कृष्णा सोबती: लोकतंत्र की हिफ़ाज़त में प्रतिरोध का बुलंद स्वर

  • 10:12 am
  • 25 January 2020

साहित्य और संस्कृति के इतिहास में कृष्णा सोबती के नाम बहुत कुछ दर्ज है. उनके अल्फ़ाज़ ज़िंदगी के हर अंधेरे कोने में दिया बन कर कंदीलें जलाने को बेचैन मिलते हैं. फूलों को अंतत: सूखना ही होता है – बेशक जीवन के फूलों को भी! लेकिन एक समर्थ और सार्थक कलम उन्हें सदैव महकाए रखती है. ‘उम्मीद’ को अपने तईं ज़िंदा रखने के लिए संघर्षरत रहती है. ऐसी एक कलम का नाम कृष्णा सोबती था.

उम्र की ढलान के दिनों में भी कृष्णा सोबती सक्रिय रहीं और अपने चिंतन और अनुभवों के हवाले से फासीवाद के ऐसे तमाम ख़तरों से आगाह किया, जो आज दरपेश हैं. अंतिम दिनों में उन्होंने रचनात्मक लेखन स्थगित कर दिया था और हस्तक्षेप की ज़रूरत महसूस करते हुए वैचारिक लेखन को तरजीह दी. अवामी अदीब होने का सच्चा धर्म निभाया. आंखें जवाब देने लगी थीं, बहुत मोटे लेंस की मदद से लिख-पढ़ पाती थीं मगर दिलो-दिमाग की रोशनी बचाए रखी. उनके बहुत सारे समकालीन लेखक जब कविता-कहानी लिखते हुए ऊब रहे थे, वह असहिष्णुता-अराजकता के ख़िलाफ़ अख़बारों में लेख लिख रही थी, वैज्ञानिक संवेदना और तार्किक क्रोध के साथ लिख रही थीं. वह उस जमात से हमेशा अलग रहीं, जो मानती है कि लेखक का काम सिर्फ़ लिखना है, सामाजिक सरोकार के लिए वास्तविक संघर्षों में हिस्सेदारी नहीं. तभी तो लोकतांत्रिक मूल्यों की ख़ातिर प्रतिरोध की प्रतिनिधि आवाज़ बनते हुए उन्होंने साहित्य अकादमी अवॉर्ड लौटा दिया. वह मानती थीं कि लोकतंत्र की मृत्यु दरअसल मनुष्यता की मृत्यु की शुरुआत है. उनकी किताब ‘शब्दों के आलोक में’ चिंतन की इसी धारा का अक्स है.

दिल्ली में ‘प्रतिरोध’ के नाम से एक संगोष्ठी हुई, जिसमें देश भर से बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों ने शिरकत की. कृष्णा सोबती तब बीमार थीं मगर बीमारी की हालत में भी सेमिनार की अध्यक्षता के लिए वह व्हीलचेयर पर आई थीं. उनका शरीर कमज़ोर था लेकिन प्रतिरोध की आवाज़ बेहद बुलंद. इस क़दर निर्भीक और जोशीला कि घंटे भर से ज्यादा के उनके वक्तव्य के बाद लोग खड़े होकर देर तक तालियां बजाते रहे. उनका मानना था कि सच्चे लेखक की अपनी स्वतंत्र सत्ता होती है, जो दरबारी-सरकारी सत्ता से कहीं ज्यादा पावन और प्रभावशाली होती है.

लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आस्था और उस की हिफ़ाज़त का जज़्बा उनके ख़ून में था. उनका पहला उपन्यास ‘चन्ना’  था, जो बाक़ायदा छपकर तब आया जब वह मृत्युशैया पर थीं. 50 साल पहले उन्होंने प्रकाशक से आधा छपा हुआ यह उपन्यास इसलिए वापस ले लिया था कि प्रकाशक उसमें से पंजाबी-उर्दू के कुछ शब्द हटाना चाहता था. कृष्णा सोबती को यह मंज़ूर नहीं हुआ और छपाई के ख़र्च का हर्जाना देकर उन्होंने इसे वापस ले लिया. पिछले साल यह राजकमल प्रकाशन से छपा. उनकी ज़िंदगी में छपी यह आख़िरी किताब है, जो सबसे पहले लिखी गई थी लेकिन अपनी लेखकीय आजादी की हिफ़ाज़त करते हुए उन्होंने इसे नहीं छपाया.

कृष्णा सोबती हिन्दी शब्द संसार में अकेली हैं, जिन्होंने अपने समकालीनों पर सबसे ज्यादा और विस्तार से लिखा है. यहां भी उनकी ‘लोकतांत्रिक लेखनी’ की दृढ़ता दिखती है. उन्होंने अपनी उम्र से छोटे और उपलब्धियों के लिहाज़ से नीचे की पायदान पर माने जाने वाले लेखकों पर भी ख़ूब लिखा. ईमानदार प्रतिभा की वह कायल थीं और इस धारणा की पक्की कि उनकी वजह से कोई फूल सूख न पाए. बलवंत सिंह, रमेश पटेरिया, अमजद भट्टी, महेंद्र भल्ला, रतिकांत झा, ख़ान गुलाम अहमद, उमाशंकर जोशी, देवेंद्र इस्सर, गिरधर राठी, सौमित्र मोहन, स्वदेश दीपक और सत्येन कुमार सरीखी विलक्षण प्रतिभाओं पर इतना डूबकर किसने लिखा है? कृष्णा जी लिख सकती थीं और उन्होंने ही लिखा.

फ़ोटो क्रेडिटः मुकुल दुबे/ विकीमीडिया कॉमन्स


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