गोपीचंद नारंग | भाषा तो हमारे डीएनए में दर्ज रहती है

  • 9:53 am
  • 11 February 2022

बेहद तपती हुई दोपहर थी वह. मन में भी तपती-सी एक आशंका थी कि कहीं आज फिर डॉ.गोपीचन्द नारंग की व्यस्तता बातचीत को आगे के लिए स्थगित न करा दे. पर साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष के उस वातानुकूलित ऑफ़िस में प्रवेश के साथ ही नारंग जी के वाक्यों व व्यवहार ने मन को शीतल कर आश्वस्त किया तो ज़रा पहले की हालत और मनःस्थिति पता नहीं कहाँ, कैसे कपूर की तरह ग़ायब हो गई.

इन उर्दू वालों की भाषा और बातों में सचमुच जादुई असर होता है, तभी तो आदमी उनकी मिठास और कशिश की ज़द में तुरत-फुरत आने लगता है.’बस, एक मिनट, बस, एक मिनट और’ कहते हुए नारंग जी ने कुछ फ़ोन सुने हैं, कुछ किए हैं. मेरी निगाहों ने इस बीच दफ़्तर के हर हिस्से, हर चीज़ को देख लेना चाहा है; रूप, आकार, सज्जा, रख-रखाव, चमक-दमक आदि को देखते जाने की उस भागम-भाग में कहीं वे रुकीं, कहीं ठिठकीं, कहीं चौंकीं. कालीन, पर्दे, सोफ़ा, कुर्सियाँ, मेज़ – सब विशेष, आकर्षक! सामने की दीवार पर शीशों के पीछे से झाँकते अकादेमी के प्रकाशन. मेज़ की एक तरफ़ दो सफ़ेद एक काला टेलीफ़ोन. सामने बढ़िया-सा क़लमदान. दूसरी ओर कुछ फ़ाइलें, कुछ किताबें. किताबों के बीच में जगह-जगह लगी हुई स्लिप्स. दो चश्मे-एक मोबाइल फ़ोन. फ़ोन करके पी.एस.को बुलाया गया है – ‘अब किसी को नहीं आने देना है. नो कॉल्स…नो….’

चाय का एक घूंट लेने के बाद पहले क्रिकेट मैच का स्कोर सुना गया है. फिर अलीगढ़ और वहाँ के कुछ अदीबों के बारे में बातें हुई हैं. औपचारिता का नारियली आवरण जैसे चटख़ा –दरका! यह अचानक हुआ कि मैं उनके नाम के उत्तरार्द्ध – नारंग – के बारे में जिज्ञासा प्रकट कर बैठा. सहज-सी एक हँसी हँसे वे. चाय का घूँट लिया और बताने लगे –

नारंग में ना नकारात्मक नहीं है – यानी रंग की नफ़ी. हाँ, काग़ान की वादी में – पेशावर और कोहाट के बीच – एक क़स्बा है – नारंग! शायद यह नाम वहीं से चला हो. नारंग सिक्खों में पाए जाते हैं. वैसे जन्मपत्री का लिखा हुआ हमारा गोत्र कश्यप है.

आज के पाकिस्तान के उल्लेख ने नारंग जी को अतीत की स्मृतियों का कुछ जीने-जिलाने के लिए प्रेरित किया. अतीत के हिस्सों को देखने – याद करने का जब मैंने उनसे आग्रह किया तो चुप्पी के साथ छत की ओर देखते हुए धीरे-धीरे कुछ देर चाय सिप करते रहे. जैसे बहुत दूर-पार के बहुत धुंधले-से कुछ को ढूंढ़ निकाल लाने की कोशिश में लगे हों. दाहिनी तर्जनी ऊपर के होंठ पर टिकी है. फुसफुसाहट थी या फिर…आवाज़ एक सीटी सी…! कुछ और ध्यान दिया तो सुनाई पड़ा –

बलूचिस्तान के एक दूर दराज पहाड़ी इलाक़े में, जहाँ मेरा जन्म हुआ, उस जगह का नाम है दुक्की्. यह ज़िला लोरालाई – जो अब पाकिस्तान-ईरान की सरहद की तरफ़ है – की छोटी-सी तहसील है. मेरे पिताजी स्व.धर्मचन्द नारंग बलूचिस्तान रेवन्यू सर्विस में अफ़सरे-ख़ज़ाना थे और डोमिसाइल का दर्जा रखते थे. अँग्रेज़ों के उस ज़माने में उनका तबादला हर तीन साल बाद नई तहसील में हो जाता था. दुक्की के बारे में तो मुझे कुछ याद नहीं.

अलबत्ता दुक्की के बाद वे मूसाखैल आए, जहाँ की यादें कभी-कभी जुगनुओं की दुनिया की तरह आंखों के सामने चमक जाती हैं. मुश्किल से हज़ार-पन्द्रह सौ की आबादी होगी. क़िले की तरह का तहसील का वह दफ़्तर, बड़ा-सा वह फाटक जो तीन-चार सिपाहियों के खींचने पर बन्द होता था, की मुझे याद है. दिन में आने-जाने के लिए उसकी एक खिड़की खुली रहती. रात में उस पर बड़े-बड़े ताले डाल दिए जाते. इसी के अन्दर ज़मींदोज़ ख़ज़ाना था. चाँदी के सिक्के चमड़े की थैलियों-बोरों में भरकर मुहरबन्द कर दिए जाते थे. तब न गोदरेज का रिवाज़ हुआ था, न नोटों की करेंसी चली थी. बड़ी-बड़ी तिज़ोरियाँ ज़मीन के अन्दर सीमेन्ट में धंसी रहती थीं.

मुझे नहीं लगता कि इन तिज़ोरियों का कोई असर मेरे ज़हन पर नहीं था. मगर जब मेरी तबीयत खिंचती थी तो मैं स्टाफ़ क्वाटर्स की पीठ से लगे दूर तक फैले बगीचे की तरफ़ चला जाता. इसके रंगारंग फूल, अंगूर की हरी बेलें, अंजीर, शफ्तालू, अनार, सेब, चेरी, पेड़-पौधे – अब भी मेरी यादों की कहकशाँ का हिस्सा हैं. स्कूल जाने लगा तो मेरा जी स्कूल में न लगता. मैं वहाँ से भागकर बगीचे में आ जाता था और स्ट्राबेरी की क्यारियों में तालाब के किनारे बैठकर मछलियों के रंग-बिरंगे पर देखकर ख़ुश होता रहता. उन पर कंकड़ फेंकता, गुलेल से निशाना साधता. दोस्तों के साथ घूमता. बच्चे लम्बी-लम्बी घास में छुप जाते. बुलबुल गुलाब की क्यारियों के क़रीब बैठकर अपना तराना छेड़ती और मैं उसमें खो जाता.

कुछ ऐसा याद आया कि वे हँस रहे हैं – पहली जमात में पढ़ाई भी क्या होती है. दस-बीस सहपाठी रहे होंगे. मास्टर जी ने ज़बानी इम्तहान लिया. दिलासा देने को बड़े भाई साथ थे. मैं डरा हुआ तो था ही. जब मेरी बारी आई तो आँखें बन्द कीं – और जवाब देने लगा. मास्टर जी इतना ख़ुश हुए कि कुछ ही मिनटों के बाद कह दिया – पास! न सिर्फ़ पास, बल्कि अव्वल. मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा. अपने पर भरोसा पैदा हुआ. लगने लगा कि मैं भी पढ़ सकता हूँ. फिर तो किताबें बेहतरीन साथी बन गयीं.

ये भी याद पड़ता है कि हाफ़िजा बहुत तेज़ था. पूरा प्रेमचन्द, कृश्न चन्दर, रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचन्द्र, बंकिम, हाफ़िज़, रूमी, ग़ालिब मैं हाई स्कूल के ज़माने तक चाट चुका था और अँग्रेज़ी की भी सुध-बुध हो गयी थी. अगरचे गाँव-देहात के स्कूलों में पढ़ाई का इन्तज़ाम इतना अच्छा नहीं होता, लेकिन बाज उस्तादों ने बड़ी मेहरबानी की. किताबें तक ला-लाकर देते थे. मेरी शुरूआत ही ख़ुशनसीबियों से हुई.

…मेरा ज़ेहन कोरा काग़ज़ था. उस पर एक नहीं कई नक्श एक-दूसरे पर चढ़ते चले गए. भाषाएँ और बोलियाँ भी एक नहीं – एक में एक पिरोती चली गईं. मेरी माँ पश्चिमी पंजाब की थीं – सरायकी बोलती थीं. पिताजी पश्तो बोलते थे और बाज़ार की भाषा हिन्दोस्तानी – यानी उर्दू थी. पिताजी ने संस्कृत और फ़ारसी भी पढ़ाई. थोड़े बढ़े तो अँग्रेज़ी से भी वास्ता पड़ गया. लेकिन एक बात और इतनी ही अहम है कि पिताजी को गाने का भी शौक़ था. घर पर हारमोनियम था और भोंपूवाला बाजा भी – जिस पर वे के.एल. सहगल, बेग़म अख़्तर, रोशनआरा बेग़म और मलिका पुखराज के रिकॉर्ड लगाकर सुनाते थे.

हम दस बच्चे थे – छह भाई, चार बहनें. जब बारह लोग सितारों भरी रात में, एक छोटे-से कमरे में ठुँसे बाजा सुन रहे हों और एक कोने में लाल-लाल अनारों का ढेर लगा हो – और माँ सबसे छोटे बच्चे को दूध पिला रही हो – तो वातावरण कैसा होगा और ज़हन पर क्या-क्या नक्श नहीं बना होगा? पिताजी हारमोनियम पर -‘बालम आय बसौ मेरे मन में’ गाते थे तो आनन्द की जोत मन में जगती थी.

चाय की चुस्कियों के बीच जब मैंने ‘सरायकी’ के बारे में कुछ और जानना चाहा वो वे प्रवचन की-सी मुद्रा में आ गए – पाणिनी की भाषा है वह…पाणिनी मुल्तान के थे…

फिर वहाँ की नदियाँ, स्थानों के नामों आदि के बारे में बताते रहे. मैंने लेखन की ओर प्रेरित करने वाले सवाल को फिर से दोहराया तो बोले – मेरी लाइफ़ इतनी ईवेंटफ़ुल है नहीं…यह भी मज़े की घटना है वैसे…चूँकि बचपन की एक बेवकूफ़ी से जुड़ी हुई है…हुआ यूँ कि गर्मियों की छुट्टियों में बड़े भाई के साथ एक हॉकी-टूर्नामेंट देखने पड़ोस के शहर गया था.रहना दूर के एक रिश्तेदार के यहाँ हुआ.

हमें बाहर वाले कमरे में ठहराया गया था. सुबह-सवेरे अभी आँखें मल रहे थे कि एक पतली-दुबली, छरहरे बदन की लड़की चाय की केतली लिए कमरे में आई. नंगे पैर, बाल खुले हुए. मेरी उम्र चौदह-पन्द्रह बरस की होगी. तीख़े नक़्श! ऐसा लगा जैसे कोई बिजली कौंध गई हो! वह तो चली गई पर मैं देखता ही रह गया. यकलख कुछ हो गया. मैच में भी मन नहीं लगा. घर जाकर भी उसकी तस्वीर आँखों में फिरती रही. किसी से ज़िक्र नहीं कर सकता था और भुला भी नहीं सकता था.

जुनून यहाँ तक बढा कि खोज करते-करते उसके स्कूल का पता मालूम कर लिया और बेवकूफ़ी यह कि स्कूल के पते पर उसको नामा-ए-इश्क लिख मारा. ये गोया मिर्ज़ा शौक की मसनवी ‘ज़हरे-इश्क’ का बयाने-दर्द था. लड़की बेचारी रोती हुई घर आई. उस पर क्या गुज़र गई होगी इसका मैं उस वक़्त तसव्वसुर भी नहीं कर सकता था. उसके माँ-बाप ने मेरे भाई को बुलाया और सख़्त डांट-डपट की. बाद में वे लोग भी शरणार्थी बनकर देहली आए. मुद्दतों यह फाँस दिल में गड़ी रही और होते-होते तहलील हो गई – घुल गई. तब शेर भी अपने आप होने लगे और मैं कहानियाँ भी लिखने लगा.

चाय के चार-पाँच घूँट जल्दी-जल्दी लिए गए और फिर सुनाई पड़ा – इस पहले इश्क को लेकर मैंने अपनी पहली कहानी पंद्रह साल की उम्र में लिखी थी. वह 1946 में ‘बलूचिस्तान समाचार’ जो क्वेटा से निकलता था, में छपी थी. बाद में तीन-चार और कहानियाँ इसी अख़बार में छपीं. फिर मैं दिल्लीट आ गया और मशहूरे ज़माना रिसाले ‘रियासत’ में लिखने लगा. यह रिसाला रजवाड़ों के रईसों-राजाओं-महाराजाओं की कलई खोलकर हिसाब बेबाक किया करता था. उसका दफ़्तर दरियागंज में था.

एक बार रिसाले के मालिकान ने बहला-फुसला कर मुझको अपने स्टॉफ़ में लेना चाहा, लेकिन मैं बी.ए. करने के बाद दिल्ली कालिज में दाख़िला ले चुका था. छोटी-मोटी पार्ट टाइम नौकरी किया करता था. पढ़ाई के मज़े को मैं किसी क़ीमत पर तज न सका और दिन-रात एक कर, रातों को जाग-जागकर पढ़ता-इम्तहान देता रहा. और इस तरह 1956 में जब मैं अभी डॉक्टरेट की थीसिस पूरी भी नहीं कर पाया था कि दिल्ली के मशहूर सेंट स्टीफेंस कालिज में पढ़ाने को कच्ची नौकरी मिल गई.

आपने भी शुरूआत कविता से की और फिर आलोचना में आए. कविता में न रहकर आलोचना में अपने आने को आप किस तरह देखते हैं? कविता कहाँ क्यों रुक-थम गई?

बलूचिस्तान के ज़माने में जो कुछ ग़ज़लें, नज़्में लिखीं, वो एक बड़े रजिस्टर में थीं. दंगों के ज़माने में जब हम एक अँधेरी रात को रेडक्रॉस के एक डकोटा जहाज में से दिल्ली उतरे और सितम्बर महीने की ओस भरी रात को बिरला मंदिर के लॉन पर पटक दिए गए, तो सारा सामान तितर-बितर हो गया. भाई साहब ने कोहिस्तानी नदी के किनारे कुछ चमकती चीज़ें चुनी थीं जिनको वे हीरा समझते थे. वो छोटी-सी पोटली और मेरा रजिस्टर भी उसी सामान के साथ खो गया. भाई साहब तो उस पोटली को याद करके अब भी आह भरते हैं मगर मैं उसके बाद भी काग़ज़ काले करने में लगा रहा..,.हज़ारों सफ़े अपने कलम से लिखे होंगे, हज़ारों फाड़े होंगे, पुस्तकें भी एक के बाद एक बीसियों छपीं… पर जब तक किताब लिख नहीं ली जाती और काम पूरा नहीं होता, अन्दर एक आग लगी रहती है.

मेरी थीसिस का विषय था – उर्दू शायरी का तहज़ीबी अध्ययन. तब मैं अपनी थीसिस और भाषा शास्त्र की पढ़ाई में ऐसा उलझा कि कविता-कहानियाँ धरी रह गईं. यों भी विश्वविद्यालय में साथियों से आगे निकलने और अपनी जगह बनाने के लिए अकादमिक अध्ययन और शोधकार्य की बढ़-चढ़कर ज़रूरत थी. और यह काम ऐसा जानलेवा था कि मुझको अपनी वरीयताएँ तय करनी पड़ीं. कोई देखना चाहे तो मेरे सारे काले किए हुए पन्नों में देख सकता है. बचपन के बगीचों की सुन्दरता, भूरी चट्टानों के ऊपर चमकते आसमानों का सायबान, सहगल, बेग़म अख़्तर और नूरजहाँ की आवाज़, एक के बाद एक ज़िंदगी में जाती मोहब्बतों के चर्के-आघात और बचपन की महरूमियों से उबरने के लिए ख़ुद को लिखने-पढ़ने के काम में गुम कर देना…शायद इन बातों का कुछ न कुछ भीतरी रिश्ता है.

मैंने नारंग जी के कविता से दूर होते जाने और उर्दू के प्रति लगाव-खिंचाव का कारण जानना चाहा था. अपनी ताज़ा किताब की बाबत बताते-बताते वे बता रहे हैं –

बँटवारे से पहले… ख़ास तौर पर जिन इलाक़ों में मेरा बचपन बीता यानी बलूचिस्तान, सिन्ध, पश्चिमी पंजाब, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और बिहार तक – आम बोलचाल की भाषा हिन्दोस्तानी कहलाती थी और इसका आधार खड़ी बोली का वह मुहावरा था जो उर्दू की चक्की में पिसा था. भाषाओं का राजनीतिकरण बहुत बाद की चीज़ है. जिस तरह विशेषकर उर्दू और हिन्दी का साम्प्रदायीकरण किया गया, ये सब बाद की बातें हैं. मगरबी इलाक़ों में, मेरे स्कूल की आम भाषा उर्दू ही थी और क्वेटे के गली-कूचों, बाज़ारों में पाकिस्तान बनने से बहुत पहले उर्दू ही बोली और लिखी जाती थी. पिता वेद, पुराण, उपनिषद्‌ संस्कृत में पढ़ते थे.

हमने भी हिन्दी-संस्कृत सीखी. आठवीं क्लास तक मैं भी विद्यार्थी रहा. ‘महाभारत’, ‘रामायण’, ‘योगवाशिष्ठ’ और बाज दूसरी कथाएँ भी घर में पढ़ी जाती थीं, लेकिन इनका मुहावरा नहीं था. कविता या कलाओं के सौन्दर्य की तरफ़ खिंचना या पसन्द-नापसन्द का मामला अपने अख़्तियार का नहीं होता. इसका गहरा सम्बन्ध व्यक्ति के अवचेतन से होता है. दिल की एक बात बताता चलूँ – भाषा ही दरअंसल वह साँचा है जिसमें हम ढलते हैं. हम भाषा को नहीं अपनाते, भाषा ही हमको अपनाती है. हमारे ख़ून में जो मॉलीक्यूल्स हैं, भाषा उनमें खुदी रहती है. गोया ये भी हमारे डी.एन.ए.का हिस्सा है, जिसको हम चाहें भी तो बदल नहीं सकते. हमारी रुचियाँ, हमारे समीकरण, हमारे इश्क, हमारे झगड़े, हमारी मोहब्बतें-नफ़रतें सब होश सँभालने से पहले भाषा के साथ-साथ हमारे अन्दर उगने लगते हैं. मातृभाषा तो सरायकी थी, लेकिन समाजी सम्बन्धों के साथ जो भाषा उगती है, वह भी एक तरह से मातृभाषा जैसी बन जाती है.

…उर्दू मेरे लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता की अमिट निशानी है. भारत की चौबीस क्षेत्रीय भाषाओं में कोई भाषा राष्ट्र भाषा हिन्दी के इतनी निकट नहीं है. न बंगाली, न गुजराती, न मराठी… जितनी निकट उर्दू है. हिन्दी साँस लेती है तो उर्दू में उसकी गूँज आती है, उर्दू साँस लेती है तो हिन्दी में धमक सुनाई देती है. दोनों की रीढ़ की हड्डी एक है. मैं इस बात पर ज़िद करता हूँ कि हिन्दी नहीं तो उर्दू नहीं, उर्दू नहीं तो हिन्दी नहीं. अर्थात्‌ अस्सी फ़ीसदी उर्दू देशज यानी हिन्दी है और खड़ी बोली का मुहावरा, चलन का मुहावरा, उर्दू है.

पाकिस्तान जाकर भी डंके की चोट पर यह बात कहता हूँ कि उर्दू की सबसे बड़ी ताक़त हिन्दी है और हिन्दी वालों से भी स्पष्ट रूप से कहता हूँ कि अगर हिन्दी की उन्नति पूरे राष्ट्र की सम्पर्क भाषा के तौर पर करनी है त्तो यह उर्दू से हटकर मुमकिन नहीं. इस सच्चाई को बार-बार दुहराने में क्या हर्ज़ है? कोई बात इसलिए ही क्‍यों कही या न कही जाए कि कौन-सी लॉबी को अच्छी लगेगी, किसको बुरी? मेरी लॉबी तो हिन्दोस्तान है. मैं भाषाओं में अन्तर नहीं देखता – धरती की करवट और जनता की आह को देखता हूँ.

साहित्य में भी मैं धर्म को नहीं संस्कृति को देखता हूँ. जब साहित्य में लोग वामपन्थ और दक्षिणपन्थ का चक्कर चलाते हैं तो मुझको उनकी नासमझी पर अफ़सोस होता है और उनसे हमदर्दी होती है. राजनीति करने वालों की आइडियोलॉजी और होती है और साहित्यकार की विचारधारा और. यहाँ स्वार्थ और सत्ता नहीं इन्सानियत और कुर्बानी होती है. हाँलाकि मैं अव्वलो-आख़िर एक सोशलिस्ट और सेक्यूलर इन्सान हूँ. लेकिन विचारधारा के आधार पर साहित्य में रियायती नम्बर पाने वाले अमूमन खोटे सिक्के होते हैं. चुनांचे मुझे कहना पड़ता है कि साहित्य में मैं न इस पन्थ को जानता हूँ और न उस पन्थ को जानता हूँ. केवल एक ही पन्थ को जानता हूँ और उसका नाम साहित्य पन्थ है.

क्या आपके मुसलमान न होने ने भी उर्दू अदब की दुनिया में स्थापित होने में आपके लिए रूकावटें-मुसीबतें पैदा कीं?

देर तक चुप रहे. थोड़ा-सा हँसे. फिर उसी तरह बैठे-बैठे बताने लगे – बेशक. ये मेरे संघर्ष का हिस्सा है. जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ा, इसका अहसास भी बढ़ता गया. दिल्लीा कॉलिज में दाख़िला लेते वक़्त न मैं हिन्दू था, न मुसलमान. हालाँकि फ़सादात के घाव और लुट-पिटकर देहली आने के जख़्म ताज़ा थे. जो राजनीति हो रही थी, वह धर्म के आधार पर हो रही थी. लेकिन उर्दू को अपनाते हुए उस वक़्त ये अहसास नहीं होता था कि आगे चलकर यह राजनीति पूरे उपमहाद्वीप में पैर पसारेगी. यह ज़हन तो बाद में बना.

आप सुनकर हैरान होंगे, एम.ए.उर्दू में मैं इकलौता विद्यार्थी था. पहला चर्का उस वक़्त लगा जब प्राचार्य ने ऐलान तो यह कर रखा था कि जो विद्यार्थी अपने विषय में विश्वविद्यालय में अव्वल आएगा उसे कॉलिज में ट्यूटर बना दिया जाएगा, लेकिन मेरे मामले में अव्वल आने पर भी यह उसूल धरा रह गया. मुझसे कहा गया कि खालसा कॉलिज में जगह है, वहाँ अर्ज़ी दो. मरता क्या न करता. मैंने अर्ज़ी दी. बाबा ग्लास हाउस वाले सरदार जी, जिनकी शीशों से जड़ी कोठी बारहखम्भा रोड पर थी, गवर्निंग बोर्ड के चेयरमैन थे. उन्हें मेरा पागलपन अच्छा लगा और मैं अपने बलबूते पर चुन लिया गया.

लेकिन उधर मुझे शिक्षा-विभाग से डॉक्टरेट के लिए स्कॉलरशिप मिल गया. दोनों में तब पचास रुपये का अन्तर था. मैंने घाटा क़ुबूल किया. आज सोचता हूँ कि उसके बाद भी मैं घाटे का ही सौदा करता रहा – ‘अये दिल तमाम नफ़ा सौदा-ए-इश्क में/ इक जान का ज़ियां है, सो ऐसा ज़ियां नहीं.’ मुमकिन है कि मैं तब दो-चार सौ रुपये ज़्यादा कमा लेता, लेकिन आलोचना के लिए अपनी अकादमिक नींव न रख सकता – जो फ़ुर्सत के तीन साल लाइब्रेरियों में बिताने से मैं रख पाया. यह सोचकर भी हैरानी होते है कि उस ज़माने में जब उर्दू तेज़ी से हाशिये पर जा रही थी, सेंट स्टीफेंस कॉलिज में केवल डेढ़-दो वर्ष पढ़ाने के बाद मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय में लेक्चरर की जगह मिल गई.

मैंने सब छोड़कर भाषा विज्ञान में दाख़िला ले लिया. विश्वविद्यालय में आए रूसी-अमेरिकी विद्यार्थियों को मैंने जी-जान से पढ़ाया. एक ही साल में मुझे तीन बुलावे मिले — मास्को से अनुवाद के काम के लिए, ब्रिटिश काउंसिल से कॉमनवेल्थ फैलोशिप और विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय अमेरिका से विज़िटिंग लेक्चररशिप. चूँकि मुझे पढ़ाने में बहुत आनन्द आता था और यह सोचकर कि वहाँ अच्छी से अच्छी पुस्तकें ख़रीद भी सकूँगा और साथ भी ला सकूँगा, मैँने विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय की दावत को मंज़ूर कर लिया.

वहाँ मैं गया तो एक सेमेस्टर के लिए था मगर दो साल रोक लिया गया. इस दौरान भाषा विज्ञान के अध्ययन को भी मैंने आगे बढ़ाया और डट के अँग्रेज़ी व यूरोपीय साहित्य के अध्ययन की वह कमी पूरी की, जिसका मौक़ा इससे पहले नहीं मिला था. जो बातें पहले पूरी तरह समझ में नहीं आती थीं, वे कुछ साफ़ होने लगीं. साहित्यिक सिद्धान्तों और कविता का अध्ययन भी मैंने यहीं किया. बीच में दो साल दिल्ली आया फिर वापस बुला लिया गया. यों तिरेसठ से सत्तर तक मैं विस्कॉन्सिन में रहा.

यह भी बताता चलूँ कि भारत की धरती से दूर होने पर एक पर्सपेक्टिव हाथ आया. अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति, अपनी साहित्यिक परम्पराओं और उनके आधार पर दर्शन को समझने-समझाने का अजीबोग़रीब मौक़ा मिला. रफ़्ता-रफ़्ता ज़ेहन साफ़ हो गया, अपनी चीज़ों की क़द्र बढ़ गई. इस पर यक़ीन मुश्किल से आता है, लेकिन सचाई यही है कि जड़ों की यही पकड़ और कशिश मुझे सन्‌ 70 में वापस ले आई. हालाँकि दिल्ली विश्वविद्यालय मैं मेरी पोजीशन सिर्फ़ रीडर की थी, जबकि विस्कॉन्सिन में मैं सत्तर तक प्रोफ़ेसर हो चुका था, मुझको ग्रीन कार्ड की पेशकश थी.

जब 70 में मैंने अपनी मामूली आमदनी पर दिल्ली वापस आने का फ़ैसला किया तो बाज दोस्त चकित रह गए. याद रहे यह घाटे का एक और सौदा था. डॉ. खुराना विस्कॉन्सिन में मेरे पड़ोसी थे. ताज़ा-ताज़ा नोबल पुरस्कार मिला था तब उन्हें. एक पार्टी में, जिसमें डॉ. खुराना भी थे, चर्चा चलने पर मैंने एक मित्र से कहा था – अगर मैं डॉ. खुराना के दर्जे का वैज्ञानिक होता तो ज़रूर यहीं रह जाता. मेरी लैबोरेट्री भारत में है. मैं भाषा-साहित्य और संस्कृति का मामूली आदमी हूँ. इनसे कटकर मेरी हैसियत ग्लास हाउस के पौधे मात्र की है.

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