शह्रयार | इक ऐसी शै का क्यूं हमें अजल से इंतज़ार है

ज़माने में बहुतेरे लोग ऐसे हैं, जिनके लिए ‘उमराव जान’ या ‘गमन’ की ग़ज़लें ही शह्रयार की पहचान हैं. यों ख़ुद शह्रयार अपनी इस पहचान पर ख़ुश लेते थे मगर अदब, इतिहास, इंसान और अपने दौर के मसाइल पर उनकी निगाह बराबर रहती.‘बातों-मुलाक़ातों में शह्रयार’ में शामिल उनकी इस बातचीत से ज़ाहिर होता है कि अदब के दायरे से बाहर तमाम चीज़ें उनके ग़ौर-ओ-फ़िक्र का हिस्सा रहीं. इस बातचीत के कल छपे हिस्से का लिंक नीचे दिया गया है. -सं.

  • आपके बारे में कहा जाता है कि आपने अपने लेखन में हिंदी-उर्दू के बीच एक पुल बनाया है? आप हिंदी में भी काफ़ी लोकप्रिय हैं. आपकी लोकप्रियता में फ़िल्मों के गीतों की क्या भूमिका है? आप अपनी उपलब्धियों और देश के वर्तमान हालात पर क्यां कुछ कहना चाहेंगे?

मैं हिंदी या उर्दू को नहीं लिख रहा, बल्कि उन लोगों के लिए लिख रहा हूँ जो यूपी में -ख़ासतौर से उर्दू भाषा-भाषी हैं, पर स्क्रिप्ट नहीं जानते. उन लोगों के लिए जिनकी मातृभाषा उर्दू नहीं है, पर मेरी शायरी पसंद फरते है. मेरे शेर सुनकर, मुझसे मिलकर बहुत ख़ुश होते हैं, मुझे प्यार देते हैं. हिंदी में ज़्यादा पॉपुलर होने की बात यह है कि वे छापते हैं, पैसे देते हैं, इज़्ज़त देते हैं, मानते हैं. उर्दू में ख़ुद छापनी पड़ती हैं किताबें. मेरी ज़िंदगी में फ़िल्म के मेरे गीतों ने बहुत अहम् रोल अदा किया है. मैं अपनी लिट्रेरी अहमियत की वजह से फ़िल्म में गया. फिर आम स्तर पर फ़िल्म की वजह से लिट्रेचर में मेरी अहमियत बढ़ी.

पहले इस बात पर मैं शर्मिंदा होता था, अब ख़ुश होता हूँ. ऊपर वाले की मेहरबानी है, मुझे हर चीज वक़्त से पहले मिली. मुझे कोशिश नहीं करनी पड़ी. जिस तरह और जितना मिला, मैं सैटिसफाइड हूँ. वैसे कुछ ज़्यादा ही मिला है. मुझे चीज़ों के पीछे भागना नहीं पड़ा, कोई छोटी हरकत नहीं करनी पड़ी. दुनिया बहुत अच्छी है और उसमें अच्छे लोग ज़्यादा हैं. मुहब्यत, शोहरत, दौलत, इज्जत, बच्चे आदि, आदमी जो ख़्वाहिश कर सकता है, मुझे ख़ूब मिला. वैसे आप यह जानते हैं कि पूरी तरह कोई मुतमईन नहीं होता. शायद आदमी के ज़िंदा रहने को ज़रूरी है कि वह किसी चीज़ की ख़्वाहिश करता रहे, किसी चीज़ की कमी महसूस करता रहे –

न जिसकी शक्ल है कोई, न जिसका नाम है कोई,
इक ऐसी शै का क्यूं हमें अजल से इंतज़ार है.

जहाँ तक देश की सूरतेहाल का सवाल है, तो जैसे मुल्क का फ़्यूचर तय हो रहा है, रिफ़ॉर्म्स के नाम पर जैसे जो हो रहा है और आम आदमी को कुछ नहीं मिल रहा, हम खुली आँखों से देख रहे हैं और अपने को बेबस महसूस करते हैं. ईस्ट इंडिया कंपनी दूसरी तरह से आ रही है. आम आदमी को सच्चाइयों से दिन-प्रतिदिन दूर किया जा रहा है. लेकिन हिंदुस्तान के बारे में मेरा जो अनुभव है वह यह कि वह पाखंड को बहुत दिनों तक बर्दाश्त नहीं करता. यहाँ लोग शोर नहीं मचाते, लेकिन जब फ़ैसले का वक़्त आता है, तो सच्चे और अच्छे फ़ैसले करते हैं. मेरा यह ईमान मुझे फ़्यूचर से मायूस नहीं होने देता. मुझे यक्रीन है कि आने वाली जेनरेशन को वह कुछ नहीं देखना पड़ेगा, जो हम देख-सह रहे हैं –

आज का दिन बहुत अच्छा नहीं, तस्लीम है,
आने वाला दिन बहुत बेहतर है, मेरी राय है.

  • आपको ‘उमराव जान’ के गीतों के कारण बेहद ख्याति मिली थी. उसके बाद आपने कुछ अन्य फ़िल्मों के लिए भी गीत लिखे हैं. फ़िल्म जगत के आपके अनुभव कैसे रहे हैं? भविष्य में क्या कुछ और फ़िल्मों के लिए गीत लिखने के प्रस्ताव अथवा कोई योजना आपके पास है? फ़िल्मों के लिए लिखते समय आप स्वयं को कितना समर्थ और अनुकूल मानते हैं?

मुझे ज़िंदगी में बहुत सी चीज़ें फ़िल्म के गानों की मक़बूलियत से मिलीं. मसलन मैं ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट जाता हूँ, तो मुझे लाइन में खड़ा नहीं होना पड़ता. वहाँ कार्ड बिना डॉक्टर को दिखाता हूँ और वह बहुत ख़ुशी से मेरा मुआयना करते हैं. ट्रेन या हवाई जहाज में रिज़र्वेशन का मसला हो, एएमयू की एग्ज़िक्यूटिव या कोर्ट के इलेक्शन का मसला हो, ‘उमराव जान’ के गानों ने हमेशा मेरी मदद की है. दूरदराज़ मुल्कों में जो मुशायरों को बुलाया जाता है तो उसमें यही इन्ट्रोडक्शन काफ़ी होता है कि ये ‘उमराव जान’ के गीतों के लेखक हैं. मेरे बच्चों से अक्सर हर जगह यह सवाल किया जाता है कि आप उन्हीं शह्ररयार के बच्चे है. जिन्होंने ‘उमराव जान’ के गाने लिखे हैं. मैं अवाम की पसंद की अहमियत का हमेशा क़ायल रहा हूँ. अगर कोई किसी को पसंद करता है तो उसमें कुछ न कुछ अच्छा ज़रूर है. नासिर काज़मी का एक मिसरा है – ’कुछ होता है जब फ़लके ख़ुदा कुछ कहती है.’ मक़बूलियत की अपनी जगह है.

‘उमराव जान’ के बाद मुजफ्फ़र की ‘अंजुमन’ के लिए लिखे. फ़िल्म बनी, जिसका वीडियो कैसिट रिलीज़ हुआ, सिनेमा हॉल में रिलीज़ नहीं हो पाई. यश चोपड़ा की ‘फ़ासले’ को लिखे, जो इत्तिफ़ाक से बॉक्स ऑफ़िस पर फ़्लॉप हो गई. मुज़फ्फ़र की ही एक फ़िल्म पोइटेस अब्बा ख़ातून की जिंदगी पर ‘जूनी’ नाम से बनी. कश्मीर के हालात और डिस्टर्बेंस की वजह से सात-आठ रील बनीं, आगे नहीं बढ़ पाई. सारे गाने मेरे थे. ‘दामन’ में गीत लिखे, ख़ासा चर्चा था उन गानों का. मेरा एक उसूल है कि मैं किसी ऐसी फ़िल्म में गाने नहीं लिख सकता, जिसमें गाना कहानी का पार्ट न हो और जिसमें पोयट्री की गुंजाइश न हो. मुझे उम्मीद है कि ऐसी फ़िल्में नीयर फ़्यूचर में बनेंगी और मैं उनमें गाने लिखूँगा.

मेरे फ़ादर पुलिस इंस्पेक्टर थे. उनका कहना था कि यह तो आदमी को मालूम नहीं हो पाता कि वह क्या कर सकता है, लेकिन यह बहुत आसानी से मालूम हो जाता है कि वह क्या नहीं कर सकता. जब यह मालूम हो जाए तो ऐसा काम करने के बाद सिवाय जिल्लत के कुछ नहीं मिलता. मालूम है आसान है गाकर पढ़ना, चीखकर गाना. मैं उनके ख़िलाफ़ नहीं हूँ, पर मैं नहीं लिख सकता, मैं नहीं लिखना चाहता. वहाँ निनन्यानबे प्रतिशत गाने धुनों पर लिखे जाते हैं. फ़ौरन वहीं पर. हम नहीं लिख सकते. बहुत दिनों से यह काम हो रहा है. साहिर वगैरह बहुत लोगों ने लिखे. लगता है जैसे कफ़न तैयार है अब मुर्दा तैयार कीजिए. जब तक हम कहानी-कैरेक्टर का हिस्सा न बना लें गीत कैसे लिखें? क्रिएटिव प्रॉसेस इंटरकोर्स से मिलता-जुलता है. उसको प्राइवेसी ज़रूरी है. हम दनादन धुन पर तुरंत नहीं लिख सकते.

पिक्चर को मन इसलिए होता है कि उस मीडिया का इफ़ेक्ट है. हमारी बहुत-सी बातें जो वैसे नहीं पहुँच रहीं, वहाँ से पहुँचें. हमने उस मीडियम को अपनी आयडोलॉजी के लिए इस्तेमाल किया है. हमें खड़े होने के लिए सही जगह मिलनी चाहिए, हम उनके सारे रिक्वायरमेंट्स पूरे कर सकते हैं. मेरे अनुभव बहुत अच्छे रहे हैं वहाँ के. हमें हमेशा यह अहसास रहा कि हम यूनिवर्सिटी के नौकर हैं. हमने मुशायरों-फ़िल्मों के लिए छुट्टियाँ ज़ाया करना ज़रूरी नहीं माना. बाहर के ऑफ़र्स उन दिनों अवाएड करते रहे. अब रिटायरमेंट के बाद हम वक़्त देना एफ़ोर्ड कर सकते हैं. टीचर होकर आदमी बहुत से कामों का नहीं रहता. हज़ारों सलाम मिलते हैं, आप वहाँ जाकर किसे सलाम करेंगे.

  • कई बार हिंदी को ‘थोपने’ की बात बड़े ज़ोर-शोर से की गई है. आज के हालात में हिंदी-उर्दू के पारस्परिक संबंधों पर आप क्या सोचते हैं? हिंदी-उर्दू के बीच की दूरी को बढ़ाने व कम करने वाली ताक़तों को आप किस रूप में देखते हैं तथा उर्दू का भारत में आपको भविष्य कैसा दिखता है?

हिंदी को कोई थोप नहीं रहा किसी पर. हिंदी वालों का एटीट्यूड इस बीच काफ़ी बदला है. हिंदी के समझदार लोगों का ख़याल है कि उर्दू के साथ न्याय होना चाहिए. यह टिपिकल हिंदुस्तानी ज़बान है. इसका मुसलमानों और पाकिस्तान से लेना-देना नहीं है. सारे साउंड्स हिंदी के हमारे यहाँ हैं. पर्शियन और अरबी से जो हमें सूट नहीं करता था, हमने नहीं लिया. हमारे अल्फ़ाबेट्स में उनका वही हिस्सा है, जो हमें सूट करता था.

आम लोग जो बोलते हैं, उसे स्टैंडर्ड हमने माना. ऐसे साउंड्स या लफ़्ज़, वे भले ही ग़लत हों, चूँकि मेजॉरिटी बोलती है, इसलिए हमने उन्हें एक्सेप्ट किया. हम पर्शियन और अरबी के बिना लिखते हैं और कामयाब होते हैं. फ़िल्मों में जो दिखाया जाता है, वहाँ हिंदू-मुसलमान जो भाषा बोलते हैं, ऐसा हक़ीक़त में नहीं हुआ कभी. हिंदुस्तान में जो स्टैंडर्ड लैंगुएज रही, उसे सबने बोला. फ़िल्मों में जान-बूझकर आर्टीफ़िशियल लैंगुएज लाते हैं. ये कोशिश वेलकम नहीं हुई.

हैदराबाद में आप देखिए, जहाँ मादरी ज़बान नहीं थी उर्दू, बुकिश लैंगुएज थी, वहाँ भी ऐसी कोशिशें हुईं. कुछ अलग बनाना चाहा उन्होंने. हम उर्दू वालों ने स्टेशन, पोस्टमैन, कंडेक्टर का कभी तर्जुमा नहीं किया. शाम, दिन, पानी, दुपहर आदि जो हिंदुस्तानी में उपलब्ध था, जो बोल-चाल में आता था – वह सब लिया. रात को रात्रि, शाम को संध्या आप बनाएँ, अलग करने-दिखाने को तो ठीक है पर वैसे क्या जरूरत है? शक, दुःख, उलझन, घबराहट, क़ाश्तकार, ज़मींदार, बैलगाड़ी, गाय, बैल, भैंस, मिठाई, नमकीन, दाल-भात को आप कुछ कहें, तो इसकी तुक क्या, है? अब हिंदी में काफ़ी अन्तर आया है. पहले क्रेज़ था वहाँ शुरू में अनपॉपुलर शब्दों को लाने का. कमलेश्वर वाला ग्रुप इसलिए पॉपुलर हुआ कि उन्होंने पॉपुलर ज़बान इस्तेमाल की. हिंदी वाले भी अब बिंदी लगाते हैं.

उर्दू के बारे में कई बार कहा गया है कि उर्दू मर गई. उर्दू यहाँ की ज़बान है और जैसे-जैसे लोग शहरों की तरफ़ बढ़ेंगे, उर्दू का चलन बढ़ेगा, उर्दू की ताक़त बढ़ेगी. उर्दू का इस्तेमाल बढ़ रहा है. स्क्रिप्ट की प्रॉब्लम हिंदी एरिया में है. बिहार, महाराष्ट्र, बंगाल में उर्दू स्पीकिंग लोग स्क्रिप्ट जानते हैं. यू.पी. वाले न तो उर्दू जानें और न हिंदी जानें और न जानने पर उन्हें फ़ख़्र है. पॉलिटिकली बैकवर्ड जो महसूस न कर सके, वह क्या ग़लत और सही सोचेगा?

  • उर्दू में बाल साहित्य की स्थिति क्या हिंदी की तरह ही है या उससे कुछ बेहतर? क्या आपने बच्चों के लिए कविताएँ लिखी हैं और बच्चों के लिए बेहतर-लेखन की आप कैसी परिस्थितियाँ पा रहे हैं? इधर दलित और महिला लेखन को लेकर हिंदी में बहुत बातें होती रहीं हैं. उर्दू के प्ररिप्रेक्ष्य में आपके अनुभव और विचार क्या हैं?

बच्चों के लिए लिखने को दोनों ही ज़बानों में तवज़्जो नहीं दी गई. आप देखिए फ़िल्म के सारे गाने वही क्लिक किए जो बच्चों के नज़रिए से थे. नर्सरी पोयट्री बहुत पॉपुलर हुई. ‘एक, दो, तीन, चार’-’ढपली वाले ढपली बजा, जैसे कितने ही गाने हैं. एक ज़माने में जामिया स्थापित हुई तो बच्चों के लिए कहानियाँ लिखी गईं, शायरी की गईं. मुजीब साहब, ज़ाकिर साहब, आबिद साहब जैसे लोगों ने बेहद कोशिशें की. मातृभाषा में लिखने का एक फ़ेज़ आया. नंदन, चंपक जैसी मैग्जींस का – बड़ा इंपॉर्टेंट रोल रहा. इक़बाल ने बच्चों के लिए बहुत उम्दा नज़्में लिखीं. ‘सारे जहाँ से अच्छा’ बच्चों के लिए है.

कई पत्रिकाएँ अच्छी निकलती थीं, जिन्हें उर्दू वाले भी पढ़ते थे. बच्चों की भाषा होती थी. इस पीरियड में नेग्लेक्ट किया गया बच्चों के साहित्य को. हिंदी-उर्दू की बदक़िस्मती कि फ़िक्शन को पैसा दिया गया, पोयट्री को नहीं. कुछ नहीं मिलना तो क्यों लिखे कोई. हिंदी में भी बहुत से शायरों ने लिखा, कोर्स में भी चलती हैं, पर सीरियस शायरी से बच्चों की शायरी को अलग समझा गया. मैंने बहुत नज़्में लिखीं पर छपवाई नहीं. अपनी इस नेग्लीजेंस पर हमें शमिंदा होना चाहिए.

बच्चों को पढ़ने के लिए इमेजिनेटिव चीज़ें मिलनी चाहिए. प्राइवेट संस्था यह नहीं कर सकती. सरकार सब्सडाइज़ करके कर सकती है. हिंदी-उर्दू अकादमी को लाखों रुपये मिलते हैं. इनाम देकर, किताबों के छपवाने को देकर, ऐड देकर, आप कितनी बड़ी रक़म बर्बाद कर रहे हैं? चलिए आप बर्बाद भी करिए पर अगर ज़बान को पढ़ने-बोलने-लिखने वाले नहीं रहेंगे, तो आप क्या करेंगे?

बच्चा प्रिजुडिस नहीं होता ज़बान से. आप पचास ज़बानों की किताब उसके सामने डाल दें, वह ख़ूबसूरत को चुनेगा. इस पर हमें सोचना चाहिए. हम घरों पर बच्चों को हिंदुस्तानी बोलते देख शर्माते हैं. सबकी कहानी एक-सी है. यह वह नस्ल है जो आईएएस, पीसीएस में जा रही है. उसे हिंदुस्तान में सैलाब आए, भूकम्प आए, कोई फ़र्क़ नहीं. जो लिट्रेचर की बैकग्राउंड के हैं, हाँ उन पर असर है. पब्लिक स्कूल्स ने जो रोल अदा किया है, वह बिकने में सहायक है भारत के. वे सोच नहीं सकते कि गर्मी में आदमी बिना एसी के रह सकता है. धूप, गर्मी, बरसात जो न देखें, रिक्शे में जो न चलें, उनके हाथ में सत्ता है. भूख-गरीबी क्या है, वे क्या जानें?

[प्रेमकुमार की किताब ‘बातों-मुलाक़ातों में शह्रयार’ 2013 में वाणी प्रकाशन से आई थी. बातचीत के ये अंश से इसी किताब से साभार.]

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