चिनहट युद्ध के बारे में चेतना इतिहास के लिए ज़रूरीः राजगोपाल सिंह

ऐतिहासिक घटनाओं पर, ख़ासतौर पर 1857 की क्रांति और मध्ययुगीन इतिहास के अनछुए और अल्पचर्चित प्रसंगों पर लिखने वाले राजगोपाल सिंह वर्मा की नई किताब ‘चिनहट 1857: संघर्ष की गौरव गाथा’ के संदर्भ में उनसे यह बातचीत वरिष्ठ पत्रकार अनिल शुक्ल के सौजन्य से…

इतिहास के ऐसे विषयों पर लिखना थोड़ा मुश्किल लगता है, ख़ासतौर पर जिनसे जुड़े प्रामाणिक संदर्भ कम ही उपलब्ध हों. ‘चिनहट 1857: संघर्ष की गौरव गाथा’ लिखते हुए आपका तजुर्बा कैसा रहा?

यह सही है कि इस किताब को लिखने के लिए प्रमाणिक तथ्यों की बहुत कमी रही. ईस्ट इंडिया कंपनी के अफ़सरों, उनके परिजनों और उनके पक्ष के लोगों की अपनी गाथाओं को लिखने पर कोई रोक नहीं थी, पर जब हमारे देश में फिर से ईस्ट इंडिया कंपनी-ब्रिटिश राज कायम हुआ, तो इस क्रांति का उल्लेख करना भी अपराध बन गया था. इसलिए भारतीय इस युद्ध का अपना कोई पक्ष नहीं लिख सके. ऐसे में जो भी सामग्री है वह विभिन्न संदिग्ध और पूर्वाग्रही स्रोतों से ही जुटाकर लिखने की, ताना-बाना जोड़ने की कोशिश की गई है. इससे एक असहजता यह हुई है कि उन भारतीय वीरों की गाथाएं ढंग से और वास्तविक रूप में हम लोगों के सामने नहीं आ सकीं, जिन्होंने अवध के स्वतंत्रता संग्राम में फ़िरंगियों को मात देकर फिर से अपना प्रभुत्व कायम करने में सफलता पाई थी. उनमें से तमाम लोग अब भी अनाम हैं, विस्मृत हैं, पर वे हमें हमारा सुखद भविष्य बनाने में अपनी आहुति देकर विदा हुए हैं, यह तथ्य अपनी जगह सुस्थापित है. फ़िरंगी हुक़ूमत के विरुद्ध इन वीरों के युद्ध, शौर्य और बलिदान की गाथाओं को खोज कर उन्हें लिपिबद्ध करने की कोशिशें गंभीरता से जारी रहनी चाहिए.
चिनहट के संग्राम के इस घटनाक्रम में क्रांतिकारी बरकत अहमद के साथ 22वीं बंगाल नेटिव इंफेंट्री के सिपाही, अवध के अपदस्थ बादशाह वाज़िद अली शाह के सैनिक, अवध इररेगुलर इंफेंट्री के लोग भी शामिल थे. वीरांगना उदा देवी के पति मक्का पासी की यहीं शहादत हुई थी. साथ ही थीं महोना, अयोध्या और आसपास के अन्य ताल्लुकेदारों की छोटी-छोटी सैनिक टुकड़ियां.

इतिहास के गुमनाम नायकों और वाक़यों पर आप लिखते ही रहे हैं. आपकी यह किताब भी चर्चा में है. इसे लिखना आपको किस हद तक संतोष देता है?
अभी पिछले हफ़्ते ही मुझे लखनऊ की एक विदुषी डॉ. कृष्णलता सिंह की एक मेल मिली, जो लखनऊ विश्वविद्यालय से पीएचडी हैं, और सेना से अवकाश प्राप्त अपने पति ब्रिगेडियर रणवीर सिंह के साथ गुड़गांव में रहती हैं. लंबी मेल है, पर उसकी शुरुआत इस तरह है–

इतिहास वह अनोखा झरोखा है, जिससे झांककर हम कालक्रम से निबद्ध अपने स्वर्णिम अथवा धूलधूसरित व भूलुंठित अतीत को देख सकते हैं. इतिहास अपने में समेटे होता है- हमारे राजनैतिक उत्थान और पतन के दस्तावेज़, सांस्कृतिक उत्कर्ष और अपकर्ष की अनगिनत कहानियाँ, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों को स्वीकारता अथवा नकारता जनादेश. उत्कर्ष और उत्थान को देखकर हमारा सीना गर्व से तन जाता है. दूसरी तरफ पतन और अपकर्ष पढ़कर थोड़ा नैराश्य उपजता है. परन्तु उसी नैराश्य से प्रकाश की किरणें फूटती हैं. अतीत की भूलों से सबक लेकर उन्हें भविष्य में न दोहराने के संकल्प के साथ भविष्य की संरचना होती. लेकिन यह सब तभी सार्थक होता है, जब इतिहास पूरी सच्चाई, ईमानदारी और प्रतिबद्धता के साथ उजागर किया गया हो. इतिहासकार तटस्थ भाव से, बिना किसी दबाव, विद्वेष अथवा पूर्वाग्रह से घटनाओं का आंकलन करे और सही तस्वीर सामने रखे. यही प्रामाणिक ऐतिहासिक तथ्य जब साहित्यकार की कलम से अभिव्यक्त हो, तो उसे ‘मणिकञ्चन’ संयोग कहा जायेगा. इसी ‘मणिकञ्चन संयोग’ का आस्वादन श्री राजगोपाल सिंह वर्मा द्वारा लिखित पुस्तक ‘संघर्ष की गौरव गाथा-चिनहट 1857’ कराती है, जो इस विषय पर पहली पुस्तक है.

पुस्तक की प्रस्तावना और कुछ पृष्ठ पढ़ने के पश्चात ही मुझे अपने आप पर लज्जा आने लगी कि मैं चिनहट की इतनी गौरवमयी ऐतिहासिक घटना से अब तक अनभिज्ञ कैसे रही? कई बार स्कूल-कॉलेज से चिनहट पिकनिक मनाने गयी. कठौता झील की सुन्दरता को आँखों में उतारा. चिनहट की रंग-बिरंगी पॉटरी खरीदने भी वहाँ गयी. फ़ुरसत के पल लखनऊ रेजीडेंसी में बिताये, कुकरैल के तटबंध पर भी ख़ूब घूमी, लेकिन असल बात को जाना ही नहीं कि यहाँ की मिट्टी के कण-कण में शौर्य और वीरता की कहानियाँ दबी पड़ी हैं, जो बाहर आने के लिये आतुर हैं. अब तक इन विषयों पर कहीं कुछ खुलकर लिखा ही नहीं गया है. सच बात तो यह है कि अंग्रेज़ अपनी पराजय की कहानी अपने आप दर्ज क्यों करते? वह तो महान विजेता थे. पराजय की कहानी लिख देने से उनका दर्प टूटकर बिखर न जाता! भारतीय इतिहासकारों ने सम्भवतः अंग्रेज़ों के डर और हालात से विवश होकर मौन रहना उचित समझा होगा. अस्तु श्री राजगोपाल सिंह वर्मा जी का हार्दिक धन्यवाद, जिन्होंने चिनहट और लखनऊ के विस्मृत इतिहास की गौरवशाली रोमांचक गौरव गाथा को उजागर किया और हम सब लोगों तक पहुँचाने का अथक प्रयास किया है.

चिनहट की इस लड़ाई के बारे में संक्षेप में कुछ बताएं, और यह भी कि इसने इतिहास को किस तरह प्रभावित किया?

चिनहट-इस्माइलगंज कुछ वर्षों पहले तक बाराबंकी की सीमा से सटा हुआ लखनऊ का एक सोता हुआ-सा ग्रामीण इलाक़ा भर हुआ करता था. पर स्थितियाँ बदला करती हैं, और पिछले कुछ सालों में ये अपेक्षाकृत तेज़ी से बदली हैं. इस ग्रामीण इलाक़े को आधुनिकीकरण की आंधी ने लील लिया है. यह ऐसे रौनक वाले इलाक़े में तब्दील हो गया है, जहाँ अब अत्याधुनिकता के प्रतीक, शानदार रेसॉर्ट्स, आरामदेह होटलों, ऊंची-ऊंची आवासीय तथा व्यापारिक परिसरों की इमारतों, शॉपिंग मॉल्स, महंगी गाड़ियों के शो-रूम और चौड़े हाइवे-फ्लाईओवर तो मौजूद हैं ही, इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ का नया और आधुनिकतम सुविधाओं से सज्जित परिसर भी यहीं बना है.

पर इस चकाचौंध में जो जगह गुम हो गई है, वह यहाँ का औद्योगिक क्षेत्र नहीं, न ही रंग-बिरंगी पॉटरी का केंद्र रहा चिनहट का कोई एक छोटा हिस्सा है. वह ऐसी घटना है, जिसे कोई नहीं जानना चाहता. उसकी जानकारी का कोई प्रभावी स्मृति चिन्ह यहाँ मौजूद नहीं है, जो भी है वह एक औपचारिकता कही जा सकती है. यह घटनाक्रम है चिनहट में 30 जून 1857 को हुई ईस्ट इंडिया कंपनी के सैन्य बलों का भारतीय विद्रोही सैन्य बलों से युद्ध. यह वह युद्ध था, जिसने न केवल ब्रिटिश पक्ष को भारतीय विद्रोही बलों के जुनूनी सैनिकों और स्थानीय लोगों ने करारी और शर्मनाक हार दी थी, बल्कि उनको अगले कई महीनों तक हर पल मौत के साये में गुज़ारने जैसी घेराबंदी में रहने को मजबूर किया था. तब ईस्ट इंडिया कंपनी के न जाने कितने अफ़सर और उनके परिजन भूख से, बीमारी से, अवसाद से और बाहर जमे विद्रोहियों के सैन्य बल की गोलाबारी से हताहत हो गए थे.

इस क्रांति को घटित हुए 165 वर्ष हो गए हैं, पर अभी तक इसकी सारी घटनाओं और परिस्थितियों का सामाजिक, यौद्धिक और दूसरे कारकों का व्यापक विश्लेषण नहीं किया जा सका है. यह सब जानते हैं कि अवध की राजधानी लखनऊ में ईस्ट इंडिया कंपनी के वरिष्ठ अधिकारियों की रेजीडेंसी में हुई लंबी घेराबंदी इस कालखंड की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना है, पर जिस युद्ध ने इस घटना की तात्कालिक परिस्थितियाँ बनाईं, जहाँ ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना की भयावह और शर्मनाक पराजय हुई, उसे भारतीय इतिहास ने विस्मृत कर दिया, जबकि वह देश के विद्रोही सैन्य बलों और स्थानीय लोगों के संघर्ष की गौरव गाथा है. उस हार ने कंपनी के सैन्य बलों और फ़िरंगी अभिमान के प्रतीकों को नेस्तनाबूद कर दिया गया था, भारतीय तथाकथित विद्रोही पक्ष के जुनून को युद्ध के मैदान में बहुत अनुशासित तरीके से फ़िरंगियों के ऊपर हावी होते देखा था. आख़िरी समय तक ब्रिटिश पक्ष के उच्चाधिकारी यह समझ ही नहीं पाए कि चिनहट का युद्ध उनके लिए विजय की नहीं, एक बड़ी पराजय की कहानी लिख देने का प्रारब्ध लिए हुए आया है.

इस लड़ाई की पृष्ठभूमि में दरअसल क्या था, कुछ विस्तार से बताएं?
यह युद्ध इतनी अल्प अवधि का था (मात्र कुछ ही घंटों का) कि पूर्वाह्न नौ बजे से लेकर 11 बजे तक ईस्ट इंडिया कंपनी की तोपों, हाथियों, घोड़ों और हथियारों से सज्जित इस सेना के बचे हुए लोग बुरी तरह पराजित होकर रेजीडेंसी की ओर भागने और स्वयं को सुरक्षित करने में लग गए थे. यह उनकी पूर्ण और निर्णायक पराजय थी, पर ईस्ट इंडिया कंपनी के ज़िम्मेदार लोगों ने इस तथ्य को कभी स्वीकार नहीं किया. दु:खद यह भी है कि भारत के इतिहासकारों और साहित्यकारों ने भी आज़ादी की इस पहली लड़ाई के घटनाक्रम पर कोई ध्यान ही नहीं दिया, इसलिए आमजन आज भी इस युद्ध से अपरिचित हैं.

चिनहट का युद्ध अचानक नहीं हो गया था. इसके लिए उसी तरह की परिस्थितियों का निर्माण हो रहा था, जैसे 10 मई को मेरठ के विद्रोह के पीछे विकसित हुई घटनाएं ज़िम्मेदार थीं. अगर सब कुछ ठीक से चलता रहता, तो न कोई क्रांति होती, और न ही लोगों को कोई शिकायत. फ़िरंगी शासन करते रहते और यहाँ के संसाधनों का दोहन कर हमें अंधेरे युग में धकेलते रहते. वे हमारे प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए आकंठ भ्रष्ट आचरण में डूबने, स्थानीय लोगों के लगातार उत्पीड़न के साथ-साथ यहाँ के निवासियों की भावनाओं के प्रति भी दुस्साहसिक रूप से असंवेदनशील हो चुके थे. ऐसे में चिनहट के रूप में इन्हें अवध के लोगों और उनकी अपनी सेनाओं के स्थानीय सैनिकों के आक्रोश का सामना तो करना ही था. चिनहट के इस युद्ध से पूर्व की परिस्थितियों और उसके बाद के घटनाक्रम को समझना भी जरूरी है. इसीलिए इस पुस्तक में वह विवरण भी दिया गया है जो एकबारगी इस घटनाक्रम से असंबद्ध लगता है, पर वह चिनहट के युद्ध का एक मज़बूत कारक रहा है, जिसे समझे बिना इस युद्ध को समझना उचित न होगा.

कहते हैं कि चिनहट के लोगों ने ब्रिटिश सेना के लोगों के साथ युद्धरत रहते हुए भी मानवीयता भरा व्यवहार किया था?

जी, बिल्कुल.

इस युद्ध से एक बात महत्त्वपूर्ण रूप से उभर कर आई थी. स्थानीय लोगों ने अपनी सांस्कृतिक विरासत और संस्कारों के अनुरूप सिद्ध कर दिखाया था कि वे किसी भी आक्रांता के विरुद्ध जी-जान से लड़ने को तैयार हैं, पर मानवीयता उनके मानस का अटूट हिस्सा है, उनके वज़ूद में आत्मसात है, वे उससे भी पीछे नहीं हटने वाले. यही कारण था कि जब चिनहट के युद्ध में फ़िरंगियों ने हार के बाद हड़बड़ाहट में रेज़ीडेंसी की तरफ वापसी की तो लुटी-पिटी अवस्था में, जून की तपती गर्मी में उन भूखे-प्यासे अफ़सरों और सैनिकों को दूध-पानी पिलाने, उनकी सेवा-सुश्रूषा करने, खाद्य सामग्री उपलब्ध कराने में आम लोगों ने जो संवेदनशील भावनाएं दिखाईं, वे इन तथाकथित शिक्षित और आधुनिक, परंतु असंवेदनशील फ़िरंगियों के लिए आँखें खोल देने वाली घटनाएं थीं.

फ़िरंगियों के खिलाफ धीरे-धीरे लखनऊ ही नहीं, पूरे अवध प्रांत का माहौल कुछ इस तरह से आक्रोशित हो चला था कि यहाँ का हर इन्सान जन भावनाओं के सम्मान में ईस्ट इंडिया कंपनी की सत्ता का विरोध करने को सक्रिय हो चला था. फिर बात राष्ट्रीय गौरव और अस्मिता की भी आ ठहरी थी. शहर और गाँवों के हर किसी बाशिंदे को इस सत्ता से शिकायत थी. मूल बात यह थी कि जन-मानस ने अच्छी तरह समझ लिया था कि ये लोग व्यापारियों के चोले में आए आक्रांता हैं और हम यहाँ के मूल निवासी, इस सांस्कृतिक और सामाजिक धरोहर के संरक्षक! हमारी ज़मीन और हमारे संसाधनों पर किसी विदेशी शक्ति का प्रभुत्व भला क्यों कायम रहे? चिनहट उसी असंतोष की एक आक्रामक अभिव्यक्ति थी.

तो क्या अंग्रेज़ों ने अपनी इस हार को स्वीकार भी किया था?

ब्रिटिश पक्ष जब भी 1857 की बात करता है तो वे लोग भारतीय विद्रोहियों के विरुद्ध अनेक किस्से-कहानियाँ और अपनी वीरता के बखान किया करते हैं, परंतु चिनहट की हार को वे मात्र एक छोटी-सी घटना, जो उनके आकलन की कमी से उनके विरुद्ध चली गई थी, कह कर ख़ारिज कर देते हैं. पर यह आपको सोचना है कि क्या यह बात सही है! उपलब्ध रेकॉर्ड्स और स्वयं उस समय रेज़ीडेंसी में निवास कर रहे अधिकारियों और उनके परिवारों के ब्रिटिश लोग भी इस विषय में एक अलग ही कहानी बताते हैं. कई ब्रिटिश लेखक और उस दौर के प्रत्यक्षदर्शी भी स्वीकार करते हैं कि चिनहट की हार उनकी रणनीतियों की असफलता तो थी ही, वह भारतीय विद्रोहियों के सैन्य बल के बेहतरीन सामंजस्य का परिणाम थी. उनमें से एक कहते हैं,
“हमारी फ़ौजें नुकसानदेह स्थिति में फंस गई थीं. हमें भाग कर अपनी जान बचानी पड़ी. फिर भी दो सौ से अधिक लोग मारे गए और अनगिनत घायल हुए थे. भारतीय विद्रोही हमसे कहीं बेहतर तरीके से यह युद्ध लड़े.”

सच बात यह है कि 1857 के भारतीय स्वतंत्रता इतिहास के प्रथम संग्राम के इस युद्ध में जिस ज़ोरदार ढंग से फिरंगियों को घेरा गया, उसका उदाहरण न कभी पहले मिला, न बाद में. इस दृष्टि से यह घटनाक्रम स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम चरण का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है. बरकत अहमद के नेतृत्व में, इस्माइलगंज गाँव के मैदान में सबसे पहले ब्रिटिश सैनिकों पर गोलियां चलाईं गई, जिससे दुश्मन के कई सैनिक मारे गए और देखते ही देखते बाज़ी भारतीय विद्रोहियों के हाथों में आ गई. काफी कशमकश के बाद तब ब्रिटिश अधिकारियों ने अपनी सेनाओं को पीछे हटने का आदेश दिया था.

आज़ाद देश में इस युद्ध के नायकों को उनका दाय देने के लिए क्या कुछ हुआ है?

इस लड़ाई में लगभग 175 भारतीय योद्धा भी शहीद हुए थे. इन जुझारू योद्धाओं की स्मृति में चिनहट की कठौता झील के निकट के एक स्थल पर 1973 में भारत सरकार ने एक छोटे-से शहीद स्मारक का निर्माण कराया था. एक किनारे में सरकारी उदासीनता और लोगों की अज्ञानता से उपेक्षित यह छोटा-सा स्मारक वीरान पड़ा है. यह बात किसी भी प्रबुद्ध नागरिक की समझ से परे है कि क्यों उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के चिनहट अथवा आसपास के इलाके में उन जुझारू लोगों की वीरता का एक विशाल स्मारक नहीं बनाया जा सकता? आखिर यह वह गाथा थी, जिसने ईस्ट इंडिया कंपनी के राज को उखाड़ फेंकने का ऐसा आग़ाज किया था, जिससे उत्तर भारत में एकबारगी ब्रिटिश सत्ता वास्तव में डगमगा गई थी. वह भी तब जब इस युद्ध से हार कर भागी ब्रिटिश सैन्यबल के इन हादसे में मारे गए लोगों और तत्कालीन चीफ़ कमिश्नर का विशाल स्मारक प्रमुखता से स्थापित किया गया हो. किसी किनारे एक उपेक्षित जगह पर छोटा पत्थर भर लगा देने भर से इन वीरों को श्रद्धांजलि देने की कवायद पूरी नहीं हो जाती, यह तो हमारे इतिहास की गौरव गाथा है, इसलिए इसे विस्तार से जानने और इसका एक उत्कृष्ट स्मारक बनाने को राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़कर देखा जाना चाहिए.

हमको देश के एक सजग नागरिक के नाते ग़ुलामी की बेड़ियों के जंजाल के उस चुनौतीपूर्ण समय से निकलकर मुक्त हुए पुरखों के इन क्रांतिकारी कदमों की जानकारियाँ प्राप्त करने की चिंता होनी चाहिए. यह हमारा अधिकार भी है और कर्तव्य भी कि इस घटनाक्रम को समझें और चिनहट की गौरव गाथा के अब तक अनाम रहे उन नायकों के प्रति अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करें. ये वे लोग थे जो किसी व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं, देश की अस्मिता के लिए लड़े थे. अगर चिनहट के युद्ध से उपजी सफलता में वे इस घटनाक्रम के अंत तक विजयी रहते तो देश निश्चित रूप में 90 वर्ष पूर्व आज़ाद हो जाता, पर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाया. फिर भी, उन योद्धाओं का यह बड़ा योगदान था कि उन्होंने इस देश को ग़ुलामी की ज़ंजीरों से मुक्त कराने के लिए उस कठिन समय में संघर्ष किया, जब विदेशी आक्रांता अपनी शक्ति के उत्कर्ष पर थे और उससे किसी युद्ध अथवा टकराव में असफल होने का अर्थ था अपनी ज़िंदगियों से हाथ धो बैठना.

(राजगोपाल सिंह वर्मा की प्रमुख किताबों में ‘किंगमेकर्स’ ‘गोरों का दुस्साहस’, ‘औपनिवेशिक काल की जुनूनी महिलाएँ’, ‘1857 का शंखनाद : उत्तर दोआब के लोक का संघर्ष’ (उपन्यास),‘जाने वो कैसे लोग थे:1857 के क्रांतिकारी’ ‘बेगम समरू का सच’, ‘दुर्गावती:गढ़ा की पराक्रमी रानी’, ‘जॉर्ज थॉमस:हांसी का राजा’, ‘द लेडी ऑफ़ टू नेशन्सः लाइफ़ एण्ड टाइम्स ऑफ़ राना बेगम'(जीवनी) के साथ ही उपन्यास और कहानी-संग्रह भी प्रकाशित हैं)


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