किसी कहानी से कम दिलचस्प नहीं किरपाल कजाक की ज़िंदगी

  • 7:47 am
  • 21 December 2019

कुछ मुलाक़ातें ज़िंदगी की दिशा बदल देती हैं. पहले अमृता प्रीतम और फिर प्रो. हरबंस सिंह से किरपाल कजाक की मुलाक़ात का हासिल यह कि पंजाबी कहानी को नया शिल्प मिला और पंजाबी साहित्य को नायाब कहानीकार.

इन्हीं किरपाल कजाक को उनके कहानी संग्रह ‘अंतहीन’ के लिए इस बार का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है.कहानियां तो ख़ैर वह डॉ. हरबंस से मिलने के पहले से लिख रहे थे मगर उस मुलाक़ात ने उनके लेखन और जीवन दोनों को व्यवस्थित होने और विस्तार देने में ज़रूर मदद की. और अदब की दुनिया के बहुतेरे लोग जानते हैं कि ख़ुद उनकी ज़िन्दगी भी किसी कहानी से कम नहीं.

हुआ यूं कि किरपाल कजाक उन दिनों पंजाबी यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर के घर का काम कर रहे थे. प्रो. हरबंस सिंह उन प्रोफेसर से मिलने आए. उन्होंने कजाक से प्रोफेसर के बाबत पूछा, और यह भी कि वह कौन हैं? कजाक ने अपना नाम बताया तो प्रो. हरबंस ने पूछ लिया कि कहीं आप वही कजाक तो नहीं, अख़बारों में जिनकी कहानियां छपती हैं. कजाक के मुंह से हां सुनकर डॉ. हरबंस हक्का-बक्का रह गए कि इतना नायाब और प्रतिभाशाली कहानीकार मजदूरी कर रहा है. बाद में उन्होंने कजाक की कहानियों का अंग्रेजी में अनुवाद किया और विश्वविद्यालय के प्रकाशन विभाग की पत्रिका ‘खोज’ में उन्हें नौकरी दिला दी. यह सन् 1986 की बात है. ‘खोज’ के लिए काम करते हुए उन्होंने कई महत्वपूर्ण और चर्चित अंक निकाले. उनकी विलक्षण प्रतिभा को देखते हुए पंजाबी विश्वविद्यालय ने उन्हें प्रोफ़ेसर के ओहदे पर नियुक्ति दे दी, जहां से वह कुछ साल पहले रिटायर हुए. हालांकि विश्वविद्यालय की शोध और शैक्षणिक गतिविधियों से अब भी वाबस्ता हैं.

किरपाल कजाक सन् 1943 में शेखुपुरा (अब पाकिस्तान) में पैदा हुए. उनके पिता साधु सिंह राजमिस्त्री थे. बंटवारे के बाद उनका परिवार पटियाला के गांव फतेहपुर राजपूतां आ गया. पिता हालांकि फ़ारसी और अरबी अदब के अच्छे जानकार थे और बड़े होते किरपाल ने उनकी इकट्ठा की हुई तमाम किताबें पढ़ डाली थीं. किरपाल तब नौवीं में पढ़ते थे, जब स्कूल की किताबों में उनकी अरुचि को देखते हुए पिता ने उनसे अपने काम में हाथ बंटाने को कहा. काम में हाथ बंटाने वाला यह फ़रमान उन्हें इस क़दर नाग़वार गुज़रा कि वह घर से भाग गए. पूरे दस साल तक वह घर वालों के लिए लापता रहे. इस दौरान उनके संगी-साथी आदिवासी कबीलों के लोग, जेबकतरे, ख़ानाबदोश और साधु बने. इस ‘संगत’ से मिले अद्भुत-अनूठे अनुभवों को वह कॉपी पर दर्ज़ करते रहे. घर लौटे तो यह थाती उनके साथ थी. अब तक है.

सन् 1970 में पिता की मौत के बाद परिवार की ज़िम्मेदारी उन पर आई तो पहले उन्होंने मजदूरी की और फिर बढ़ईगिरी. लिखना मगर जारी रखा. अपना लिखा हुआ एक बार अमृता प्रीतम को दिखाया. उनके अनुभवों के हवाले से लिखे हुए उन सच्चे क़िस्सों ने अमृता को हैरान किया, हालांकि मुतासिर भी किया. उन्हीं के मशविरे पर किरपाल कजाक ने अपना लिखा हुआ छपाना शुरू किया. सिकलीगरों (घुमंतू समुदाय) के बीच वह बरसों रहे थे. उन्होंने सिकलीगरों के इतिहास से लेकर वर्तमान तक, समाजशास्त्रीय तथा सांस्कृतिक पहलुओं को सामने रखते हुए कुछ किताबें लिखीं. कजाक का यह काम इसलिए भी ख़ूब चर्चा में आया कि उनसे पहले किसी भारतीय या विदेशी लेखक ने इस घुमंतू जाति के लोकाचार पर ऐसा शोधपरक काम नहीं किया था. डॉ.रामविलास शर्मा, डॉ.नामवर सिंह, कृष्णा सोबती और विजयदान देथा सरीखी विभूतियों ने भी कजाक के इस मौलिक तथा महत्वपूर्ण लेखन को सराहा. हालांकि वे सब काम करने की उनकी परिस्थितियों से नावाक़िफ़ थे.

इस बीच कजाक ने पंजाबी साहित्य की परंपरागत धारा को नई दिशा देने वाली बेहतरीन और अनूठे शिल्प वाली कहानियां भी खूब लिखीं, जिनमें पंजाबी सभ्याचार और लोकाचार का यथार्थवादी चित्रण है. ग्रामीण पंजाब के सामूहिक द्वंद्ववादी मनोविज्ञान को उन्होंने नई परिभाषाएं दीं, जो उनके व्यक्तिगत अनुभव की उपज हैं. वह कहते हैं, ‘मैंने जो भी लिखा, ज़िंदगी और अनुभव की पाठशाला की देन है.’

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