता है कि सामने पड़े ताश के पत्ते पर हुकुम की रानी जिसका चेहरा हूबहू उस काउंटेस से मिलता है, उसे आंख मारती है और मुस्कराती है. काफ़्का की ‘मेटामॉरफॉसिस’ का नायक ग्रेगोर साम्सा एक दिन सुबह उठता है तो पाता है कि वह एक तिलचट्टे में तब्दील हो गया है. दोस्तोयेव्स्की की कहानी ‘द क्रोकोडाइल’ यानी मगरमच्छ में इवान मैत्विच और उसकी पत्नी एक प्रदर्शनी देखने जाते हैं जहां एक जर्मन व्यापारी ने एक मगरमच्छ प्रदर्शित किया है. वह मगरमच्छ को छेड़ता है तो वह उसे समूचा निगल जाता है. लेकिन अंदर जाकर वह देखता है कि मगरमच्छ का जो अंतर्य है वह काफी रंगारंग और आरामदेह है. वह वहीं रहने का और वहीं से अपना सामाजिक कार्य करते रहने का फ़ैसला करता है. गोगोल की 1835 या 36 में लिखी गई कहानी ‘नाक’ को याद कीजिए. एक नाई इवान याकोव्लेविच जो बला का शराबी है, सुबह नाश्ते के वक्त देखता है कि डबलरोटी में कुछ फंसा हुआ है. वह उसे बाहर निकालता है तो देखता है कि वह एक नाक है. वह पहचान भी लेता है कि वह उसके एक रेगुलर कस्टमर कॉलेजिएट असेसर निकोलाई कोवाल्योव की नाक है. उधर कॉलेजिएट असेसर सो कर उठता है तो आइने में देखता है कि जहां उसकी नाक थी, वहां सिर्फ़ चपटी त्वचा है. इसके बाद कहानी में वह नाक अपने मालिक से स्वतंत्र जीवन जी रही है. शानदार ड्रेस में यहां-वहां नज़र आती है. उसका प्रमोशन हो जाता है.यहां तक कि वह उसे पीछे छोड़कर स्टे काउंसिलर हो जाती है. उसका भूतपूर्व मालिक उसका पीछा करता है और बार-बार निवेदन करता है कि आप मेरी नाक हैं और आपके बिना जीना मेरे लिए मुश्किल है.

एक हंगारी कहानी है जिसमें दुश्मन देश का आक्रमण होने पर गांव वालों को अचानक आधी रात में, सब चीज़ें वैसी की वैसी छोड़कर, गांव ख़ाली करना होता है. एक बुढ़िया है जो लगातार रोये जा रही है क्योंकि वह अपने ही घर में मरना चाहती है. सब थके हारे पास के स्टेशन पहुंचते हैं. कहानी में वह पूरे का पूरा गांव…सारे घर, दुकानें, रास्ते, घंटाघर, चर्च, रेलवे स्टेशन…एक-एक पेड़ और एक-एक झाड़ी…एक रात को उनके पीछे उड़ कर आते हैं. सुबह तक वे फिर ग़ायब हो जाते हैं. यह भ्रम या सपना जान पड़ता है लेकिन वह बुढ़िया जो अपने ही घर में मरना चाहती थीं, अब वहां नहीं है. उसका मकान उसे वापस लेकर उड़ गया है.

ये सब विदेशी कहानियां हैं तो हिन्दी की कहानियों में मुक्तिबोध की ‘क्लाड ईथरली’ को याद कीजिए. उसमें कहानी का वाचक सीबीआई का एक अधिकारी है जो एक करोड़पति सेठ की नाजायज़ संतान है – और हिरोशिमा पर अणु बम फेंकने वाली अमरीकी वायुसेना टीम का एक सदस्य क्लाड ईथरली भारत में एक जगह पर साथ-साथ हैं. इस कहानी में क्या-क्या है…बाहरी दुनिया और मनुष्य की आंतरिक दुनिया के बारे में चिंताएं, आधुनिक मनीषी के अंतःकरण की स्क्रीनिंग, उसके अवचेतन की पड़ताल, मनोविश्लेषण है, एक समूची सभ्यता समीक्षा. साम्राज्यवाद के लिए, युद्ध के लिए नफ़रत और दूसरे विश्वयुद्ध के बाद मनुष्य के सामने जो नैतिक सवाल और संकट खड़े हो गए थे, उनका संकेत. लेकिन संकुचित या प्रकृत यथार्थवाद की कसौटी पर यह कहानी खरी नहीं उतरेगी. उन्हीं की दूसरी कहानी लें – ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’. एक बहुंमंज़िला भव्य भवन की आठवीं मंज़िल से सातवीं मंज़िल के ज़ीने की सूनी-सूनी सीढ़ियां उतरता हुआ एक विद्यार्थी. अभी-अभी उसने एक चमत्कार देखा है. तीन कमरे पार करता हुआ एक विशाल वज्रबाहू हाथ. वह बारह साल के बाद उस भवन से बाहर आ रहा है. आख़िरी दिन उसे पता चला है कि उसके गुरू जिनसे उसे बारह साल तक संसार की तमाम विद्याएं प्राप्त हुईं, वह एक ब्रह्म राक्षस हैं. यह कहानी भी आधुनिक यथार्थवादी कथाओं के शिल्प में नहीं है. ये सब रचनाएं जो मैंने चुनी और इस प्रकार की अन्य बेशुमार चुनी जा सकती हैं, कोई भी यथार्थवाद, कम से कम प्रकृत यथार्थवाद की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं. इन सब कहानियों में ऐसा बहुत कुछ घटता है जो वास्तविक जीवन में घटित होना मुमकिन नहीं है. लेकिन वे सबको श्रेष्ठ न भी लगी हों तो भी यह आपत्ति नहीं की गई कि वे रचना न होकर गढ़ंत हैं या उनमें यथार्थ को मनमाने तरीक़े से तोड़ मरोड़ा गया है.

दरअसल, जैसा कि मैंने पहले कहा, यह कोई एक सवाल नहीं, सवालों की एक गठरी है और यह शीर्षक ‘कहानी में गढ़ंत’ उस गठरी पर लगा हुआ महज एक टैग या एक पर्ची है. जब हम गठरी खोलते हैं तो हमारा इस सवाल  सामना होता है कि कहानी में जो जीवन होता है यानी पुनर्रचित जीवन, वह कैसे वजूद में आता है और उसका असली जीवन से क्या संबंध होता है. अशली जीवन यानी यह दुनिया, प्रकृति, लोग, समाज. फिर इस सवाल के पीछे दूसरा सवाल अपने आप चला आता है कि इस असली दुनिया से लेखक का क्या रिश्ता है, वह दुनिया को किस तरह देखता है.. और इसी के साथ जैसे आलपिन में नत्थी यह सवाल .. बार-बार सामने आने वाला बुनियादी सवाल कि कला या साहित्य का उद्देश्य क्या होता है? उसकी ज़रूरत क्यों होती है? कोई क्यों लिखता है? इसलिए कि हम जो देखते हैं उसका गहरा संबंध प्रथमतः इसी से होता है कि हम क्यों देखते हैं, कहां से देखते हैं? जैसे एक जंगल में या जंगल के सामने खड़ा होकर एक चित्रकार वहीं नहीं देख रहा होता जो पेड़ कटवाने वाला ठेकेदार…एक ही जंगल होता है लेकिन चित्रकार के लिए जुदा होता है, ठेकेदार के लिए अलग. इस तरह एक सवाल को छूने पर दूसरा, फिर तीसरा…रचना की प्रकृति और रचना कर्म की ज़रूरत और प्रासंगिकता के सारे सवाल एक-एक करके पुनर्जीवित हो जाते हैं. यथार्थवाद का मतलब क्या होता है – चीज़ों को यथावतरख देना यानी यथातथ्यवाद या यथास्थितिवाद? रचनाओं की धातु को परखने की प्रामाणिक कसौटी क्या है – यथार्थ की प्रामाणिकता? जीवन में जो कुछ जैसे घटित होता है, रचना में भी वैसे ही घटता जाए, सारे प्रसंग कार्य-कारण संबंध के धागे से बंधे अपने अंत की ओर घिसटते जाएं, बस इतना ही? लेकिन नैतिक सवाल, दुविधाएं, ग्लानियां, हूक और उधेड़बुन भी रचना के तत्व होते हैं. उनकी उत्कटता और मार्मिकता का कोई महत्व नहीं? रचना अंतिम निष्पत्ति में जो कहती है, उसका कोई महत्व नहीं? उस रचना को कहां रखेंगे, जिसमें यथार्थ शायद टूटा फूटा है लेकिन जो साहस के साथ एक ज़रूर सच कहती है और उसे कहां रखेंगे जिसमें सूक्ष्म यथार्थ होता है लेकिन जो खड़ी नज़र आती है वह हत्यारों के साथ?

इन सब प्रश्नों पर एक साथ चर्चा मुमकिन नहीं. बहुत से सवालों को सवाल के रूप में ही छोड़ना होगा. ज़रूर उस रचना को गढ़ंत कहा जा सकता है, जो यह अहसास दिलाती हो कि लेखक ने यथार्थ को जिस तरह समझा या अधिगृहीत किया है वह कहीं अधूरा या त्रुटिपूर्ण है. लेकिन यहां भी एक सवाल है. ‘लेखक की यथार्थ की समझ में दोष है’ यह कहने में निहित है कि जो ऐसा कह रहा है यानी आलोचक, उसकी ‘यथार्थ की समझ में कोई दोष नहीं’. इसलिए कि वह यह बात रचना के यथार्थ को ख़ुद अपने द्वारा समझ यथार्थ की कसौटी पर कस कर ही तो कह रहा होगा. लेकिन क्या यह मानने का कोई आधार है कि आलोचक की यथार्थ की समझ हमेशा सही होगी या वह ग़लती से परे है. उसके पास रचना को पढ़ने, विश्लेषित करने के, उसके प्रकट-अप्रकट मायनों को उजागर करने के कुछ अतिरिक्त औज़ार हो सकते हैं. लेकिन समसायिक यथार्थ को पकड़ने के औज़ार उसके पास भी वही हैं जो लेखक के पास है. बल्कि अक्सर आलोचक गवेषणा और अनुसंधान और विश्लेषण के टेढ़े-मेढ़े और थका देने वाले रास्तों से जहां पहुंचता है, लेखक अपने संवेदना के रास्ते सीधे वहां पहले ही पहुंच जाता है. जो सवाल आलोचक लेखक से कर रहा है वह उस तक भी पलटकर आता है. यह सवाल लेखक भी उससे कर सकता है.


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