किताब | खोये हुए लोगों का शहर

जैसे अयोध्या में बसती है दूसरी अयोध्या/ सरजू में बहती है दूसरी सरजू/ वैसे ही पागलदास में था दूसरा पागलदास/ और दोनों रहते थे अलग-अलग और उदास (बोधिसत्व की कविता ‘पागलदास’ का अंश) एक और इलाहाबाद रहता है इलाहाबाद के भीतर. प्रयागराज के भीतर तो रहता ही है इलाहाबाद. यह इलाहाबाद मिलता और दिखता है लोगों की स्मृतियों में, उनके अतीत में, बनने-बिगड़ने की कहानियों में, रिश्तों में, किताबों के पन्नों पर.

क़िस्से-कहानियों के कितने ही भीगे हुए पन्नें बहुतेरे मन में उलट-पलट रहे हैं, फड़फड़ा रहे हैं. धीरे-धीरे यह भी विस्तृत हो जाएगा…शायद. क्या इलाहाबाद को कोई याद करता है? या जब चौड़ी सड़कों पर मोटरों की भीड़ होगी, नए बौने वृक्षों की ज़रा-सी और कच्ची छांव होगी, रौशनी की चमक में शहर नहाया होगा… तब क्या कोई, कहीं इलाहाबाद को याद करेगा?

अशोक भौमिक को याद है इलाहाबाद, ख़ूब याद है. “इलाहाबाद से जुड़ी मेरी स्मृतियाँ बहुत शोर करती हैं. नारों, बहसों, विरोध आदि के तमाम कोलाहलों से भरी हुई हैं मेरी स्मृतियां. लेकिन जब भी इस शहर को ख़ामोश स्मृतियों का स्मरण करता हूँ तो पत्थर गिरजा और कम्पनी बाग की लाइब्रेरी ज़रूर याद आते हैं. जब भी इन दोनों इमारतों को याद करता हूँ, मुझे ऐसी अनेक जनशून्य दुपहरियों की याद भी आती है जहाँ अमलतास के पेड़ों पर कूकती कोयल की कूक सुनाई देती है और इस वीरानी में ये इमारतें अपनी-अपनी कहानियों को अपने सीने में दफ़न किये, सर झुकाए ख़ामोश खड़ी मिलती हैं.”

मशहूर चित्रकार, संस्कृतिकर्मी, मूर्तिकार, लेखक अशोक भौमिक की नई किताब है, ‘खोये हुए लोगों का शहर’. यह शहर इलाहाबाद की यादें हैं. इसमें उनकी व्यक्तिगत, सामाजिक, सांस्कृतिक स्मृतियां हैं. इसे आप संस्मरण या निजी जीवनानुभव कह लीजिए. लेकिन किसी देश-काल की संस्कृति, ‘बीइंग’ या ‘एंटिटी’ के विशिष्ट अर्थ और सामूहिक पहचान को जानने के लिए सांस्कृतिक, सामाजिक और व्यक्तिगत स्मृतियां महत्वपूर्ण आधार कैसे बनती हैं, इस किताब को इसी रूप में देख-पढ़ सकते हैं.

इस शहर को लेकर उनमें तार्किक भावुकता है, भावुकता का आवेग नहीं बल्कि कई बार वह निष्ठुर दृढ़ता के साथ भी इलाहाबाद को याद करते हैं, “इलाहाबाद छोड़ने के बाद अनेक अवसरों पर लोगों को इलाहाबाद की शिक्षा, संस्कृति, भाषा आदि की तारीफ़ करते पाया. इलाहाबाद की इस ख़ासियत के लिए विश्वविद्यालय और हाईकोर्ट के साथ-साथ अन्य तमाम प्रतिष्ठानों के योगदान को रेखांकित किया गया. ऐसा नहीं कि इलाहाबाद के बारे में तारीफ़ के ये शब्द मुझे अच्छे नहीं लगे, लेकिन हर बार एक मासूम ख़ानाबदोश प्रेमी जोड़े के ख़ून से सने चेहरे के साथ ही इंसानी शक्ल में जानवरों की वह भीड़ भी मुझे याद आती जो इलाहाबाद के ही थे.”

अक्टूबर 1990 में टोक्यो में गाब्रिएल गार्सिया मार्केस ने अकीरा कुरोसावा से बातचीत की. उस बातचीत में कुरोसावा ने खानों के लिए मशहूर इलिदाची शहर का ज़िक्र किया. इलिदाची को शूट करने बतौर सहायक निर्देशक अकीरा कुरोसावा गए थे. निर्देशक को वहां का वातावरण ख़ूबसूरत और आश्चर्यजनक लगा था, इसलिए उसे फ़िल्माया गया. कुरोसावा ने उस बातचीत में कहा कि “छवियां केवल एक नीरस शहर को ही दिखाती थीं, क्योंकि वे उन कुछ चीज़ों को नहीं दिखा पातीं, जिनकी जानकारी हमें थी. जैसे कि शहर में काम करने की स्थिति बहुत ख़तरनाक है और खनिकों के परिवारों में अपनी सुरक्षा को लेकर एक निरन्तर भय व्याप्त था. जब कोई उस स्थान को देखता है तो उसके परिदृश्य के साथ उसकी भावनाओं को भ्रमित कर देता है और उसको यह अजनबी जैसा दिखता है, उतना, जितना वास्तव में यह है नहीं. लेकिन कैमरा इसे उसी आँखों से नहीं देखता है.”*

अशोक भौमिक की किताब ‘खोये हुए लोगों का शहर’ में इलाहाबाद के हाई कोर्ट, कंपनी बाग, विश्वविद्यालय, कॉफ़ी हाउस, सड़कों, गलियों, चौराहों, इमारतों, उनकी भव्यता, दरख़्तों, उनकी हरियाली या कुछ लोगों के चेहरे भर नहीं है. इनमें रिश्तों की गर्माहट, नर्मी है, लोगों की उपस्थिति का अर्थ, उस अर्थ की गहराई, कॉफ़ी हाउस की कॉफ़ी का कसैलापन, कड़वाहट, उसकी मिठास, रातों के काले रंग, उनके कई तरह के शेड्स, आकाश के नीले-ग्रे रंग, सुबहों का चटकपन, शामों की मादकता, भारीपन और उदासी, लोगों की तड़प, बेचैनी, गर्मजोशी, पतन, कुंठा, हताशा, निराशा, उम्मीद, प्रेम, संवेदना, स्वप्न, संघर्ष… बहुत कुछ है.

लगभग पौने दो सौ पृष्ठ की इस किताब में बीसवीं सदी का एक कालखंड आता है. बीसवीं शताब्दी का इलाहाबाद साहित्य, शिक्षा आदि की दृष्टि से बहुत इलेक्ट्रिफ़ाइंग रहा है. पूरी सदी पर भी वह नज़र डालते हैं. इसमें जाने-पहचाने, चर्चित चेहरे हैं लेकिन अनजान लोग भी नायक की तरह सिरजे गए हैं. ‘पत्थर गिरजा और एक विस्तृत सिंफ़नी’ अध्याय का हीरो जेम्स है. “…लेकिन मेरी स्मृति में जहाँ-जहाँ ख़ामोशी है, जहाँ भी रात ख़त्म होने से पहले बहने और मीठी यादों को वापस ले आने वाली हवा है, वहीं एक छोटे से चिराग़ की मानिन्द जेम्स की टिमटिमाती यादें भी हैं. जेम्स के लिए संगीत साधना के अलावा जीवन का सब कुछ अर्थहीन था. जैसा कि हम सभी को अनुमान था, एक दिन जेम्स यूँ ही निःशब्द इस दुनिया से दूर चला गया. कॉफ़ी हाउस में काम करने वाले जेम्स के रिश्तेदार ने ही मुझे उसके जाने की ख़बर दी थी.

इलाहाबाद को छोड़े अब कई दशक बीत चुके हैं. इतने वर्षों बाद जेम्स का कहा हुआ कोई समूचा वाक्य शायद ही किसी को याद रह सकता हो, लेकिन मुझे है! जेम्स को जब भी याद करता हूँ तो मुझे उसका कहा याद आ जाता है जिसे कभी उसके आराध्य संगीतकार अमाड्यूज़ मोत्सार्ट ने कहा था – Forgive me, Majesty. I am a vulgar man! But I assure you, my music is not. (महाराज मुझे क्षमा करें. मैं एक अभद्र इंसान हूँ लेकिन मैं आपको यक़ीन दिलाता हूँ कि मेरा संगीत ऐसा नहीं है)
…और मैं जेम्स की कही इस बात पर आज भी पूरा यक़ीन करता हूँ.”

प्रतिभाशाली कवि प्रभात रंजन को शहर ने बिसरा दिया होगा लेकिन ‘खोए हुए लोगों का शहर में’ उनसे फिर मुलाक़ात हो जाती है. वह 1990 में नहीं रहे थे. अशोक भौमिक उन्हें कविता के जंगल में एक निःसंग कवि के रूप में याद करते हैं. प्रभात की कुछ कविताओं के साथ वह लिखते हैं कि कविताओं ने ही प्रभात की मौत को झुठलाया. अंततः कविता ही कवि को ज़िंदा रखती है. इन कविताओं में प्रभात के दिल की धड़कनों को साफ़ सुना जा सकता है. तब उनकी ज़िंदगी के क़िस्से-कहानियों को सुन-सुनाकर किसी क्या मिलेगा?

आज मैं
श्वेत कमल की
एक कली तोड़कर लाया था सोचा
तुम्हारी राह में रख दूँ,
तुम स्नेह से उठा लोगी.
फिर सोचा
अगर कुचल दो तो
फिर मैंने तुम्हारी राह में कमल नहीं रखा.
मेरा
हृदय ही जानता है,
मैं तुम्हें कितना चाहता हूँ;
पर मैं
इस पवित्र कमल को
कुचला हुआ नहीं देख सकता.
मेरी
इस विवशता को
क्षमा करना.

इलाहाबाद अब अशोक भौमिक का अतीत है. यहां साहित्य, चित्रकला, रंगकर्म, समाज की दुनिया में वह सक्रिय और अर्थपूर्ण उपस्थिति के साथ मौजूद थे लेकिन आसपास की चीज़ों के प्रति सजग भी रहे. (अपने घर में होते हुए भी चैन की स्थिति में न होना एक नैतिक कर्तव्य है.- थियोडोर एडोर्नो). याद करने को एक नैतिक कर्तव्य मानकर अंधेरे और उजाले को दिखाते हैं. वह सांस्कृतिक, राजनीति, सामाजिक अवसरवादिता, पतन, क्षरण, अंतर्विरोध को भी दर्ज करते हैं.

थिएटर के कई आयोजनों, प्रशिक्षण कार्यक्रमों, प्रदर्शनों आदि के वह सूत्रधार रहे. शहर के रंगकर्म को उन्होंने देखा, बारीक और महीन ढंग से देखा. इस अधिकार से वह कह सकते हैं – “इलाहाबाद में समानांतर और दस्ता ने बादल सरकार और ग्रोतोवस्की का आंशिक अनुसरण किया था. दोनों संस्थाओं में अभिनय और निर्देशन के लिए ज़रूरी प्रशिक्षण का अभाव था और वे यह नहीं समझ सके कि उत्साह और प्रतिबद्धता के अलावा प्रशिक्षण भी रंगकर्म के लिए आवश्यक है. शायद जिस रंगमंच को व्यापक होकर ‘सर्वहारा का रंगमंच’ बनना था, वह शहरी रंगकर्मियों और बुद्धिजीवियों की स्वीकृति, सम्मान और पुरस्कार पाने को व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं के चलते आगे नहीं बढ़ पाया.”

‘सड़क का रंगमंच’ अध्याय में वह स्थानीय नाट्य परिदृश्य के बाबत प्रोसेनियम थिएटर (और नॉन प्रोसेनियम थिएटर), पुअर थिएटर, थर्ड थिएटर, रूरल और अर्बन थिएटर, पारंपरिक रंगमंच, नुक्कड़ नाटक आदि पर विस्तार से चर्चा करते हैं. वह नाटकीयता, उनके असर और सौंदर्य की भी बात करते हैं. आधुनिक रंगमंच से जुड़े बहुत से थिएटर प्रैक्टिशनर्स और थिएटर मेकर्स इससे असहमत या आंशिक सहमत हो सकते हैं. जर्ज़ी ग्रोटोवस्की के थिएटर, उसके मनोविज्ञान, समाजशास्त्र और सौंदर्य को लेकर नसीरुद्दीन शाह की किताब ‘एंड देन वन डे’ भी पढ़ना ठीक रहेगा, जिसे एक सिद्ध समकालीन अभिनेता और थिएटर मेकर ने लिखा है.

अशोक भौमिक कला के ज़रिए सांस्कृतिक अस्मिता की बात करते हैं और इन सबको अपनी स्मृतियों में जगह देकर इलाहाबाद को एक अलग स्पेस की तरह देखते हैं. “मेरे जीवन में इलाहाबाद का महत्त्व केवल इस बात के लिए नहीं है कि इस शहर ने मुझे कहानी लिखने-चित्र बनाने और एक बेहतर दुनिया गढ़ने के सपने दिये; बल्कि इसलिए भी है कि इस शहर ने भाषा, धर्म, जाति, प्रदेश आदि के संकीर्ण दायरों से बाहर रहने की तमीज़ भी दी.”

अशोक भौमिक ने इलाहाबाद छोड़ दिया या उनसे छूट गया… पता नहीं लेकिन इलाहाबाद कहां छूटता है? जब तब वह इस शहर के बारे में सोचते होंगे, पूरा-पूरा शहर न सही, कुछ अनुभव और अनुभूतियां उनके साथ हो लेते होंगे. “इलाहाबाद को छोड़े लम्बा अरसा बीत चला है. खोये हुए लोगों के इस शहर का अब सब कुछ नया सा, अपरिचित सा लगता है. लगता है, कभी हम इन गलियों-सड़कों-राजपथों से गुज़रे ही नहीं थे. सिविल लाइंस का इण्डियन कॉफ़ी हाउस, अब एक बड़ी सी बहुमंज़िली इमारत के पीछे ओझल-सा हो गया है. शहर की दुकानों पर लगे साइन बोर्डों पर से, मकानों के पतों से इलाहाबाद का नाम किसी ने मानो तेज़ाब से मिटा दिया है, चाकू से खुरच दिया है. जानता हूँ कि एक दिन लोगों की ज़बान से भी इसे ग़ायब होना है लेकिन बात तो कमबख़्त हमारी यादों की है, जहाँ तमाम खोये हुए लोगों की स्मृतियाँ, वक़्त के इस लम्बे सफ़र में साथ-साथ चलती चली आयी हैं. इनमें कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिनका इलाहाबाद से लम्बा रिश्ता रहा लेकिन मैं उनसे कभी मिला नहीं… चूँकि वे इलाहाबाद के थे और यह शहर उनका था, इसलिए उनके क़िस्से इस शहर के पुराने लोगों की ज़बान पर किसी मिठास की मानिन्द चिपके थे और ये क़िस्से ख़ुशबू की तरह उड़ते हुए मुझ तक भी पहुँचे थे.”

किताब की सुचिंतित भूमिका लेखक व संपादक गंगा शरण सिंह ने लिखी है.

यह किताब पढ़ कर ख़त्म करते-करते जोश मलिहाबादी की एक नज़्म साथ-साथ चलने लगती है, जिसे उन्होंने पाकिस्तान जाने के बाद या जाते हुए लिखा होगा – “ऐ मलिहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा….” चाहें तो यहाँ इस लिंक से जाकर सुन सकते हैं.

(खोये हुए लोगों का शहर/ सेतु प्रकाशन/ पेपरबैक/ 225 रुपए)

*गाब्रिएल गार्सिया मार्केस की अकीरा कुरोसावा से बातचीत, अनुवाद: वर्तुल सिंह, रचना समय, संपादक: हरि भटनागर, बृजनारायण शर्मा
फ़ोटो | पत्थर गिरजा/ ओजस त्रिपाठी, विकीमीडिया कॉमन्स

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