तमाशा मेरे आगे | सफ़र की थकान

सामने के कमरे से टीवी की आवाज़ आनी बंद हो गई थी. रसोई में रात भर जलने वाली हलकी नीली बत्ती किसी ने जला दी थी. घर शांत था. किताब से आँखें उठा कर मैंने घड़ी देखी तो समय था 10.35. “कोई बहुत देर तो नहीं हुई अभी”, मैंने अपने आप से कहा और अपने आसपास देखने लगा. हमारे साहबज़ादे और मेरी पत्नी रजनी अपने-अपने कमरे में जाने से पहले पानी की बोतल, अपने अपने लैपटॉप, फ़ोन चार्जर वग़ैरह इकट्ठे कर और गुड नाईट बोलकर माँ से रात के लिए विदा ले रहे थे. अनुषा, माँ की सुबह-शाम की साथी और नर्स अपना बिस्तर लगा रही थी.

दरवाज़े की चौखट पे खड़ा मैं इस सब का मुआयना कर ही रहा था कि माँ ने कहा “आज तू मेरे साथ सो जा, मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा.” क़िताब और कलम को एक तरफ़ रख मैं उनके पास बिस्तर पर बैठ गया. आज सुबह से ही माँ का मन अच्छा नहीं है, कुछ उखड़ा सा कुछ रुंआसा-सा. वो किसी बात से नाख़ुश या नाराज़ थीं पर किसी को बता नहीं रही थीं. उनका हाथ अपने हाथ में ले कर मैंने उन्हें वहीँ उनके साथ सोने का विश्वास दिलाया. उन्हें चादर ओढ़ा कर मैं उनके साथ बिस्तर पे लेट गया. एक बार सोचा कि थोड़ी देर में उन्हें नींद आ जाएगी तो मैं ऊपर अपने कमरे में सोने चला जाऊंगा पर ऐसा हुआ नहीं.

माँ रात भर नहीं सोई. अपनी गर्दन मेरी तरफ़ मोड़ वो मुझे अँधेरे में भी एक टक देखती रही. एक बार जब आँखें अँधेरे की आदी हो जाएँ तो आप अँधेरे में भी सब कुछ देख सकते हैं. मैंने कई बार सोने का बहाना कर आँखें बंद कर लीं पर जितनी बार भी खोलीं देखा माँ मुझे देख रही है, मेरे मन की चोरी को वो शायद जान गई थी. गर्दन मेरी तरफ़ करने से जब वो थक जाती तो पलट कर अनुषा को देखती, फिर मुझे, फिर छत को, फिर अनुषा का. ये बहुत देर चलता रहा. वो ख़ामोश थी, मैं भी चुप. वो बिलकुल सीधी लेटी रहीं, मैं दायें-बायें करवटें बदलता रहा, सो नहीं पाया, नींद ही नहीं आई. अगर नींद न आ रही हो तो कमरे से बाहर पत्तियों का हिलना भी खटकता है, मुझे तो आसमान में तारों के सरकने की आवाज़ भी आने लगती है.
क़रीब एक घंटे के बाद माँ बोलीं ‘मुझे टॉयलेट जाना है’.

अधसोई अनुषा ने और मैंने उन्हें व्हीलचेयर पे बिठाया और हम उन्हें टॉयलेट तक ले गए. वो दोनों अंदर गईं तो मैं बाहर खड़ा रहा. उनके पलंग और टॉयलेट के दरवाज़े पर हमने एलईडी की वो बत्तियाँ लगा रखीं हैं जो किसी भी चीज़ की हरकत से जल जाती हैं. नीचे से आने वाली उनकी रौशनी से सब परछाइयां छत पर बनती हैं जो विशाल दैत्यों- सी दिखती हैं. जिस रात माँ को नींद नहीं आती उस रात वो बार-बार पानी पीने और टॉयलेट जाने को कहती हैं. ये कोई नई बात नहीं थी.

उनकी आँखों में नींद दूर-दूर तक नहीं थी और अब जब रात के 12 बज चुके थे, मेरी आँखें लाल और नींद से भारी थीं. ठीक 15 मिनट बाद माँ फिर टॉयलेट जाने को कहा, उन्हें फिर ले जाया गया. बाहर आ कर उन्होंने मुझे ऐसे देखा जैसे उसके पहले मैं वहां था ही नहीं. उस मद्धम-सी रौशनी में उनका गोरा रंग और चमक उठा. उनके हाथ और चेहरे की झुर्रियां के बीच की गहरी काली खाइयाँ मुझे पहाड़ों पे ले गईं. “तू कब आया, रात हो गई है तू सोया नहीं? अच्छा, पढ़ रहा होगा. मुझसे तो अब बैठा ही नहीं जाता. खाना खा लिया?” ये सब कह कर वो कुछ सोचने लगीं. उन्हें बिस्तर पर लिटा कर हम दोनों ने फिर से सोने का बहाना किया.

बिस्तरों की भी अपनी उनींदी वाली (अनिद्रा की) कहानियाँ होती हैं जिन्हें वे रात में तकिए के नीचे से फुसफुसाते हैं . वो कहानियाँ दिलचस्प होने के साथ-साथ ज़ालिम होती है जो आपकी नींद भी उड़ा देती हैं. इन कहानियों को सुनते-सुनते बेचारा पलंग जब उकता जाता है तो उसका लकड़ी का तख़्ता चरमराने लगता है. उस पर बिछे गद्दे को भी बार-बार करवट पलटने वाले पे गुस्सा आता है. थोड़ी देर सो पाने के लिए मैंने अपने सिर और चेहरे पर तकिया दबा लिया, लेकिन नहीं, इससे भी कोई फ़ायदा नहीं हुआ. उस तकिये से नारियल के तेल की महक आ रही थी जो माँ लगाती हैं . मैंने उसे घुमाया पर दूसरी तरफ़ से महक और तेज़ थी. मैंने अपने आप से दोहराया कि मुझे तब तक सोना नहीं है जब तक माँ को नींद नहीं आती. कमरे के अंदर कम्बख़्त आसमान भी नहीं दिखता वरना अपनी तरफ़ के तारे ही गिन लेता.

अचानक माँ ने कहा,”ऑपरेशन के बाद कभी-कभी जब तुम्हारे डैडी सो नहीं पाते थे तो वे मुझसे एक कप चाय बनाने को कहते थे, जिसे पीने के बाद उन्हें अच्छी नींद जाती थी. तेरे लिए चाय बना दूँ ?” मैं हैरान था, माँ ख़ुद तो सो नहीं पा रहीं पर उन्हें मेरी फ़िक्र सता रही है. वो ये भी भूल जाती हैं कि वो खड़ी भी नहीं हो पाती. पिताजी को गुज़रे करीब 15 साल हो गए पर माँ की हर याद उन से किसी न किसी तरह जुड़ी है. मैंने कहा थोड़ी देर आँखें बंद कर सो जाओ.” पर न, वो बैठ कर बातें करना चाहती थी. उन्होंने पूछा, टाइम क्या हुआ है? मैंने कहा डेढ़ बजा है. अचानक वो ज़ोर से बोलीं, “इतने बजे तो हम लिबर्टी सिनेमा से नाइट शो देख के वापस आते थे. पिक्चर के बाद केवल की दुकान से चाय और बंद-मखन खा कर डेढ़ बजे तक ही घर पहुँचते थे.” किसी कारण से माँ आज पिताजी को ज़्यादा याद कर रही थी. वो अपनी जवानी को याद कर रही थीं, अपनी शादी के बाद का वह समय जब वे हर हफ़्ते रात के शो में फ़िल्म देखते थे. वे रोहतक रोड पर एक कमरे के मकान में रहते थे, लिबर्टी सिनेमा हॉल सड़क पार मुश्किल से पांच मिनट की पैदल दूरी पर था. मैं चाहता था कि वो सो जाएँ जिस से शायद मैं भी थोड़ी देर सो सकूँ, पर नहीं.

छत पे टंगा सफ़ेद पंखा अंधेरे कमरे में मुझे साफ़ दिख रहा था, उसके तीन पंख सूफी दरवेशों के लबादों की तरह धीरे-धीरे घूम रहे थे और मुझे सूफ़ी गायक पठाने ख़ान साहेब के गाये ‘घुम चरखड़ा घुम’ के बोल याद आ रहे थे. मरहूम पठाने ख़ान साहेब सिंध-पाकिस्तानी के मशहूर क्लासिकल गायक थे जिस इलाके के आस पास से ही मेरे बुज़ुर्ग हिंदुस्तान आये थे . बाहर बरामदे में लगे,अमरुद के पेड़ पर बिल्ली का बच्चा म्याऊं-म्याऊं करता अपनी माँ को पुकार रहा था और इस तरफ़ मैं अपनी माँ को सोने के लिए कह रहा था. फिर क़रीब 15 मिनट तक कोई हरक़त नहीं हुई तो मुझे लगा उन्हें नींद आ गई.

शुक्र है अल्लाह, कह कर मैं पलटा ही था कि माँ ने कहा “इतना बड़ा कमरा है हम सब को इसी कमरे में इकठ्ठा सोना चाहिए”. इस से पहले कि मैं कुछ कहता माँ ने शादी के बाद के अपने सारे छोटे कमरे वाले घरों की फेहरिस्त गिनवा दी. अब मैं उन्हें कैसे बताता कि अलग-अलग कमरों में सोने और आराम करने की हमारी आदतें एक-दूसरे से दूर रहने को नहीं पर एक दूसरे के काम में ख़लल न डालने को हैं. मैं चुप रहा. माँ करीब आधा घंटा बिना रुके हर घर और हर इलाक़े के बारे में बताती रहीं, बीच-बीच में ये जोड़ कर कि “तू तब बहुत छोटा था”. मैं हैरान था उन्हें रोहतक रोड, सराय रोहिल्ला, मोती नगर, रमेश नगर और अशोक विहार जाने वाली बसों के नंबर भी याद थे. कौन मूर्ख डॉक्टर कहता है कि माँ की यादाश्त जा रही है. हाँ, डिमेन्शिआ अलग बात है.

दीवार पे लगी घड़ियों पे अँधेरे में चमकने वाले रंग नहीं होने चाहियें, वो सोने नहीं देते. मैं माँ से पूछना चाहता था क्या इतने घर बदलने के बाद भी मैं छोटा ही रहा, कभी बड़ा नहीं हुआ ! इस सब के बीच वो इन घरों के पड़ोसियों को भी याद कर रही थीं. “वो जो नागपाल ऑन्टी थी न, सराय रोहिल्ला वाली, वो तुझे बहुत प्यार करती थी. मुझे कहीं जाना होता था ना, तो मैं तुम को नागपाल ऑन्टी के घर छोड़ जाती थी. उनका बेसन का हलवा बहुत टेस्टी होता था, तुझे बहुत पसंद था. पता है वो तुझे गोद लेना चाहती थी, इस डर के मारे हमने वो मकान ही छोड़ दिया.” इस बात पे मेरी हंसी छूटने वाली थी. नींद अब मेरी आँखों से पाँच प्रकाश वर्ष दूर थी. मैं नागपाल ऑन्टी का चेहरा याद कर रहा था, कितनी भली औरत थी, उनकी कोई औलाद नहीं थी. मकान बदल कर माँ ने उनसे वो थोड़ा-सा सुख भी दूर कर दिया.

माँ और माओं की गाई जाने वाली लोरियों के बारे में सब ने सुन रखा होगा. कितने भावुक कर देने वाले बोल होते हैं इन लोरियों के. कितना जज़्बाती कर देता है ये माँ, लोरी और नींद का क़िस्सा. फिर मुझे कोई ये बताये कि अब माँ की बातें सुनते हुए हमे नींद क्यूँ नहीं आती, बताईए ? माँ की अटेंडेंट उठ कर अपने लिए पानी लाने चली गई. मेरा भी मन किया कि उठ कर बैठ जाऊं पर मेरे ऐसा करने से माँ तो बिलकुल भी नहीं सो पाती सो मैं बिस्तर पर डटा रहा. इस बीच माँ टॉयलेट का एक और चक्कर लगा आयीं. उनके बाहर आते ही मुझे लगा कि वो अंदर जा कर बात करने का कोई नया सब्जेक्ट सोच कर आतीं है.

इस बार वो जम्हाई लेती बाहर निकली और बोलीं, “मैं जब अपनी नानी के घर जाती थी न तो वहां हम सब लोग छत पे सोते थे, पहले छत पे पानी छिड़कते थे और फिर चारपाइयां लगाते थे. हमारे नानके झंग (अब पाकिस्तान) में थे. लाहौर में अपने घर पर हम नीचे बरामदे में सोते थे. वहां सब पड़ोसी बाहर गली में सोते थे पर हमारे बाउ जी लड़कियों को गली में नहीं सोने देते थे. बाहर सोने का अपना मज़ा है. अच्छी नींद आती है. चलो बाहर चलते हैं, थोड़ी देर सैर करेंगे, सुबह हो गई है, ताज़ी हवा में बैठेंगे, रजनी भी थोड़ी देर में आ जाएगी फिर चाय पिएंगे.” मेरा हाथ लाइट के स्विच तक जाता हुआ रास्ते में रुक गया. “माँ, अभी रात है, अभी तीन बजने वाले हैं सवेरा नहीं हुआ. आओ थोड़ी देर और सो लेते हैं फिर बाहर चलेंगे.”
अनुषा ने उन्हें पानी की छोटी बोतल से पानी पिला दिया और हाथ पकड़ बिस्तर पर ले गई.

माँ लेटना नहीं चाहती थी, वो खिड़की की तरफ़ देख टाइम का अंदाज़ा लगा रही थीं. उन्हें यक़ीन दिलाने के लिए मैंने खिड़की से पर्दा हटा कर उन्हें बाहर का अँधेरा दिखलाया. शायद उन्हें विश्वास हो गया और वो लेट गईं. इस बार उनकी चुप्पी लम्बी रही, क़रीब पौन घंटा. इस बीच मुझे दो बार झपकी आ गई और मैं लेट गया. मैंने देखा माँ घुटने उचका कर लेटी हैं. उन्होंने दायीं टाँग सीधी नहीं की थी. शायद दर्द हो रहा होगा. इस बार उनकी गर्दन दूसरी तरफ थी, उस लड़की की चारपाई की तरफ़ जो उनके दाईं तरफ़ बिछी थी उनके पलंग से सटी हुई ताकि माँ रात को उठ कर अकेली चलने की कोशिश न करें. आठ महीने पहले अपने इस साहसिक अभियान से वो अपनी बाज़ू की हड्डी तोड़ चुकीं हैं और तीन महीने पहले एक बार फिर गिर कर अस्पताल का चक्कर काट चुकी हैं.

माँ के कमरे की बड़ी खिड़कियां पूरब को खुलती हैं जिन पे से मैं परदे कुछ देर पहले हटा चुका था. भारी और दुखती आँखों से मैं जितनी बार माँ की तरफ़ देखता उतनी बार मेरी नज़र सामने खिड़कियों के पार आसमान पे भी पड़ती. अमरुद की पत्तियों के सरसराने से मुझे लगा बाहर हवा चल रही है. सूर्य महाराज का रथ और उनके सातों घोड़े अभी क्षितिज से नीचे ही थे फिर भी ऊपर के आसमान का रंग काले से गहरा जामुनी होता जा रहा था जो अगले एक घंटे में धीरे धीरे लाल से नारंगी से सुनहरा होगा. बचपन में पढ़ी एक कहानी मुझे याद आ रही थी “रात का चौथा पहर था. पक्षी अपने घोंसलों से बाहर झाँकने लगे थे. जोगी अपना कमंडल उठाये नदी की ओर बढ़ रहा था और डाकुओं की टोली का सरदार माँ काली की पूजा की तैयारी कर रहा था.”

रात का चौथा पहर. दीवार पे टंगी घड़ी में वक़्त था 4 बज कर 45 मिनट. जिस धीमी स्पीड से उसकी सेकेंड वाली सूई चल रही थी उसे देख मुझे लगा बेचारी वो भी थक गई है. मेरी आँखें ये नहीं तय कर पा रही थीं कि उन्हें खुले रहना है या बंद होना है. मेरे शरीर की हर इंद्री और अंग ढीला पड़ चुका था जब बिस्तर पे रेंगता एक हाथ मेरे हाथ पर आकर ठहर गया. इस से पहले कि मैं चौंक के उठता माँ ने पूछा “ये किस का घर है, हम यहाँ क्यूँ आये हैं?” मेरे कोई जवाब देने से पहले उन्होंने बाथरूम की तरफ़ इशारा कर के कहा “उस कमरे में कौन रहता है ?” बाथरूम की मद्धम लाइट जल रही थी और उसका दरवाज़ा अधखुला था. “कितनी लाइट वेस्ट करते हैं लोग. हम अपने घर कब जायेंगे? यहाँ ऊपर कौन रहता है? अशोक विहार अच्छा है.” मैं चुप रहा, सुनना चाहता था कि उनके दिमाग़ में क्या चल रहा है. “तेरे डैडी …. “, कहते-कहते उनकी आवाज़ दूर होती गई. मैंने अपना हाथ उनके हाथ के नीचे से धीरे-धीरे निकाल लिया. माँ हिली भी नहीं, अब वो नींद में थीं.

सामने खिड़की में लालिमा चमक रही थी. कमरा थोड़ा ठंडा था. चादर खींच कर मैंने माँ के पैरों और टांगों को ढंक दिया. उनकी दायीं टांग अभी भी उचकी खड़ी थी. बस, चादर भर के हिलने से माँ की आँख फिर खुल गयी. मुझे खड़ा देख उन्होंने कहा, “सफ़र से आई हूँ न, थकान तो हो ही जाती है. मैं थोड़ी देर सो लेती हूँ.” जितनी देर में मैं जवाब देता माँ ने आँखें मूँद लीं. मैं कुछ देर वहीँ खड़ा उन्हें देखता रहा. सोच रहा था बीती रात वो कहाँ के सफ़र पे निकलीं होंगी. क्या वो सपना रहा होगा या ज़िन्दगी के किसी पड़ाव की यादें?

अपने चेहरे को चुन्नी से ढके अनुषा अटेंडेंट हलके-हलके खर्राटे ले रही थी. मोबाइल की घड़ी पे समय था 06.25, पाँच मिनट बाद सैर को जाने का अलार्म बजने वाला था. मैं सरक कर दबे पाँव कमरे से बाहर आ गया जहाँ दरवाज़े पे रजनी खड़ी थी. “थोड़ा सोये?”, उसने पूछा और हम दोनों मुस्कुरा दिए.
उस दिन माँ ने 11 बजे उठते हुए कहा-यहाँ आ कर मैं बहुत सोने लगी हूँ वहां तो मैं पाँच बजे उठ जाती थी. माँ को अशोक विहार से गुड़गांव आये 11 साल हो चुके हैं.

(12 नवम्बर 2024)


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