इंटरव्यू | कवि के लिए नहीं होते पर्याववाची शब्द

  • 10:36 am
  • 26 January 2025

    ‘एक मस्त फ़कीरः नीरज’ गोपालदास नीरज की सर्जना के तरीक़े और उनकी फ़िक़्र को बेहतर ढंग से समझने की कुंजी भी है. इस किताब में डॉ. प्रेम कुमार ने उनकी शख़्सियत के कितने ही रंग संजोये हैं, उनके कृतित्व को समझने में मददगार तमाम पहलुओं पर विस्तार से और बेबाकी से बातचीत की है. नीरज से उनका लंबे साक्षात्कार की दूसरी कड़ी. -सं

नहीं, आतुरी में नहीं, जब उतरी है, तभी लिखी है मैंने ग़ज़ल, ‘जितना कम सामान रहेगा उतना सफ़र आसान रहेगा.’ – एक आसान-सी बात, जुबान की सादगी, जीवन का गहरा सन्देश, ज़िन्दगी में सर्वाधिक काम आने वाली बात. इसीलिए कहते ही सारे देश में पॉपुलर हो गया. रजनीश से छात्र जीवन से ही मेरा सम्पर्क रहा. यह शेर मैंने उनसे कहा था. अमेरिका से लौटे तो मुलाकात, बातचीत हुई. वे रजनीश हुए पहले, फिर आचार्य रजनीश, फिर भगवान रजनीश, ओशो बनने के पहले मैंने उनसे कहा था-‘एक दिन ऐसा आएगा कि आपको यह सब छोड़ना पड़ेगा.’ बोले-‘क्यों? मैंने कहा-‘जो चेतना के, हिमालय के अन्तिम छोर तक, उपत्यका तक पहुँचना चाहता है, वह इतने बोझ लेकर कहाँ जाएगा? ये उपाधियाँ, ये अलंकरण, सब बोझ हैं, इन्हें उतारना पडेगा. ऊँचाई पर, अधिकतम ऊँचाई पर दिगम्बर होना पड़ता है पूरा.’ तब वे मुस्करा दिए थे बस, पर बाद में ओशो मात्र रह गए.

जापानी शब्द ओशो को लेकर, एक प्रतीक रूप केवल उपनिषद्‌ के सूत्र ‘रसो वै सः’ की बात मैंने एक शेर में की. मैं गोपालदास और नीरज, दोनों से भिन्न कोई तत्त्व हूँ, जो इनके मकान में ज़िन्दगी भर किराएदार बनकर रहा. ‘तू उस रसिक से अपिरिचत ही रहेगा नीरज. कि जब तलक तेरी संज्ञा पर विशेषण होगा….तमाम उम्र मैं एक अजनबी के घर में रहा. सफर न करते हुए भी किसी सफर में रहा’-ग़ज़ल की टैक्नीक है. ‘उस’ शब्द से हमने क्याो व्यक्त कर दिया? ‘उस’ का प्रोनाउन लगाने से यह हो गया. ‘वह न ज्ञानी, न वह ध्यानी, न विरह मन, न वह शेख. वह कोई और थे जो तेरे मकान तक पहुँचे’-ग़ज़ल की कला है यहाँ. यहाँ ‘और’ पर ध्यान दें. कितनी कठिन बात इतनी आसानी से कही गई है कि नासमझ भी समझ ले. विद्वान्‌ के लिए तो है ही. कृष्ण ने कहा कि मैं स्रष्टा हूँ, कर्ता नहीं. मैं बनाता हूँ, चलाता नहीं. तटस्थ द्रष्टा, मेरी उपस्थिति बिना चल नहीं सकता कुछ. आखिर मैं हूँ क्या? अंग्रेजी में टर्म है ‘कैटलिस्ट’. जिसका कोई फंक्शन नहीं. ‘ओ’ और ‘एच’ है, पर जब तक विद्युत न होगी, पानी नहीं बनेगा.

मैंने ग़ज़ल में प्रतीकों, बिम्बों के माध्यम से भारतीय चिन्तन ही तो व्यक्त किया है-‘न सोच तू कि सीएगा वह तेरी चादर भी. वह सिर्फ सुई में धागा पिरोने वाला है. उसने तेरे शरीर रूपी सुई में प्राण का धागा पिरोकर दे दिया. अब तू कफ़न, कुर्ता, बनियान, लहँगा या क्या् सीता है, ये तेरी ज़िम्मेदारी है. वह नहीं सीएगा. स्रष्टा है वह, उसने सृष्टि कर दी.’ सुई के सिम्बल से मैंने एक जगह कहा-‘बिन धागे की सुई जिन्दगी, सिए न कुछ बस चुभ-चुभ जाए. कटी पतंग समान सृष्टि ये, ललचाए पर हाथ न आए’-सार्त्र की फिलासफी का भारतीयकरण हो गया. कोई पढ़े, देखे, उतरे, तो समझ आए. छह लोग पी-एच.डी. कर चुके, काफी कुछ कहा- लिखा लोगों ने, पर कविता को समझने, उसमें उतरने का प्रमाण नहीं दे पाते लोग.

नीरज जी के वक्ता और प्राध्यापक का प्रखर-प्रबल रूप तब यकायक सामने आने लगा, जब उनसे उनके अध्ययन और उनकी कविता की दार्शनिक पृष्ठभूमि के बारे में कुछ सवाल किए गए. भाषिक प्रयोगों के बारे में उनके समक्ष रखी गई जिज्ञासाओं के उत्तर में बड़ा दिलचस्प और दुर्लभ अनुभव हुआ. नीरज जी तब स्वयं अपनी कविताओं की व्याख्या कर रहे थे, पढ़ाने के अन्दाज में कविताओं का मर्म समझा रहे थे-‘आज लोग पढ़ते कहाँ हैं? अरविन्द, बुद्ध, मदर, गीता, उपनिषद्‌, महावीर, वैष्णव-दर्शन, बाइबिल, कुरान, भर्तृहरि आदि, हमने जब जो पढ़ा, कविता में उतारा. कबीर की बड़ी प्रसिद्ध पंक्ति है-‘ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय’. यहाँ कविता कम है, उपदेश ज्यादा लगता है. अभिधा में, सीधे बात कहने की प्रवृत्ति ज्यादा है कबीर में. ‘ढाई आखर’ फ्रेज़ से कविता बनी यह पंक्ति. मौलिक बात कही. इसी बात को फ़िराक़ ने अपनी तरह कहा-‘सदसाला दौरे चर्ख़ था सागर का एक दौर/निकले जो मयकदे से तो दुनियाँ बदल गई.’ अपने यहाँ धरती घूमती है, इस्लाम दर्शन कहता है कि आसमान भी चक्कर खा रहा है. आसमान का सौ साल का जो चक्र था वह हमारे मयख़ाने के सागर के एक दौर के बराबर था. पी के निकला तो वहाँ पहुँचा, जहाँ संसार विकास करके सौ वर्ष में पहुँचता.

ढाई आखर यानी एक घूँट! मैंने यूँ कहा कि तेरे मन्दिर में प्रेम का सिर्फ एक घूँट पिया, बाहर आकर देखा तो मैं संसार से सौ साल आगे खड़ा था-‘एक सदी तक न वहाँ पहुँचेगी दुनियाँ सारी…’ . मेरे द्वारा किए गए भाषा के प्रयोगों को ढंग से देखा नहीं गया. सबसे पहले मुक्तक मैंने लिखे और वे हिन्दी में खूब चले. पत्रात्मक शैली में कविता लिखी तो वह एक विधा ही बन गई. भाषाई जादूगरी और भाषा के अनेक रूप मेरी कविता में देखे जा सकते हैं. एक तरफ ध्वनिवसना, कर्णवसना शैली तो दूसरी ओर-‘मैं सोच रहा अगर तीसरा युद्ध हुआ, तो इस नई सुबह की नई फसल का क्यान होगा?’ एक तरफ-‘आज की रात बड़ी शोख, बड़ी नटखट है, आज तो तेरे बिना नींद नहीं आएगी’ वाला अन्दाज, तो दूसरी तरफ-‘सेर भर बाजरी मैं साल भर खाऊँगी…’ वाली शैली. मेरा दुर्भाग्य कि मेरा ढंग से अध्ययन नहीं हुआ.

बड़े धीमे-से मैंने कहा कि यह आप अकेले का मानना नहीं है, अधिकांश बड़े और स्थापित रचनाकार प्रायः ऐसा कहते सुने जाते हैं. तुरन्त कहा कि हाँ बच्चन के साथ भी यह हुआ, फिर अपने प्रयोगों के बारे में बताने लगे – रूबाई शैली में अपने मन की बात कहने का एक ढंग देखिए – ‘क्या कहें यार, हमें यारों ने क्या-क्या समझा? किसी ने क़तरा, किसी ने हमें दरिया समझा. सब समझते रहे वह ही जिसे जैसा भाया. किन्तु हम जो थे वही तो न जमाना समझा’. भक्ति में भाषा का दूसरा रूप होगा. भाव के साथ भाषा बदलेगी. एक ही भाषा में हर भाव को व्यक्त नहीं किया जा सकता-‘तुझसे लगन लगाई, उमर भर नींद न आई. साँस-साँस बन गई सुमरनी, मृगछाला सबकी सब धरणी/क्या गंगा, कैसी वैतरणी, भेद न कुछ कर पाई. दहाई बनी इकाई’. तुमसे नहीं कहा. लगन शब्द आया है न! यह है कहन! भक्ति के गीत का स्तर! छन्द देखिए! लोग क्या-क्या कहते हैं छन्द में कविता के बारे में! कविता में भाषा? विचार जो है, वह कवि के दरवाजे पर आए मेहमान की तरह है. और भाषा-उस मेहमान के स्वागत का आयोजन है. मेहमान यदि अंग्रेजी के प्रभाव-क्षेत्र से आया है, तो चेयर, टेबिल पर उसके यहाँ जैसा भोजन और स्वागत! यदि ब्रज-क्षेत्र से आया है तो दूसरी तरह का भोजन और स्वागत! कवि को ज्ञान होना चाहिए कि मेहमान कहाँ का है. शहर या गाँव जहाँ का है, उसी के अनुरूप भाषा की योजना करनी होगी. सही योजना पर ही गीतत्व उभरकर आएगा. मेरे पास ब्रज का एक विचार आया—‘माखनचोरी कर तूने कम तो कर दिया बोझ ग्वालिन की रीती गागर का… युग-युग चली काल की मथनी तब झलकी दधि में चिकनाई”-रूपक, प्रतीक-सब ब्रज के’. माखन की जगह यहाँ मक्खन ही रखकर देख लें. यहाँ ब्रजभाषा का लालित्य न होता तो गीत मर जाता. भाषा, भाव और वातावरण की अन्विति से ही गीत उभरेगा. अन्विति, नाटक की तरह!

एक तो है साम्यवाद, और एक है आध्यात्मिक समष्टिवाद. मार्क्स ने जो कहा, उसे मैंने उपनिषद्‌ के ज्ञान के सहारे कहना चाहा. भाषा की भूमिका का अन्तर भी साफ दिखेगा-‘जब तक थी भरपूर मटकिया, सौ-सौ चोर खड़े थे द्वारे/अनगिन चिन्ताएँ थीं मन में, गेह जड़े थे लाख किवाड़े’ पूँजी ने मनुष्य की आत्मा को कितने दरवाजों में बन्द कर दिया है-‘किन्तु कट गई अब हर साँकल, और हो गई हल हर मुश्किल. अब परवाह नहीं इतनी भी, नाव लगे किस नदी-किनारे’ मार्क्स की बात. चरण पूँजी पर टिका है. पूँजी अभिशाप है. जाति-वर्ग विहीन समाज की बात, अनेकांत वाद, जैन दर्शन और पुनर्जन्म का सिद्धान्त यहाँ कितनी ‘सरल जुबान में है! ‘घाट-घाट का पानी पीने वाले’ मुहावरे, उस फ्रेज़ के चले आ रहे अर्थ का उदात्तीकरण हो गया है यहाँ. सत्य-शोधक दुराग्रही नहीं होगा, स्यादवाद प्रेक्टीकल फॉर्म है उसका-‘इस द्वार क्यों न जाऊँ, उस द्वार क्यों न जाऊँ? घर पा गया तुम्हारा, मैं घर बदल-बदल के…. इस गाँव एक काशी, उस गाँव एक काबा. इसका इधर बुलावा, उसका उधर बुलावा. इससे भी प्यार मुझको, उससे भी प्यार मुझको. किसको गले लगाऊँ? किससे करूँ दिखावा? पर जाति क्यों बनाऊँ, दीवार क्योंँ उठाऊँ? हर घाट जल पिया है, गागर बदल-बदल के’(ख़ुद दाद दिए जा रहे हैं, बार-बार सुना-गुनगुना रहे हैं पंक्तियों को-हर घाट जल पिया है…)

दिगम्बर सम्प्रदाय की बात को सन्तों की वाणी में कहा मैंने-‘चुप रहो तो अनुभूति बोले/आँगन का द्वार खुलता नहीं बाहर से खोले…तथ्य है सीप, सत्य है मोती/आवरण उधाड़ तब दिखे ज्योति/नग्न हो पहले, फिर जो है वह हो ले/’ यानी शुद्ध बुद्धत्व प्राप्त कर ले. बुद्ध जैसा आदमी पैदा नहीं हुआ. उनके दर्शन-प्रतीति समुत्पादवाद के अनुसार एक से दूसरी चीज उत्पन्न हो जाती है. जिस दिन जन्म होता है उसी दिन से मरना शुरू हो जाता है. विज्ञान और अध्यात्म के ढंग से सोचो-आपके सामने बैठा मैं वह नहीं हूँ जो माँ की गोद में बैठा करता था. बुद्ध ने कहा कि एक धारा में हम दोबारा स्नान नहीं कर सकते. मैंने लिखा-‘सिर्फ दामन ही छुड़ाने को रुका था राह पर/और मेरा कारवाँ सौ कोस आगे बढ़ गया तय करूँ जब तक कि किस तरु पर बनाऊँ घोंसला/हाय, इतनी देर में ही बाग पीला पड़ गया’. एक मुक्तक की पंक्ति है-‘जब जान लिया सब कुछ तो अये मेरे नीरज/मैं कुछ भी नहीं जानता, ये जाना मैंने’- जीवन का यही तत्त्व कविता का तत्त्व भी है. हाँ, कविता का तत्त्व है यह. कविता की सबसे सुन्दर परिभाषा मुझे तुलसी की लगती है. ‘मिस्टीरियस एलीमेंट इज़ नैसेसरी एलीमेंट ऑफ़ पोयट्री’. भरत राम से लौट चलने की प्रार्थना कर रहे हैं. उनकी वाणी का वर्णन करते समय कविता की परिभाषा ही दे दी है तुलसी ने- ‘सुगम, अगम, मृदु, मंजु, कठोरा. अरथ अमित आखर अति थोरा’. कविता वह है जो सुगम (प्रसाद गुण), अगम (ज्ञानी के लिए अगम अर्थ), मृदु (माधुर्य गुण), कठोर (ओज गुण, आस्थायुक्त दृढ़ता) है. तुलसी आगे कहते हैं- ‘जिमि मुख मुकुर, मुकुल निज पानी. गहि न जाइ अस अद्भुत बानी.’ शब्द नहीं, अक्षर कहा है. कवि शब्दों की मैत्री नहीं कराता, अक्षरों की कराता है. क्यों? वाक्‌ से सूक्ष्म शब्द, शब्द से अक्षर, अक्षर से नाद, नाद के बाद भाव या स्वतत्त्व. बहुत से लोग शब्द तक पहुँचे. अक्षर के बाद चूँकि नाद है अतः गेयता कविता का धर्म. नाद के बाद गति नहीं ‘आज जी भर देख लो तुम चाँद को…’ यहाँ आप चाँद की जगह चन्द्र कर दें! अटपटा लगेगा, कान को खटकेगा. चन्द्र को न मीटर की आत्मा ग्रहण कर पा रही है और न ही भाव ही. धरती-आसमान कहकर देखें! जमीन के साथ आसमान ही आएगा तब म्यूजिकल लगेगा, गगन नहीं.

कवि के कान भी तो ट्रेंड होने चाहिए न! शब्द के तीन आयाम हैं – रूप, चित्र और ध्वनि- यानी साउंड, अर्थ और चित्र समाज प्रदत्त है. मान लो ‘क’ है. हिन्दी, बंगाली, अंग्रेजी, सब में अलग-अलग लिखा जाएगा. ठीक है कि इसका चित्र और अर्थ समाज प्रदत्त है, पर साउण्ड समाज प्रदत्त नहीं है और वही उसकी आत्मा है. इसलिए गेयता गीत का अनिवार्य गुण है. कवि कविता के विवाह-मण्डप में एक पुरोहित की तरह कार्य करके अक्षरों की आत्म-मैत्री स्थापित कराता है. एक घटना सुनिए आप! चन्द्रशेखर की फिल्म ‘चा चा चा’ में मैं गीत लिख रहा था. ‘चा चा चा’ बहुत पहले लोकप्रिय रहे एक नृत्य का नाम है. गीत लिखा-‘वह हम न थे, वह तुम न थे, वह रह गुजर थी प्यार की. लुटी जहाँ पर बेवजह वह पालकी बहार की’. इससे आगे एक चरण आया-‘न चोट है यह फूल की, न चोट है यह खार की’. चन्द्रशेखर ने कह दिया कि ठीक है. मैंने कहा कि यार ‘चोट’ अभी मेरी समझ में नहीं आ रहा है. ख़टक रहा है. सोचता रहा, सोचता रहा. परेशान. खाना खाया. सब सोने लगे. मैं लेटा रहा, लेटा रहा. सोचते-सोचते यकायक इलहाम हुआ-‘न चोट है यह फूल की, न है खलिश यह खार की’. क्या शब्द आया देखिए! सही कविता लिखने के लिए कवि के कान का भी ट्रेंड होना (कवित्वमय होना) जरूरी है.

आई.ए.रिचर्ड्स ने ठीक कहा है कि पर्यायवाची शब्द कवि के लिए नहीं होते. कवि ने जहाँ एक शब्द रख दिया, उसके स्थान पर, उतनी ही मात्रा का शब्द, उसी अर्थ का शब्द नहीं रखा जा सकता. रख दोगे तो भाव मर जायेगा. मखमल में टाट के पैबन्द की भाँति वह अलग दिखेगा. अलग-अलग भाव और तरंग में लिखी अपनी कविता की कुछ पंक्तियाँ सुना रहा हूँ, भाषा के प्रयोग की ताकत और अन्दाज को आप खुद देखिए. एक प्रयोग है-‘जात अजानी, नाम अजाना, कहीं न अपना ठौर-ठिकाना. बिना कुटी के संन्यासी हम, मकीं बगैर मकान के.’ यहाँ मकीं की जगह गृही करके देखिए! मात्रा बराबर, अर्थ वही, पर… साधो को सम्बोधित एक गीत लिखा मैंने, सधुक्कड़ी, अन्दाज में-‘साधो! जीवन दुख की घाटी/दिस-दिस फिरे निसंक हाथ में लेकर जेठ लुकाठी. सुलगें पंछी, सुलगें पिंजर, सुलगें कल्प, सदी, मन्वन्तर. ऐसी आग लगी है भीषण, सोना बचे न माटी/ऊँचाई से उच्च ऊँचाई, नीचाई से निच्च निचाई!’ यहाँ ‘स’ की जगह ‘श’ करके देख लें या ‘जेठ’ को बदल दें, फिर अन्तर कर लें. ‘उच्च’, ‘निच्च’ शब्दों के प्रयोग पर ध्यान दें.

फक्कड़ी जुबान का नमूना है यह-‘एक आग है, एक चिलम है, अपना एक नशा है रे. बोल फकीरे सिवा नशे के अपना कौन सगा है रे…. दुनियाँ की चालों से बिल्कुल उल्टी अपनी चाल रही. जो सबका सिरहाना है रे, वह अपना पैताना रे!’ शहरी भाषा के प्रयोग पर नज़र डालें-‘इस तरह तय हुआ साँस का ये सफर. जिन्दगी थक गई, मौत चलती रही’. संस्कृतनिष्ठ भाषा के लिए अरविन्द की कविताओं के अनुवाद को देखा जा सकता है. कथात्मक भाषा के लिए वे कविताएँ देखी जा सकती हैं जिनमें कहानी के माध्यम से जीवन के तरह-तरह के व्यंग्य-विद्रुप को गीत के रूप में रचा गया है-‘एक दिन एक बोली पिटी गोट यूँ, एक मौका अगर तू मुझे और दे/मान सच ये कि बाजी बदल दूँ अभी. हार को जीत से, जीत को हार से/सुन खिलाड़ी प्रथम बार झिझका जरा/फिर बदल गोट को चाल चलने लगा/जब लगी अक्ल सब तब बहुत देर में/खेल का कुछ तराजू बदलने लगा. पर हुआ खत्म वह खेल भी इस तरह. गोट पिटती रही, चाल चलती रही’.

प्रगतिवादी भाषा के नाम पर जो भाषा आई, वहाँ बहुत बार नारेबाजी दिखती है. उससे मेरे यहाँ अन्तर है-‘मैं सोच रहा हूँ अगर तीसरा युद्ध हुआ, इस नई सुबह की नई फसल का क्या होगा? मैं सोच रहा हूँ गर जमीन पर उगा खून, इस रंगमहल की चहल-पहल का क्यान होगा?’ पूरा गीत लोक की संस्कृति और भारतीयता से जुड़ा है. यह रोमानी प्रगतिशीलता है. नुक्कड़ भाषा या चौराहे की लुक्का भाषा का एक नमूना देखें-‘देखो देश का हाल हुआ क्या, फँसकर कुछ बटमारों में. संसद में जूता चलता है, गोली चले बाजारों में …. उठक-पटक वह मची कि सारे घटक खटककर भटक गए. कुछ तो गिरे कढ़ाई में और कुछ खजूर में लटक गए….किसी की टूटी कमर, किसी के पाँव के गट्टे चटक गए. जैसी होय लड़ाई भैया नेताओं के दंगल में. नहीं लड़ाई देखी वैसी भटियारिन भटियारों में.’ आध्यात्मिक गीत के लिए भाषा का दूसरा रंग- ‘हर दरपन तेरा दरपन है, हर चितवन तेरी चितवन है. मैं किसी नयन का नीर बनूँ, तुझको ही अर्घ्य चढ़ाता हूँ.’ संगीतात्मक भाषा लिखना मुश्किल होता है, अपेक्षाकृत कठिन होता है.

(गुनगुनाते-गुनगुनाते गाने लगते हैं)-‘नभ की बिंदिया चन्दा वाली, भू की अँगिया फूलों वाली. सावन की ऋतु झूलों वाली, फागुन की ऋतु भूलों वाली. कजरारी पलकें शर्मिली, निंदियारी अलकें उरझीली. गीतों वाली गोरी ऊषा, सुधियों वाली संध्या काली.’ उर्दू मिश्रित भाषा, जो नाजुक है और जहाँ लताफ़त भी है—‘फिर वही शहर, वही शाम, वही तेरी तलाश. मुस्कराते हुए तट पर उदास बैठा हूँ. तेरे वायदों की कसम, तेरी नज़रों की कसम. दूर होकर भी बहुत तेरे पास बैठा हूँ’. जुहू तट पर लड़के-लड़कियों को बैठे, बात करते देख बिम्ब बना-‘चाँद की बाँह में उलझाए लचकती बॉँहें. कभी शरीफ, कभी शोख लहर आती है. उड़ते छींटों की तरह, याद तेरी उड़-उड़ कर. कभी दामन को, कभी दिल को भिगो जाती है’. और हाँ, (जैसे अचानक कुछ महत्त्वपूर्ण याद आया हो. खूब हँसते हैं, सुनाते समय भी हँसी रुक नहीं रही है) भाषा का एक और रूप, गँजेड़ियों का अन्दाज भी देखें-डरा था मैं कि लोग सुन-सुनकर गँजेड़ी न हो जायें. मैंने कभी चरस पिया थोड़े ही है, पर लिखा-‘इतनी जोर से फूँक चिलम को, लो जा मिले सितारों से. ऐसा उगे प्रकाश ज्योति का, झरना झरे पहाड़ों से. जो बन गया प्रकाश उसी का जीवन सफल हुआ है रे’. पत्रात्मक शैली में लिखी ‘नीरज की पाती’ बड़ी लोकप्रिय हुई थी. (बाक़ी अगले अंक में)

(एक मस्त फ़कीर नीरज से)

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