फ़िल्मी दुनिया में जाकर राधेश्याम बरेलवी हो गए कथावाचक
सन् 1931 में आई ब्रजलाल वर्मा के निर्देशन वाली फ़िल्म ‘शकुंतला’ के गीत पंडित राधेश्याम कथावाचक ने लिखे. यह उनके फ़िल्मी सफ़र का आग़ाज़ भी था. फ़िल्मी दुनिया में जाकर कथावाचक की पहचान राधेश्याम बरेलवी हो गई. पर्दे पर गीत, कथा या संवाद लेखक के तौर पर उनका यह हरिशंकर शर्मा की आने वाली किताब ‘पं.राधेश्याम कथावाचकः फ़िल्मी सफ़र’ उनके बम्बई के दिनों के संस्मरण और अनुभवों का ब्योरा है. इसी किताब के एक आलेख का अंश. -सं
लेखक विजय वर्मा ने अपनी पुस्तक के प्रथम खण्ड ‘हिन्दी फ़िल्म संगीत:परिवेश और प्रवृत्तियां’ में हिन्दी फ़िल्म की शुरुआत 14 मार्च, 1931 ई. में पहली सवाक फ़िल्म ‘आलमआरा’ से मानी है. आर्देशीर ईरानी की इस फ़िल्म में सात गीत थे. अपनी आत्मकथा ‘मेरा नाटककाल’ में राधेश्याम कथावाचक बताते हैं कि जब कलकत्ते में जे.जे. मदान ने ‘शीरी फ़रहाद’ बनाने के पश्चात ‘शकुन्तला’ शुरू की तब उन्होंने तय किया कि फ़िल्म में गाने ज्यादा से ज्यादा हों कि ‘शीरी फ़रहाद’ में गाने ही गाने तो थे. उसकी सफलता ने उनमें ‘शकुन्तला’ में भी गाने भरने की हठ पैदा कर दी. ‘शकुन्तला’ फ़िल्म तैयार हो गयी. ख़र्चा तो कोई ख़ास हुआ नहीं था. एक्टर और ड्रेस-सीनरी सब सामान थियेटर का. बस फ़िल्म या कुछ इधर-उधर का हुआ होगा और बिका एक या दो लाख के बीच की रक़म में डिस्टीब्यूटर के हाथ. पहली रात को बड़ा जोश था. कटु आलोचकों के लिए तो गानों की बहुतायत उसमें थी पर गाना प्रेमियों को रस आ ही गया. वस्तुत: कथावाचक को रंगमंच का लम्बा अनुभव था और उस समय रंगमंच की आमदनी फ़िल्म की अपेक्षा अधिक थी. अत: कथावाचक ने फ़िल्मों की ओर अपना क़दम बहुत फूंक-फूंक कर रखा. और जब उन्होंने बम्बई नगरी को अलविदा कहा तो उन्हें कोई अफ़सोस भी नहीं हुआ.
कथावाचक के समय तक फ़िल्म और रंगमंच में कोई ख़ास अन्तर नहीं था. इस दौर का हिन्दी सिनेमा बहुत कुछ पारसी थियेटर की संतान था और उसके संगीत की एक प्रमुख धारा पारसी थियेटरनुमा संगीत बनाना था. कथावाचक ने जिन सवाक फ़िल्मों में कहानी, संवाद और गीत लिखे वह पारसी थियेटर की ही देन था. आगाहश्र कश्मीरी, पंडित नारायण प्रसाद बेताब और पंडित राधेश्याम कथावाचक उस समय के थियेटर की अनुभवी हस्तियां थीं. कथावाचक ने ‘मेरा नाटककाल’, में स्थान-स्थान पर फ़िल्म और थियेटर से जुड़े लोगों की चर्चा बड़े मनोयोग से की है. एक और बड़ा नाम था मास्टर ब्रजलाल वर्मा का, जिन्होंने भारत को दूसरी सवाक फ़िल्म मदान थियेटर्स, कलकत्ता की शीरी फरहाद (1931) में संगीत दिया था. जब जे.जे. मदान ने होड़ा होड़ी में मोहन भावनी की ‘शकुन्तला’ (1931) से पहले ही राधेश्याम कथावाचक से लिखवाकर अपनी ‘शकुन्तला’ 1931 ई. में रिलीज़ करने के उद्देश्य से वह फ़िल्म शुरू की तो उसके संगीत निर्देशक भी ब्रजलाल थे.
ताबड़तोड़ काम के उस दौर की चर्चा में राधेश्याम ब्रजलाल का उल्लेख करते हैं- “यह तो अच्छा था कि ब्रजलाल नाम का एक मारवाड़ी हारमोनियम मास्टर मुझे मिल गया जो मेरे पास बैठकर जल्दी तर्जे बनवा लेता था, बोलों को भी समझ लेता था. फिर (जहांआरा) कज्जन (मास्टर) निसार के घरों पर जा-जाकर उनकी मिज़ाजदानी कर-करके उनकी तर्जें बैठाता था. कथावाचक ने ‘मेरा नाटककाल’ में गुजरात की नायक जाति का उल्लेख पारसी थियेटर में योगदान के संदर्भ में किया है – ‘अहमदाबाद के आसपास नायक जाति की बहुतायत है. कितने ही गांव इनसे भरे हुए हैं. गाने-नाचने, नाटकों में पार्ट करने ही की इनकी जीविका रही है.’ ध्यान रहे कि हिन्दी फ़िल्म संगीत के शुरुआती सर्जकों में प्राण सुख एम.नायक, लल्लू भाई नायक, नागरदास नायक, मोती लाल नायक आदि के नाम का उल्लेख मिलता है. जब नये ढंग के नाटकों का दौर आया, उसमें गाने कम से कम रखे गये. कथावाचक के अनुसार यह लहर भी पश्चिमी है. अन्यथा हमारे नाटकों में संगीत की प्रधानता रही है. कथावाचक के काल तक सिनेमा की स्थिति थियेटर से बेहतर नहीं थी.
‘पंडित राधेश्याम कथावाचक : रंगायन’ पुस्तक के आलेख ‘पंडित राधेश्याम कथावाचक और फ़िल्मी दुनिया’ में रणजीत पांचाले लिखते हैं – कलकत्ता के टॉलीगंज में फ़िल्म स्टूडियो बनकर तैयार हो चुका था. मास्टर निसार और कज्जन की लोकप्रिय जोड़ी जे.जे. मदान के पास थी. कथावाचक शकुन्तला फ़िल्म के गीत और संवाद द्वारा फ़िल्म जगत से जुड़ चुके थे. मास्टर निसार और राधेश्याम कथावाचक में पुराने सम्बंध थे. कथावाचक की उनसे पहली भेंट बरेली में सन् 1910 में तब हुई थी, जब ‘न्यू अल्फ्रेड’ कम्पनी रामायण नाटक खेलने आयी थी. निसार नाटक में सीता की भूमिका करते थे. यही मास्टर निसार सन् 1915 में न्यू अल्फ्रेड नाटक कम्पनी में आ गये थे. और 4 फरवरी 1916 को प्रथम बार दिल्ली के संगम थियेटर में पंडित राधेश्याम के नाटक ‘वीर अभिमन्यु’ के मंच पर हिन्दी के शुभारम्भ से जो एक नया इतिहास रचा गया, उस ऐतिहासिक घटना के भागीदार मास्टर निसार भी थे, जिन्होंने उस नाटक में ‘उत्तरा’ की भूमिका की थी.
‘मेरा नाटककाल’ में कथावाचक ने एक बार मार्ग में ही गीत लिखने का उल्लेख करते हुए लिखा है, ‘एक शाम को धर्मतल्ला के चौराहे पर ट्राम से मैं उतर पड़ा. वहां लॉन (घास का मैदान) भी था. सोचा था वहीं बैठकर एक गीत पूरा करूंगा. पर गीत के बोल तो ट्राम में ही बनने लगे थे. ट्राम से उतरते ही सड़क पर ही जेब से पेंसिल काग़ज़ निकालकर खड़े-खड़े उस गीत की एक लाइन लिखने लगा. उसी क्षण न लिखता तो यह दिमाग़ से ग़ायब हो सकती थी. गानों की लाइनें लिखना सिर पर ‘भूत’ सा सवार कर लेना है. जो एक-एक क्षण बेचैन ही रखता है – जब तक वह गाना पूरा न हो जाये. उसी समय टालीगंज से मोटर में कज्जन (फ़िल्मों की अभिनेत्री जहांआरा कज्जन) के साथ उसकी मां आई. मुझे वहां खड़ा देखकर हैरान हो गईं, मोटर रोक दी. कहा- घर जायेंगे? आइए मोटर पर, अभी पहुंच जाएंगे. मैंने कहा – नहीं. घर अभी नहीं जाऊंगा. आप जाइए. कज्जन ने मेरे हाथ में काग़ज़- पेंसिल देखकर कहा- यहां खड़े-खड़े क्या कर रहे हैं? मैंने कहा – तुम्हारे ही लिए गीत लिख रहा हूं. उसने फिर कहा – यहाँ? चौराहे पर? इतनी भीड़ में? मैं बोला – इसका जवाब समय का अभाव है और लगन है. इसके बाद उनकी मोटर चली गई.
कलकत्ता प्रवास के दौरान कथावाचक का कुन्दनलाल सहगल, नरगिस की मां ज़द्दन बाई, से स्टूडियो में मिलना-जुलना रहता था. बम्बई में गोल्डमोहर कम्पनी के मैनेजर ने पंडित राधेश्याम कथावाचक के एक ‘गीत निर्बल के प्राण पुकार रहे..’, शूट किया था. इन अवसर पर ज़द्दन बाई भी उपस्थित थीं. यह पिक्चर ही नहीं चली और गाना व्यर्थ गया. ‘शकुन्तला’ फ़िल्म हिट रही. इसमें कथावाचक का नाम ‘राधेश्याम बरेलवी’ दिया गया. इस फ़िल्म में ‘आए सखी री फागुन के दिन…, फूली है कैसी है, यह बगिया आज.., हाय गंवा दी अपनी दौलत नादानी में…’ बहुत लोकप्रिय हुए. कलकत्ता से प्रकाशित हिन्दू पंच में फ़िल्म की समीक्षा प्रकाशित हुई थी – ‘इस सप्ताह में मैडन थियेटर लि. द्वारा परिचालित कर्नवालिस थियेटर के रंगमंच पर भारत के यशस्वी कवि और कुशल नाटककार पंडित राधेश्याम कथावाचक द्वारा प्रस्तुत किया हुआ शकुन्तला नाटक का टॉकी फ़िल्म के रूप में प्रदर्शन हो रहा है. थियेटर हाल दर्शकों से खचाखच भरा रहता है. नाटक के क्षेत्र में राधेश्याम का अनुभव इतना विस्तृत है कि वे अपनी कृतियों में चुम्बक का आकर्षण तथा जादू का असर डाल देते हैं. उनकी वर्तमान कृति में भी हमें जौहर का परिचय मिलता है. उन्होंने प्लॉट के क्रम का बड़ी योग्यता से निर्वाह किया है. कथा में प्रेम का प्राधान्य होते हुए भी उन्होंने अश्लीलता को कहीं फटकने नहीं दिया है. फ़िल्म के गाने बहुत ही मनोहर तथा मधुर है. मनोहर की पराकाष्ठा का नमूना देखिए – ‘शकुन्तला के विरह में दुष्यन्त कहते हैं- ‘नीर बिन मैं जैसे गंध बिन फूल जैसे, कंठ बिन गान जैसे, दान बिन धनी जैसे, शील बिन नारी जैसे.. जल बिन मीन जैसे, मणि बिन सर्प जैसे, तैसे आज दीन हीन व्याकुल दुष्यन्त है.’ यह फ़िल्म निश्चय ही मैडन थियेटर लि. की सभी फ़िल्मों से सुन्दर तथा आकर्षक हैं.
हिन्दू पंच में विश्वम्भर नाथ शर्मा कौशिक की शकुन्तला फ़िल्म की यह समीक्षा 16-1-1926 ई. में प्रकाशित हुई थी.
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