नागार्जुन | यात्री उपनाम ही नहीं, जीने का दर्शन भी था
राहुल सांकृत्यायन अथक यायावर हुए हैं. उनके बाद ‘बाबा’ को यह ख़िताब मिला. उनके बाद फिर किसी को नहीं. बाबा यानी वैद्यनाथ मिश्र – विद्यार्थी, वैदेह. यात्री नागार्जुन बाबा! हिन्दी और मैथिली कविता के, जनपक्षधरता और प्रगतिशीलता के अप्रतिम कवि. जिनका रचा उजली धूप की तरह अंधेरे के ख़िलाफ लड़ने का आह्वान है, जिसमें जनविरोधी ताकतों, सांप्रदायिकता और फासीवाद के ख़िलाफ संघर्ष की उकसाहट है, क्रांति के सपने हैं और भूख-ग़रीबी से गरिमा के साथ जूझने की तरक़ीबें हैं. गद्य में जो काम मुंशी प्रेमचंद ने किया, आगे जाकर पद्य में नागार्जुन ने किया. हालांकि उनका कथा-साहित्य भी बेहद उल्लेखनीय और विलक्षण है. लेकिन उनकी पहचान कवि की है. लोकवादी कवि की. जमकर लिखने के साथ-साथ बाबा ने उम्र भर ख़ूब घुमक्कड़ी की. वह दुनिया को अपना घर मानते थे. देश तो उनका ‘घर’ था ही.
एक बार जालंधर आए. ‘धरती धन न अपना’ उपन्यास के लेखक जगदीश चंद्र को ढूंढते रहे थे. मालूम हुआ कि वह उन दिनों होशियारपुर में हैं तो बाबा वहीं चले गए. उसके बाद फिर उससे और आगे निकल गए. जो उनकी फ़ितरत से वाक़िफ़ थे, उन्हें इस बात पर कोई हैरानी नहीं होती कि पंजाब में तरसेम गुजराल या चंडीगढ़ में गुरशरण सिंह के यहां डेरा डाले मिले बाबा की ख़बर कुछ रोज़ बाद मध्यप्रदेश में हरिशंकर परसाई, ज्ञानरंजन या भाऊ समर्थ के यहां से मिल रही होती. आलोचक विजय बहादुर सिंह ने उनकी यायावरी पर लिखा है, ‘वह अपनी शर्तों पर डेरा जमाते. सुरुचि, आत्मीयता, सहजता, उन्मुक्तता, प्रतिबंधमुक्त दिनचर्या का रंगारंग और विभोरकारी आस्वाद ही उन्हें इन जगहों और ठिकानों तक जब-तब खींच लाता. रहने और जाने को तो वह कहां नहीं जाते और रहते थे पर उनका मन तो ऐसी जगहों पर रमता था जहां पारिवारिक व्यवस्था का उत्पीड़क दबाव और स्थूल औपचारिकताओं के दुर्वेह के झमेले न हों.’
कभी ख़ुद नागार्जुन ने कहा था, ‘जिसने जनजीवन को नज़दीक जाकर नहीं देखा, बार-बार नहीं देखा, वह भला अच्छी रचनाएं कैसे लिख सकता है? हर लेखक को घुमक्कड़ी ज़रूर करनी चाहिए.’ कितने ही लोगों ने उनके प्रवास की बाबत दिलचस्प ब्योरे दर्ज किए हैं. मैथिली-हिन्दी के मशहूर लेखक तारानन्द वियोगी ने नागार्जुन की जीवनी ‘युगों का यात्री’ लिखी है. इसमें उनकी यात्राओं का विस्तार से ज़िक्र है. क्षमा कौल ने एक बार नागार्जुन को कश्मीर आने का न्योता दिया तो उन्होंने तीन शर्तें रखी थीं – कवि दीनानाथ नादिम से बार-बार मिलूंगा, चिनार वृक्ष के साथ अधिक से अधिक समय बिताऊंगा और वितस्ता के जल में आचमन करूंगा. चिनारवाली अन्य कविताओं के साथ ‘बच्चा चिनार’ और संस्कृत कविता ‘शीते वितस्ता’ उसी यात्रा की कविताएं हैं. राजेश जोशी ने अपने एक लेख में संकेत किया है, ‘नागार्जुन की सारी कविताएं एक घुमक्कड़ कवि की यात्रा-डायरियां हैं.’ बक़ौल राजेंद्र यादव, ‘देश का शायद ही कोई कोना हो जहां की यात्राएं उन्होंने न की हों. पर्यटक की तरह नहीं, तीर्थयात्री की तरह. वे ज़िंदगी भर यात्राएं करते रहे. तय करना मुश्किल है कि उनकी ये यात्राएं भौगोलिक अधिक थीं या मानसिक और रचनात्मक. इन यात्राओं से जो स्मृति चिन्ह वे लाए, वे आज हमारे साहित्य की अमूल्य धरोहर है.’
कमलेश्वर ने नागार्जुन पर अपने व्यक्ति-चित्र में लिखा है, ‘असम, उड़ीसा से राजस्थान या मध्य प्रदेश के अंतरालों में या गंगोत्री की चढ़ाई में या कश्मीर के रास्ते में, या लोनावला के चायघर में, या बोरीबंदर स्टेशन पर – हर जगह एक-न-एक ऐसा व्यक्ति जरूर मिला है, जो नागार्जुन-सा लगता रहा है. ऐसा क्यों है कि हिंदुस्तान के हर पड़ाव पर एक-न-एक नागार्जुन नज़र आता है? यह सपने की बातें नहीं, सच्चाई है कि बाबा नागार्जुन हर जगह दिखाई पड़ जाते हैं. यशपाल दिखाई नहीं देते. अमृतलाल नागर भी नहीं, भगवती बाबू भी नहीं. पर मुक्तिबोध और नागार्जुन दिखाई पड़ जाते हैं. एक बार किसी सूने छोटे-से स्टेशन से गाड़ी चली, केबिन गुज़रा और दिखाई दिया कि नागार्जुन खिड़की की पाटी से लगे झंडी झुकाए खड़े हैं.’
पंकज बिष्ट के अनुसार, ‘जिस तरह नागार्जुन देश भर में घूमते रहे, एक फक्कड़ आदमी की तरह, यह दुनिया को समझने का उनका तरीका था. जो आदमी दुनिया को देखना जानता है, वही दुनिया वालों के लिए भी अपना माना जाता है. इसी तरह बाबा समाज को समझना चाहते थे और उसको आत्मसत करना चाहते थे.’ असगर वजाहत ने लिखा है, ‘उनका बिल्कुल रमता जोगी वाला हिसाब-किताब था. जहां मन करता था, चले जाते थे. वे पूरे देश में घूमते थे लेकिन उनको ठहरने की समस्या तो क्या, लोग उनको अपने यहां रखने के लिए कॉम्प्टीशन करने लगते थे. कहते थे, भाई बाबा हमारे यहां ठहरेंगे. जितने ज्यादा लोगों को वे जानते थे, उतनी ही ज्यादा उनकी लोकप्रियता भी थी.’ अशोक वाजपेयी ने नागार्जुन को बीसवीं शताब्दी का सबसे बड़ा यायावर बताया है. जीवन में, विचारों में, विधाओं में.
और एक क़िस्सा बरेली से. कवि वीरेन डंगवाल के यहां डेरा डाले बाबा कुछ दिनों शहर में घूम-घामे, लोगों से मिलते रहे, घर पर हुए तो ख़ास तरकीब वाली मछली बनाते-खिलाते. एक रोज़ अचानक एक अख़बारनवीस दोस्त को फ़ोन करके डंगवाल जी ने कहा था, ‘यार तुम्हारे यहां शाहजहांपुर दफ़्तर में कौन काम करता है?’ जवाब का इंतज़ार किए बग़ैर हड़बड़ाए से स्वर में उन्होंने कहा, ‘जो भी हों, उन्हें ज़रा रेलवे स्टेशन भेज दो. सियालदह से बाबा गए हैं. उन्हें ट्रेन से उतारकर सुधीर विद्यार्थी के यहां तक पहुंचा दें. याद से, अभी कह दो वरना भूल जाओगे. यह बहुत ज़रूरी है.’ ख़ैर, शाहजहांपुर में सुरेंद्र द्विवेदी ने स्टेशन पर बाबा को ले लिया. स्टेशन से बाहर आते ही बाबा बमक गए, ‘बताओ, रास्ते में अगर टीटी आ जाता और टिकट मांगता तो मैं क्या करता? उससे कहता कि मैं बाबा हूं. वो क्या जाने कौन बाबा? उतार देता कहीं रास्ते में.’ हुआ यह कि वीरेन डंगवाल ने बाबा का टिकट ख़रीदा और अपनी जेब में रखकर बतियाते हुए प्लेटफॉर्म तक चले गए. ट्रेन आई, जगह खोजकर बाबा को बैठाया और घर लौट आए. घर पहुंचकर जब उन्हें अपनी जेब में टिकट मिला तो ऐहतियातन ये सारा उद्यम करना पड़ा.
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