गर्म हवा | सेंसर से पास हुई तो शिव सेना, फिर डिस्ट्रीब्यूटर नहीं

  • 4:21 pm
  • 6 July 2020

हिन्दी सिनेमा में बहुत कम ऐसे निर्देशक हुए हैं, जिन्होंने सिर्फ़ एक फ़िल्म से ऐसी गहरी छाप छोड़ी कि उसकी दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती. मैसूर श्रीनिवास सथ्यू यानी एमएस सथ्यू ऐसा ही एक नाम हैं और 1973 में आई उनकी फ़िल्म ‘गर्म हवा’, ऐसी ही एक कभी न भूलने वाली फ़िल्म है. एमएस सथ्यू की इक़लौती यही फ़िल्म उनको भारतीय सिनेमा में बड़े फ़िल्मकारों की क़तार में खड़ा करती है.

यों ‘गर्म हवा’ को रिलीज़ हुए क़रीब आधी सदी गुज़र गई मगर अपने विषय और ट्रीटमेंट की वजह से यह अब भी उद्वेलित-आंदोलित करती है. मुल्क़ की आज़ादी के शुरुआती सालों में हिन्दुस्तानी मुसलमानों की मनःस्थिति इस फ़िल्म में बख़ूबी उभरी है. फ़िल्म न सिर्फ मुसलमानों के मन के अंदर झांकती है, बल्कि बंटवारे से हिन्दुस्तानी समाज के बुनियादी ढांचे में आए बदलावों की पड़ताल भी करती है. निर्देशक एमएस सथ्यू ने बड़ी ही हुनरमंदी और बारीक़ी से उस दौर के पूरे परिवेश को सिनेमा के पर्दे पर उतारा है. ‘गर्म हवा’ उनकी पहली हिन्दी फ़िल्म थी. इसके पहले उन्होंने निर्माता-निर्देशक चेतन आनंद के सहायक निर्देशक के तौर पर ‘हक़ीक़त’ में काम किया था. इस फ़िल्म के कला निर्देशक भी वही थे, जिसके लिए 1964 में उन्हें ‘फ़िल्मफ़ेयर’ अवार्ड मिला.

रंगमंच और सिनेमा में एनिमेशन आर्टिस्ट, असिस्टेंट डायरेक्टर, निर्देशन, मेकअप आर्टिस्ट, आर्ट डायरेक्टर, प्ले डिज़ाइनर, लाइट डिज़ाइनर, लिरिक्स एक्सपर्ट, इप्टा के प्रमुख संरक्षक, स्क्रिप्ट राइटर, निर्माता जैसी कई भूमिकाएं एक साथ निभाने वाले एमएस सथ्यू की मैसूर के हैं. उनके घर वाले चाहते थे कि वह वैज्ञानिक बनें, लेकिन अपने पिता की मर्ज़ी के खिलाफ़ उन्होंने बीए किया और फ़िल्म और थिएटर में काम करने की ठानी. तीन साल तक उन्होंने कथकली सीखा, कुछ जगहों पर प्रदर्शन भी किया. मशहूर नृत्य निर्देशक उदय शंकर की फ़िल्म ’कल्पना’ में काम किया, जो देश की पहली बैले फ़िल्म थी. मगर सथ्यू को इस सबसे संतोष नहीं मिला तो बंबई की राह पकड़ी. काम की तलाश में छह महीने तक इधर-उधर भटकते रहने के बाद उनकी मुलाक़ात ख्वाजा अहमद अब्बास और हबीब तनवीर से हुई. सथ्यू भी ‘इप्टा’ जुड़ गए. हिन्दी-उर्दू ज़बान पर उनका अधिकार नहीं था, लिहाज़ा उन्होंने पर्दे के पीछे काम करना तय किया. ‘इप्टा’ के उस सुनहरे दौर में उन्होंने ‘आख़िरी शमा’, ‘रोशोमन’, ‘बकरी’, ‘गिरिजा के सपने’, ‘मोटेराम का सत्याग्रह’ और ‘सफ़ेद कुंडली’ सरीखे नाटक तैयार किए. ‘इप्टा’ में काम करते हुए उन्हें न सिर्फ़ वैचारिक चेतना मिली, उनकी देशव्यापी पहचान भी बनी.

इसके अलावा उन्होंने हिंदुस्तानी थिएटर, हबीब तनवीर के ओखला रंगमंच, कन्नड़ भारती और दिल्ली के अन्य समूहों की प्रस्तुतियों के लिए सेट डिज़ाइनर और निर्देशक के तौर पर भी काम किया. हिन्दी, उर्दू और कन्नड़ में 15 से अधिक डॉक्युमेंट्री और आठ फ़ीचर फ़िल्मों के अलावा उन्होंने कई विज्ञापन फिल्में भी कीं. गरम हवा, चिथेगू चिंथे, कन्नेश्वरा रामा, बाढ़, सूखा, ग़ालिब, कोट्टा, इज्जोडू उनकी फ़िल्में हैं. लेकिन ‘गर्म हवा’ से उन्हें मिली पहचान अभूतपूर्व है.

यह फ़िल्म बनने का क़िस्सा भी अजब है, जो उन्हीं की ज़बानी ‘‘मैं ’कहां-कहां से गुज़र गया’ की स्क्रिप्ट लेकर फ़िल्म फाइनेंस कारपोरेशन से लोन लेने गया. मगर चेयरमैन बीके करंजिया ने कहा कि हीरो निगेटिव है. उसके बाद अफ़सानानिगार राजिंदर सिंह बेदी, इस्मत चुगताई आदि दोस्तों से बात हुई. नतीजा, ’गर्म हवा’ की स्क्रिप्ट बनी और करंजिया साहब ने उसे पसंद कर लिया.’’ इस तरह ‘गर्म हवा’ के बनने की शुरूआत हुई. ‘फ़िल्म फ़ाइनेंस कॉर्पोरेशन’ ने यह फ़िल्म को बनाने के लिए सथ्यू को केवल ढाई लाख रुपए दिए थे. दोस्तों से कुछ और रक़म का इंतज़ाम करके जैसे-तैसे उन्होंने फ़िल्म पूरी की. ज्यादातर शूटिंग रीयल लोकेशन यानी आगरा और फतेहपुर सीकरी में की गई. ज्यादातर कलाकार रंगमंच से जुड़े हुए थे, लिहाजा फ़िल्म में रीटेक तो कम हुए ही, पूरी फ़िल्म में कम से कम सोलह ऐसे सीन हैं, जिनमें एक भी कट नहीं है. और 42 दिनों में फ़िल्म बन कर तैयार हो गई थी.

फ़िल्म तो पूरी हो गई, तो सेंसर से लेकर रिलीज़ तक बड़े पापड़ बेलने पड़े. सेंसर बोर्ड ने यह कहकर मंज़ूरी देने से इंकार कर दिया कि इससे मुल्क में सांप्रदायिक तनाव बढ़ सकता है. तो एमएस सथ्यू ने प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी से संपर्क किया. उन्होंने राजीव गांधी और संजय गांधी को ‘क्राफ्ट’ पढ़ाया था. लिहाज़ा उनसे उनके पारिवारिक संबंध थे. एक इंटरव्यू में ख़ुद एमएस सथ्यू ने इस पूरे वाक़ये को इस तरह बयान किया है, ‘‘इंदिरा जी ने फ़िल्म देखने की इच्छा व्यक्त की. जिसे तमाम झंझटों के बावजूद उन्हें दिल्ली ले जाकर दिखाया. इंदिरा जी के अनुरोध पर सत्ता व विपक्ष के सांसदों को भी दिखाया और इस तरह सूचना-प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल के कहने पर सेंसर सर्टिफिकेट तो मिल गया, लेकिन बाल ठाकरे ने अड़ंगा खड़ा कर दिया. अतः प्रीमियर स्थल ‘रीगल थियेटर’ के सामने स्थित ‘पृथ्वी थियेटर’ में शिव सेना वालों को भी फ़िल्म दिखाई गई, ताकि वे सहमत हो सके.’’

इतने के बाद भी अभी और आज़माइशें बाक़ी थीं. छोटे बजट की इस फ़िल्म में कोई बड़ा सितारा तो था नहीं, इसलिए कोई फ़िल्म डिस्ट्रीब्यूटर तैयार नहीं हुआ. सथ्यू ने बैंगलोर के एक फ़िल्म वितरक से संपर्क किया. जिसने 1974 में इसे बैंगलोर में रिलीज़ किया. फ़िल्म की तारीफ़ हुई तो दूसरे फ़िल्म वितरक भी इसे रिलीज़ करने को तैयार हो गए.

‘गर्म हवा’ ने बॉक्स ऑफ़िस पर तो कोई कमाल नहीं दिखाया, लेकिन समीक्षकों को यह फ़िल्म बहुत पसंद आई. 1974 में ‘कांस फ़िल्म फेस्टिवल’ में गोल्डन पॉम के लिए इस फ़िल्म का नॉमिनेशन हुआ. भारत की ओर से यह फ़िल्म ‘ऑस्कर’ के लिए भी नामित हुई. सर्वोत्तम फ़ीचर फ़िल्म का ‘नरगिस दत्त राष्ट्रीय पुरस्कार’ मिला. तीन ‘फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड’ भी मिले, जिसमें बेस्ट डायलॉग के लिए कैफी आज़मी, बेस्ट स्क्रीन प्ले अवार्ड शमा ज़ैदी और कैफी आज़मी तथा बेस्ट स्टोरी अवार्ड इस्मत चुगताई को मिला. इसी फ़िल्म के बाद 1975 में उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया. ‘गर्म हवा’ के बाद ‘सूखा’ उनकी ऐसी फ़िल्म है, जो थोड़ी-बहुत चर्चा में रही और जिसे श्रेष्ठ फ़ीचर फ़िल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार और बेस्ट फ़िल्म का ‘फ़िल्मफ़ेयर क्रिटिक्स अवार्ड’ मिला.

‘गर्म हवा’ में ऐसा क्या है, जो इसे सर्वकालिक महान फिल्म बनाता है? ख़ुद एमएस सथ्यू की नज़र में ‘‘फ़िल्म की सादगी और पटकथा ही उसकी ख़ासियत है.’’ जिन लोगों ने यह फ़िल्म देखी है, वे जानते हैं कि उनकी यह बात सौ फीसद सही भी है. फ़िल्म जब रिलीज हुई, तब भी और अब भी इसकी प्रासंगिकता बनी हुई है. फ़िल्म का शीर्षक ‘गर्म हवा’ एक रुपक है, साम्प्रदायिकता का रुपक! यह साम्प्रदायिकता की गर्म हवा आज भी हमारे मुल्क पर फन फैलाए बैठी है. यह गर्म हवा जहां-जहां चलती है, वहां-वहां हरे-भरे पेड़ों को झुलसा कर रख देती है. फ़िल्म के एक सीन में सलीम मिर्ज़ा और तांगेवाले के बीच का संवाद है,‘‘कैसे हरे-भरे दरख़्त कट जा रहे हैं, इस गर्म हवा में.’’
‘‘जो उखड़ा नहीं, वह सूख जाएगा.’’ एक तरफ ये गर्म हवा फ़िज़ा को ज़हरीला बनाए हुए है, तो दूसरी ओर सलीम मिर्ज़ा जैसे लोग भी हैं, जो भले ही खड़े-खड़े सूख जाएं, मगर उखड़ने को तैयार नहीं. कट जाएंगे, मगर झुकने को तैयार नहीं.

इस फ़िल्म की टीम के ज्यादातर लोग तरक़्क़ीपसंद और वामपंथी आंदोलन से निकले थे. फ़िल्म इस्मत चुगताई की कहानी पर है, जिसे और विस्तार शायर कैफी आजमी ने दिया. सथ्यू की पत्नी शमा ज़ैदी ने कैफी के साथ मिलकर पटकथा लिखी. संवाद भी कैफी ने ही लिखे हैं, जो इतने अर्थपूर्ण और चुटीले हैं कि कई जगह अभिनय पर भारी लगते हैं. मसलन, ‘‘अपने यहां एक चीज़ मजहब से भी बड़ी है, और वह है रिश्वत.’’ ‘‘नई-नई आज़ादी मिली है, सब इसका अपने ढंग से मतलब निकाल रहे हैं.’’

सथ्यू ने कैफी आज़मी की नज़्म का बहुत बढ़िया इस्तेमाल किया है. नज़्म का पहला हिस्सा फ़िल्म की शुरूआत में टाइटिल्स के साथ पार्श्व में गूंजता है,‘‘तक्सीम हुआ मुल्क, तो दिल हुआ टुकड़े-टुकड़े/ हर सीने में तूफ़ां यहां भी था, वहां भी/ हर घर में चिता जलती थी, लहराते थे शोले/ हर घर में श्मशान वहां भी था, यहां भी/ गीता की न कोई सुनता, न कुरान की/ हैरान इंसान यहां भी था और वहां भी.’’ नज़्म का बाक़ी हिस्सा फ़िल्म के आख़िर में आता है, ‘‘जो दूर से करते हैं नज़ारा/ उनके लिए तूफ़ान वहां भी है, यहां भी/ धारे में जो मिल जाओगे, बन जाओगे धारा/ यह वक्त का एलान यहां भी है, वहां भी.’’

हिंदी सिनेमा इतिहास में ‘गर्म हवा’ ऐसी पहली फ़िल्म है, जो बंटवारे के बाद के भारतीय समाज की सूक्ष्मता से पड़ताल करती है. विभाजन से पैदा हुए सवाल और इन सबके बीच सांस लेता मुस्लिम समाज. विस्थापन का दर्द और कराहती मानवता. उस हंगामाख़ेज़ दौर का एक जीवंत दस्तावेज है, ‘गर्म हवा’. एमएस सथ्यू ने अपनी उम्र के 90 साल पूरे कर लिए हैं. वे आज भी रंगमंच की दुनिया में नौजवानों के – से जोश-ओ ख़रोश के साथ सक्रिय हैं. न तो उनके जज्बे में कोई कमी आई है और न ही प्रतिबद्धता में.


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