आर.एस.पुरा | जहाँ 18 सितम्बर 1947 को आख़िरी ट्रेन आई
इस इमारत के माथे पर लिखी इबारत से आप जान ही गए होंगे कि यह रनबीर सिंह पुरा रेलवे स्टेशन का अवशेष है. बोलचाल में जिसे आर.एस.पुरा कहते हैं, वह यही तो है. जम्मू ज़िले का वह शहर जिसे डोगरा राजवंश के शासक महाराजा रनबीर सिंह ने बसाया था.
19वीं सदी की शुरुआत में नियोजित तरीक़े से बसाए गए इस शहर को अपना नाम भी महाराजा के नाम से ही मिला. अभी अपने बासमती चावल के लिए मशहूर आर.एस.पुरा कभी चीनी और गन्ने के लिए पहचाना जाता था. यहाँ रेल लाइन बिछ जाने के बाद व्यापार और वाणिज्य की गतिविधियों का केंद्र बना रहा.
जम्मू–सियालकोट ट्रैक बनने के बाद जम्मू-कश्मीर पहली बार रेलवे के नक्शे पर आया और इसकी पहल रनबीर सिंह भी ने ही की थी. उन्होंने गर्वनर-जनरल को लिखकर इस रेल लाइन के लिए अपनी सरकार की ओर से फंड देने का प्रस्ताव किया, जिसे मान लिया गया. 1885 में उनके निधन के बाद महाराजा प्रताप सिंह ने रेल लाइन के प्रस्ताव पर बातचीत जारी रखी.
तय हुआ कि नॉर्थ वेस्टर्न रेलवे इस ट्रैक पर ट्रेन चलाएगा और महाराजा की ओर से रेल लाइन बिछाने में लगाई गई रक़म पर एक फ़ीसदी ब्याज मिलेगा. इसके अतिरिक्त होने वाली आमदनी नॉर्थ वेस्टर्न रेलवे और महाराज की सरकार में बराबर बांटी जाएगी.
सन् 1888 से 1890 तक 43 किलोमीटर लंबी लाइन बिछाने के काम में महाराजा ने दस लाख रुपये लगाए थे. सियालकोट से शुरू होकर यह ट्रैक सुचेतगढ़, रणबीर सिंह पोरा और मीरां साहिब क़स्बों से होकर गुज़रता हुआ जम्मू तक पहुंचता.
रणबीर सिंह पोरा जम्मू-कश्मीर रियासत का पहला रेलवे स्टेशन बना. सियालकोट से चलने वाली रेलगाड़ी तीन घंटे में जम्मू पहुंचती. 1935 के टाइम टेबिल के मुताबिक इस ट्रैक पर चार जोड़ी ट्रेन चला करती थीं, दो जोड़ी सियालकोट से और दो जोड़ी वज़ीराबाद से.
देश के बंटवारे के बाद कितनी ही रेलगाड़ियाँ दोनों तरफ़ के लोगों के आने-जाने का ज़रिया बनीं. 18 सितम्बर 1947 को इस ट्रैक पर आख़िरी रेलगाड़ी चली. सरहद पार से आए तमाम लोगों ने रेलवे स्टेशन और उसके आसपास बने रेलवे के क्वाटर्स में अपना बसेरा बनाया. रेलवे की ज़मीनों पर शरणार्थी आबाद हुए.
निष्प्रयोज्य रेलवे का ट्रैक तो अब कहीं नहीं दिखता, अलबत्ता पटरियाँ बदलने के लीवर, वॉटर कॉलम और पुल ज़रूर दिखाई देते हैं, उतने ही बदहाल जितना किसी देखरेख के बग़ैर उन्हें होना चाहिए. पटरी पर बसे होने की वजह से इस इलाक़े को ही पटरी नाम मिल गया और यहाँ के बाशिंदों को पटरी वाले.
पुराने रेलवे स्टेशन के साथ रहने वाले बुजुर्ग दिवान चंद का कहना है कि ऐतिहासिक धरोहर होने का हवाला देकर तीन साल पहले आए कुछ अफ़सरों ने उनसे मकान ख़ाली करने को कहा था तो उन्होंने ख़ाली कर दिया. मगर रेलवे स्टेशन और उससे सटे मकान तो अभी पहले की तरह ही हैं. बक़ौल दीवान चंद, जब वह वहाँ रहते थे तो समय-समय पर मरम्मत करा देते थे मगर अब तो भवन जर्जर हालत में है.
स्टेशन की इस इमारत को ‘हेरिटेज साइट’ के तौर पर विकसित करने की योजनाएं बहुत बार बनीं, मगर सिरे नहीं चढ़ सकीं. पिछले साल जनवरी में भी जम्मू-कश्मीर की पर्यटन निदेशक और फ़िरोज़पुर के डीआरएम सहित कुछ अफ़सरों ने यहाँ का दौरा किया था. आज़ादी के पहले इसे रेल लाइन के आख़िरी स्टेशन विक्रम चौक का प्लेटफ़ॉर्म सड़क चौड़ा करने में ध्वस्त कर दिया गया और रेलवे स्टेशन की इमारत के एक हिस्से में कल्चरल कॉम्प्लेक्स बन गया है और बाक़ी जगह में रोडवेज़ की वर्कशॉप है.
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