तमाशा मेरे आगे | रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मेरे आगे

तंज़ की दुनिया के बादशाह पतरस बुख़ारी साहेब अपनी कहानी “मरहूम की याद में” में एक जगह लिखते है –
एक दिन मिर्ज़ा साहब और मैं बरामदे में साथ-साथ कुर्सियाँ डाले चुप-चाप बैठे थे. जब दोस्ती बहुत पुरानी हो जाए तो गुफ़्तुगू की चंदाँ ज़रूरत बाक़ी नहीं रहती और दोस्त एक दूसरे की ख़ामोशी से लुत्फ़-अंदोज़ हो सकते हैं. यही हालत हमारी थी. हम दोनों अपने-अपने ख़्यालात में ग़र्क़ थे.

बिलकुल यही हालत हमारी भी थी. हम दोनों, पुराने दोस्त, यानी माँ और मैं एक-दूसरे की ख़ामोशी का लुत्फ़ लेते सुबह की पहली चाय का इंतज़ार कर रहे थे. अपने-अपने अख़बार अपने-अपने सामने. गो उनके सामने ‘द हिन्दू’ अख़बार था पर उनकी नज़रें रसोई की सर्विस विंडो से परे चूल्हे पर चढ़े चाय के भगोने पे थीं जिसे माँ एकटक देख रही थीं. उनके कांपते बाएं हाथ में पढ़ने का चश्मा कुछ ऐसे हिल रहा था जैसे हम रेल में सफ़र में हों. मेरे सामने रखे ‘इंडियन एक्सप्रेस’ से नज़र उठा कर मैंने उन्हें देखा तो महसूस किया कि इस वक़्त उन्हें मुझ में कोई दिलचस्पी नहीं है.

माँ को बस चाय का इंतज़ार था. चश्मा उन्होंने मेज़ पर छोड़ दिया था और वो अब ग़ौर से अपनी कमीज पर छपे बेल-बूटों के डिज़ाइन को देख रही थीं. फिर अचानक अपने दाहिने हाथ से कमीज़ पे छपे नीले फूल को तोड़ते हुए वो हंसने लगीं. पहले शरमा कर, फिर खुल कर. बुज़ुर्गों के सूखे गले की हंसी में बचकाना खरखराहट होती है जो हंसी के संगीत को एक नया सुर देती है. बहुत मुद्दत के बाद माँ हँसी थीं, और दिल से, ज़ोर से.

क्या आपने कभी किसी को अपने कपड़ों पे छपे फ़ूल तोड़ते देखा है? मैंने देखा है और अपनी साँस में महसूस की है उस मासूम हथेली पे उतरी नीले गुलबहार के फूलों की महक. वल्लाह क्या ख़ुश्बू थी.

खिड़की के दूसरी तरफ से रजनी एक नज़र चाय के पतीले पर और एक नज़र हम पर रखे मुस्कुरा रही थी. माँ की हंसी कुछ ऐसी थी जैसे चाय में उबाल से बुलबुले फूट रहे हों. चाय की ट्रे आ गई थी माँ किसी गहरी सोच में थीं और मैं उनकी कमीज़ से एक नीला फूल तोड़ने की फ़िराक़ में था.

गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मेरे आगे
– मिर्ज़ा ग़ालिब

मिर्ज़ा ग़ालिब ने ये शेर किस मौक़े पे कहा होगा, किन हालत में कहा होगा और किस को मुख़ातिब करके के कहा होगा ये तो मुझे मालूम नहीं पर हाँ ये ज़रूर कह सकता हूँ कि इस वक़्त माँ के चेहरे पे जो तवील इंतज़ार पसरा था वो इस शेर से कहीं ज़्यादा मायूसी इज़हार कर रहा था. अगर हम दोनों में से कोई शायर होता तो पाँच सात ग़ज़लों का मज़मून तो उसे वहां मिल ही गया होता, ख़ैर.

माँ की मायूसी आब-ए-तल्ख़ की न हो कर उबली हुई काली चाय की थी. चाय की लत, अगर ये ऐब कभी आपने पाला हो तो, शराब की लत या आदत से कम बुरी नहीं है. यक़ीन मानिये दोनों नशेड़ी अपने नशे को न हासिल कर पाने पर उसे सिर्फ सामने देख के ही सब्र कर लेते हैं, ख़ुश हो लेते हैं. बस सामने पड़े रहने दो – रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मेरे आगे ..

कुछ-कुछ चचा ग़ालिब जैसा हाल आज सुबह माँ का था. काँपते हाथों को आगे बढ़ाते माँ सामने पड़े चाय के कप को निहार रही थी, उस चाय के स्वाद के ख़याल भर से ही उनके ओंठ लरज़ रहे थे. मुँह के अंदर कहीं लार भी बन चुकी होगी. बस अब इंतज़ार था उस आब-ए-हयात के हलक़ से नीचे उतरने का. चाय का कप उनसे उठा नहीं सो मैंने थोड़ी चाय कटोरी में पलट दी.
चाय और माँ का पुराना साथ है. उनके बचपन का, तक़सीम से पहले का, आज़ादी से बहुत पहले का, उनके ननिहाल झंग से, लाहौर से जहाँ उनके बाऊजी थानेदार थे. अब अंग्रेज़ों की कोतवाली के थानेदार का ओहदा ख़ासा दबदबे वाला होता ही होगा तो वो सब कुछ घर पर आ जाता था जो आम घरों में उन दिनों नहीं होता था. जैसे चाय, जो हिंदुस्तान में तब हाल में ही बिकनी शुरू हुई थी. ब्रुक बॉन्ड की ‘कोरा’ और ‘रेड लेबल’ ब्रांड और लिपटन की लिपटन ग्रीन ब्रांड. माँ ने बताया – “ये दोनों कंपनी वाले अपने-अपने तांगे ले कर गली-मोहल्लों में चाय की मशहूरी करते और चाय के छोटे पैकेट मुफ़्त बांटा करते थे. उन दिनों चाय के पैकेट में बड़ी छोटी पत्तियां होती थीं आज की तरह के गोल गोल चूरे से नहीं. चाय बेचने अँगरेज़ आते थे. आधा किलो पत्ती के साथ एक टीकोज़ी या एक चीनी मिट्टी की केतली मुफ़्त. बस तभी से आदत ही हो गई है.”

चाय की बात हो रही हो तो माँ के पास कई क़िस्सों का ख़ज़ाना होता है. “ऐसा सुनने में आया था कि उन दिनों आशिक़ मिजाज़ गबरू चलते बाज़ार छेडख़ानी करने के मूड से लड़कियों को ये पूछा करते थे, ‘लिपटन दी चा है?’” यहाँ लिपटन से मतलब लड़की से लिपटने का था और चा के दो मानी थे, एक चाहत और दूसरा चाय.

आज सुबह की चाय का हमारा ये पहला दौर था सो हम चुस्कियां ले कर पी रहे थे. सुबह की चाय के कितने दौर चलेंगे ये मौसम के मुताबिक़ चलता है. सर्दी हो तो चार, बारिश में तीन और बाक़ी दिन दो बार. दिन में चाय कितनी बार पी जाएगी इसकी कोई हद मुकर्रर नहीं है. ये सब मन की मौज है या फिर मिलने आने वाले दोस्तों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों, सर दर्द, टेंशन और यहाँ तक की कश्मीरी शॉल बेचने वाले के दहलीज पे रुकने वालों पर था. आजकल इस फ़ेहरिस्त में डॉक्टर का आना भी शामिल है. घर आने वाले मेहमान से कम-अज़-कम चाय न पूछी जाय तो इसे बदतमीज़ी माना जाता है.

कुछ दो साल पहले तक माँ चाय का स्वाद ले, उसका ज़ायका परख सूकून से चाय पीतीं थीं, चीनी के सफ़ेद मग या कप में. ख़रामा-ख़रामा एक कप चाय पीने में उन्हें करीब आठ दस मिनट लगते थे. उतनी देर में हम जल्दी से उठ कुछ और करने लगते थे पर आजकल माँ ख़ूब गरमा-गरम चाय पीती हैं, तेज़ी से, बेसब्री से. ट्रे में आई चाय को अपने कांपते हाथों से मग में से स्टील की कटोरी में उंडेल लेती हैं और वहां से सीधे अपने पोपले मुंह में, जल्दी से.

इस जल्दी में अक़्सर दो-चार बूँद से क़मीज़, एप्रन, ट्रे या फिर टेबल की मौज हो जाती है. अब चाय चुस्की ले ले कर आवाज़ कर के पी जाती है जैसे प्लेट से चाय पीने वाले बहुत से लोग चुस्की लेते हैं. कभी-कभी में भी उनकी नक़ल करता हूँ. माँ को इस उम्र में भी चाय पीने का ऐसा चस्का है कि वो किसी भी वक़्त चाय पी सकती हैं. सुबह, दोपहर, शाम, रात – यहाँ तक कि आप सोई और लेटी माँ को चाय पूछ लें तो फ़ट से खड़ी हो जाएँगी. “चाय को भी कोई मना करता है” उनका ख़ास जुमला है.

जब माँ की शादी हुई थी तब उन्हें खाना बनाना तो दूर आटा गूँथना भी नहीं आता था. अपनी माँ से ताने सुनने के बाद वो कह देती थीं “मुझे चाय बनाना आता है, हम उसी में गुज़ारा कर लेंगे.” हमारी माँ की एक बड़ी बहन है सरला जिनका कहना और मानना ये था कि जो लड़कियां ज़्यादा चाय पीती हैं या ज़्यादा चीकू खाती हैं उन्हें काले बच्चे पैदा होते हैं. अपनी पहली औलाद आने के पहले तक तो माँ इसे सुन कर डरती रहीं पर उसके बाद उन्होंने गोरे बच्चे पैदा कर अपनी बड़ी बहन को भी चुप करा दिया.

माँ के लिए चाय कभी भी पी जा सकती थी खाना खाने से पहले, खाना खाने के बाद, रात सोने से पहले, सुबह उठने के ठीक बाद, नींद न आये तो चाय, घबराहट हो तो चाय, नहाने के बाद चाय और सर धोया हो तो डबल चाय, बैठने लेटने, गाना गाने, घर से बाहर जाने, घर में वापिस आने – यानी कुछ भी करने के साथ चाय तो ज़रूरी ही है. उनकी दुनिया में किसी भी तरह की बीमारी या बुखार का एक सिर्फ़ एक इलाज होता था – गर्म चाय.

अमूमन माँ रेगुलर चाय ही पीती हैं फिर भी कभी-कभार किसी के कहने पर या फ़रमाइश आ जाने पर वो अदरक-इलाइची वाली चाय, मसाले वाली चाय, दालचीनी और काढ़े वाली ख़ुशबूदार चाय, बिना दूध की काली या हरी चाय भी पी लेती हैं. माँ कहती हैं, “ये सब ज़ायका आज़माइश के लिए ठीक है – उसके बाद तो अपनी असली वाली चाय बनती ही है न.” चाय बनाने में उनका ये मानना है कि “मेरी चाय अच्छी तरह पकनी चाहिए”, जब तक चूल्हे पर पड़े भगोने में आठ-दस उबाल न आ जाएँ उनकी चाय कच्ची रह जाती थी.कितने जज़्बात मिल कर बनती होगी न चाय?

घर से बाहर उनकी पसंदीदा चाय पीने के घाट थे लिबर्टी सिनेमा वाले केवल की दूकान, बहादुरगढ़ बस अड्डा, रोहतक वाले भाईय्या जी की चाय, पटना वाले गुमनाम रेस्तरां की चाय, राजस्थान जाने वाली रेल की छोटी लाइन पे आने वाले झुंझुनू और ऐलनाबाद स्टशनों की चाय, बीकानेर और हनुमान गढ़ शहर के किसी भी दुकानदार की गाढ़ी चाय और बहुत पहले अपनी माँ के हाथ से बनी ख़ालिस भैंस के दूध की तेज़ शक्कर वाली चाय. माँ से जब चाय की बात हो रही होती है तो बात सिर्फ़ चाय की होती है बाकि सब बातें चाय के बाद आती हैं चाहे वो बात रूस-यूक्रेन की जंग की ही क्यों न हो.

बचपन में मैंने अपनी नानी और बुआ के घर चाय अंगीठी पे बनती देखी थी. दोनों उसमे ढेर सारी अदरख, बड़ी इलाइची, तुलसी के कुछ पत्ते, एक लोंग और आग से भगौना उतारने के बाद उसमे अध-टूटी काली मिर्च डालती थीं. मेरी बुआ के पास चाय छननी (स्टेनर) नहीं थी, वो मलमल के सफ़ेद कपड़े पे चाय छानती थी, उबली हुई चाय की पत्तियों को वो वापस बर्तन में डाल देती थीं शायद दुबारा इस्तेमाल के लिए. उस सफ़ेद मलमल के कपड़े को चाय छानने के बाद धोया जाता था पर अजीब बात है तब की चाय कपड़े पे रंग नहीं छोड़ती थी. एक और बात ये दोनों औरतें काँसे के बड़े गिलास में चाय पीती थी जिसके चारों ओर एक कपड़ा लिपटा होता था, शायद गर्म गिलास को पकड़ने के लिए.

चाय का पहला कप ख़त्म कर माँ रजनी का चेहरा देखने लगती हैं. मेरा कप अभी आधा भरा है. मुझे मालूम है उन्हें एक और कप की दरकार है. इस बार मैं चाय बनाने चला आया और अख़बार रजनी के हिस्से आ गया. माँ अपने हाथ से सर को दबा रही हैं. “सर दर्द हो रहा है क्या?” रजनी उनसे पूछती है. “नहीं, पर कुछ भारी तो है. तुम स्ट्रांग चाय बनाया करो” माँ कहती हैं और पलट कर मुझे देखने लगती हैं. शिकायत और फ़रमाइश दोनों मेरे समझ आ गईं और मैंने 100 नंबर की कड़क चाय उन्हें पेश की.

हमारे बचपन में माँ को अक्सर सर दर्द रहता था, या यूँ कहें हर रोज़ सर दर्द रहता था. तब हम जानते नहीं थे कि इस दर्द की कई वजह हो सकती हैं जैसे उनका बढ़ा हुआ ब्लड प्रेशर,उनका बिगड़ा हाजमा, उनकी आँतों में बनने वाले एसिड का रिफल्क्स या उनके शरीर में खून के कमी. जाने क्यूँ मुझे ये हमेशा लगता था कि उनका सरदर्द ज़्यादा चाय पीने से होता है. इस दर्द से निजात पाने के लिए वो ढेर सारी चाय के साथ एस्प्रिन की दो गोली खा लेती थीं, कई बार दिन में दो बार. नतीजा ये हुआ की 70 की उम्र तक आते-आते माँ के पेट में अल्सर के घाव हो गए जो आज तक ठीक नहीं हुए. इस सब के बावजूद माँ ने चाय पीना नहीं छोड़ा. चाय की लत ऐसी थी कि न मिलने पर वो किसी से भी नाराज़ हो सकती थी.

चाय का दूसरा कप आने से पहले माँ आँखें मूँद और गर्दन को आगे की तरफ झुका व्हील चेयर पर बैठी ही झपकी ले रही थीं या सो रही थीं. उनके कप और कटोरी वाली ट्रे मैंने उनके सामने बहुत धीरे से रखी, बिना किसी आवाज़ के. गरमा-गरम चाय की महक ने उन्हें एक झटके में नींद से जगा दिया. अपने सामने रखे चाय के कप से भाप उठती देख उनके चेहरे पे मुस्कान बिखर गई. बिना मेरी या रजनी की तरफ देखे उन्होंने पूछा “घर आ गया क्या?”

खिड़की से परे बाहर आँगन में खड़ी गाड़ी की भी नींद ख़ुमारी अभी उतरी नहीं थी. ओस में सनी वो भी अभी सो रही थी पर माँ इन दो चाय के बीच, छोटे से वक़्फ़े में न जाने कहाँ घूम आयीं.

“हाँ माँ, घर आ गया, लो चाय भी तैयार है.”

घर?

कांपते हाथ फिर से कप की तरफ बढ़े, ओंठ फिर हिले, आँखों में सुबह की चमक आई और प्याला ख़त्म होते तक उनके चेहरे पे मुक़द्दसी नूर था. वाह री चाय.

(27 नवम्बर 2024)


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