किताब | पुरखों की रहगुज़र पर छूटे हुए क़दमों के निशान
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‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक की रहगुज़र’ ज़ाहिद ख़ान के लेखों का ताज़ा मज्मूआ है, जिसमें जोश, फ़िराक़, मजाज़, मजरूह और वामिक़ जौनपुरी की शख़्सियत का ख़ाका शामिल है तो मुज़्तबा हुसैन, यशपाल, बलराज साहनी, प्रेम धवन, शौकत कैफ़ी और अण्णा भाऊ साठे के काम और उनकी ज़िंदगी की तफ़्सील भी है.
जिन लोगों ने ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र’ पढ़ी है, वे ज़ाहिद के लेखन और उनकी प्रतिबद्धता से ज़रूर वाक़िफ़ होंगे. इसे किताब के समर्पण से भी समझ सकते हैं – साल 2020 तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र, इप्टा के आधार स्तंभ रहे अण्णा भाऊ साठे और राजेंद्र रघुवंशी का जन्मशती साल था, तो वहीं साल 2021 प्रगतिशील लेखक संघ के एक और अहम् साथी शायर-नग़्मा निगार साहिर लुधियानवी का. मेरी यह किताब इन तीनों ही साथियों की याद और साहित्य-सिनेमा-रंगमंच में इनके अमूल्य योगदान को समर्पित.
ऐसे वक़्त में जब इंटरनेट की दुनिया में नक़ल की होड़ लगी हो, सोशल मीडिया ने झूठ-सच का फ़र्क समझ पाने की लियाक़त ख़त्म डाली हो, प्रामाणिकता और तथ्यों की ख़ातिर किताबों की ज़रूरत जान पड़ती है. ऐसे दौर में जब तरक़्क़ीपसंद ख़्याल और उन पर अमल की ज़रूरत हमेशा से ज़्यादा लगती हो और जब लिखने-पढ़ने और सोचने के पैमाने ज़माने की सहूलियत से तय होते हों, ऐसी किताबों की उपयोगिता और महत्व क़ाबिल-ए-ग़ौर लगता है.
‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक की रहगुज़र’ में शामिल लेखों की सूची में दर्ज शख़्सियत किसी ख़ास तरतीब या विधा की नहीं, ज़ाहिद जिनसे मुतासिर रहे हैं उन पर ही लिखा है. ये वो लोग हैं, जिन्होंने साहित्य-सिनेमा-संगीत-थिएटर और दीगर विधाओं में काम करते हुए इंसान की बेहतरी को हमेशा आगे रखा, मज़लूमों-मजदूरों के साथ खड़े रहे, अपने काम से उन्हें हौसला-ताक़त दी. उनका यह अक़ीदा कि इस दुनिया को ख़ूबसूरत बनाने के लिए ग़ैर-बराबरी का ख़ात्मा बेहद ज़रूरी है, आज भी क़ाबिल-ए-यक़ीन बना हुआ है क्योंकि ख़त्म होने की कौन कहे, ग़ैर-बराबरी की सूरत और ख़ौफ़नाक हुई जाती है.
किताब सिर्फ़ गुज़रे दौर के लोगों और उनके नज़रिये के बारे में नहीं बताती, उसमें हमारे दौर के लोग भी शरीक हैं. हिंदी के तमाम पढ़ने वालों को यह किताब हिंदी-पट्टी के बाहर के ऐसे नामवर लोगों से भी वाकिफ़ कराती है, जिनका ज़िक्र मंज़रे-ए-आम पर नहीं. लोकशाहीर अण्णा भाऊ साठे और अमर शेख़ और सैयद मुत्तलबी फ़रीदाबादी इन्हीं लोगों में से हैं. ग़ुलाम रब्बानी ताबां, जोय अंसारी और एहसान दानिश के बारे में पढ़ना नाम से ख़ूब पहचाने जाने वालों की दुनिया के बारे में तफ़्सील से जानना भी है.
इन लेखों की ख़ूबसूरती यह भी है कि ये बहुत से लोकप्रिय लोगों की शख़्सियत के तमाम दूसरे पहलू से भी परिचित कराती हैं. इस लिहाज से हसरत मोहानी, प्रेम धवन, अहमद नसीम क़ासमी और बलराज साहनी के नाम लिए जा सकते हैं. अभिनेता बलराज साहनी के लेखक रूप से भला कितने लोग परिचित होंगे, इसी तरह प्रेम धवन के गीतों में एकसूत्र की तलाश या हसरत मोहानी की तरह के उसूलपसंद और जुझारू इंसान.
यह कोई इतिहास की किताब नहीं, मगर इसमें दर्ज लोगों के कारनामे एक जगह रखने पर टुकड़ा-टुकड़ा इतिहास भी समझ आता है, पुरखों की रहगुज़र पर छूटे उनके क़दमों के निशान, उनका नज़रिया और बदलाव की उनकी ज़िद और, मुख़्तसर ही सही, आगत के सपनों का पता भी देती है.
लेखक ने कहा है कि यह कोई मुकम्मल किताब नहीं, बहुत से लोगों पर इस नज़रिये से काम किया जाना अभी बाक़ी है. यह बात मुनासिब भी है कि किसी काम को समग्रता में करने के लिए कई बार एक आदमी की सामर्थ्य काफ़ी नहीं, समान-सोच वाले लोगों के सामूहिक प्रयास की ज़रूरत पड़ती है. और ऐसी कोशिश के लिए पड़ताल के लिए दिलचस्पी की दरकार भी होगी. ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक की रहगुज़र’ एक बार पढ़ने के लिहाज से तो ज़रूरी है ही, संदर्भ के लिए इसे सहेजना भी उपयोगी होगा.
किताब लोकमित्र, दिल्ली ने छापी है.
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