गोरखपुर | राप्ती से घिरे गाँव जहाँ नई बहुएं पहले नाव खेना सीखती हैं
गोरखपुर | राप्ती के किनारे दो बांधों के बीच में बसे मंझरिया, जवइनिया और केरवनिया गांव ऐसे हैं, जो मानसून की शुरुआत से लेकर अगले दो-तीन महीने तक पानी से घिरे रहते हैं. राप्ती में पानी बढ़ते ही इन गांवों की सड़कें-रास्ते डूब जाते हैं. ऐसे में गांव से बाहर जाने या बाहर से गांवों तक पहुंचने का ज़रिया नावें ही होती हैं.
गोरखपुर-लखनऊ हाइवे के क़रीब पड़ने वाले इन गांव के लोगों को अगर हाइवे तक आना हो, या पुल के नीचे से उसे पार करके दूसरे टोलों, खेतों और अपने अमरूद के बगीचों तक जाना हो तो नावों का ही सहारा लेना पड़ता है.
गाँव के युवक रमेश कहते हैं, ” नदी और नावों से हमारा गहरा नाता है. साइकिल या बाइक की तरह यहां घरों में आपको छोटी-बड़ी नावें मिल जाएंगी. और नाव बनाने वाले कारीगर भी यहीं मौजूद हैं.” यहीं के रामहरख के मुताबिक़, “खेती-किसानी से लेकर रोज़गार तक के लिए नावों की ज़रूरत पड़ती ही है. कई लोग मछली पकड़कर बेचते हैं.”
इन गांवों में बच्चों से लेकर बूढ़ों तक, यहां तक कि किशोरियां और महिलाएं भी सिर्फ़ तैराकी में माहिर नहीं हैं, कुशल नाविक भी हैं. ज़रूरत होने पर बेटियां और बहुएं भी पतवार थामे दिख जाती हैं. गाँव में ब्याह कर आने वाली नई-नवेली दुल्हनों को पहले नाव खेना ही सीखना पड़ता है ताकि वक़्त-ज़रूरत उन्हें किसी और का मुंह नहीं देखना पड़े.
जवइनिया की बुज़ुर्ग कांति कहती हैं, “नई बहुओं को भी नाव खेने का हुनर सीखना पड़ता है, क्योंकि यह हमारे जीवन का अहम हिस्सा है. ” इसी गांव की भगवंती बताती हैं कि हर साल तीन-चार महीने तक हमारे घरों के दरवाज़े पर पानी भरा रहता है और किसी भी काम के लिए नाव की ज़रूरत रहती है. वह बताती हैं जिन लोगों के घरों में शौचालय नहीं है, उन्हें नित्यकर्म के लिए भी नाव से बाहर ऊंची जगहों पर जाना पड़ता है.
इन दुश्वारियों से निजात के बारे में पूछने पर वह हंस देती हैं. फिर जवाब देती हैं, “यहां रहने वालों के बचपन से लेकर बुढ़ापे तक यह चुनौती बनी ही रहती है, सो सबको आदत पड़ गई है. हमने तो इसे अपनी दिनचर्या का हिस्सा मान लिया है.”
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