कियरोस्तामी का सिनेमा | जहां हम सोने के लिए जाते हैं और जाग जाते हैं

यह 1989 की बात है. तब इफ़्फ़ी यानि भारतीय अन्तरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह दिल्ली के सिरी फोर्ट में हुआ करता था. वो भी जनवरी के महीने की कड़कती ठंड में. यूट्यूब और टॉरेंट सिर्फ़ साइंस फिक्शन में हुआ करते थे, बल्कि वहां भी नहीं थे. बस गिने-चुने फ़िल्म समारोह ही एक ज़रिया थे, जहां बॉलीवुड और हॉलीवुड के इतर विश्व सिनेमा में क्या हो रहा है, उसे देखने-समझने का.

दस दिन में दुनिया का सिनेमा देख लेने की चाहत में स्टेमिना जवाब दे जाता था, इसलिए बीच-बीच में ऐसी फ़िल्म ढूंढते थे, जिसमें दिल्ली की जनवरी की ठंड में एयर कन्डीशन्ड हॉल में सोने का आनन्द लिया जा सके. तो काफी रिसर्च के बाद एक ईरानी फ़िल्म चुनी गई, जिससे कोई उम्मीद नहीं थी. ईरान सिनेमा के नक्शे पर था ही नहीं. तब ईरान, खोमैनी का ईरान बन चुका था यानि इस्लामिक ईरान. फ़्रेंच न्यू वेव और इटालियन सिनेमा हमारे ज़ेहन में ज़बरदस्त रूप से छाया हुआ था. साथ ही रूस, पोलैंड, हंगरी, चेकोस्लोवाकिया वगैरह के दमदार फ़िल्मकारों ने हमारे बम्बइया सिनेमा के असर को तार-तार कर दिया था.

तो ईरान एकदम सही फैसला था. अपनी समझ में रूखा, सूखा, रसहीन. जहां आर्ट, संगीत, सिनेमा की कोई जगह न थी.

हॉल छोटा था, कुल जमा बीस-पच्चीस लोग थे… बड़ी फ़िल्में और बड़े फ़िल्मकार ही अक्सर सिरी फोर्ट के मेन हॉल में जगह पाया करते थे… उस छोटे से हॉल में अन्तरराष्ट्रीय होने की औपचारिकता निभाई जाती थी. छोटे-मोटे, गुमनाम पर थोड़ा इंटेरेस्टिंग क़िस्म के फ़िल्मकार वहां निपटा दिए जाते थे.

फ़िल्म शुरू हुई और हमने सोने की पोज़ीशन बनानी शुरू की. परदे पर एक पुराने से दरवाजे का शॉट, उस पर कुछ बच्चों की आवाज़ें.

फ़ारसी में टाइटल, कोई म्यूज़िक नहीं. एकदम मुफ़ीद फ़िल्म चुनी थी अपने हिसाब से.

फिर कैमरा अन्दर गया, ईरानी गांव के स्कूली बच्चों के चेहरे. लगा अपने पहाड़ के गांव की कोई फ़िल्म है. फिर एक मास्टर जी अन्दर आए और बच्चों को डांटकर चुप करा दिया.

बच्चों के चेहरे क्लोज़-अप में आने लगे. मास्टरजी ने झल्लाकर एक बच्चे की कॉपी फाड़ दी, होमवर्क ठीक से नहीं किया था.

बस वहीं से नींद में खलल पड़ गया. फिर स्कूल की छुट्टी हुई और अहमद के साथ मैं और दूसरे लोग भी अपनी ख़ुमारी छोड़कर उसके साथ हो लिए.

उसके घर पहुंचे तो मुझे अपनी मां दिखाई देने लगी. इससे पहले ये एहसास सत्यजित राय की ‘पाथेर पांचाली’ देखते वक़्त हुआ था. मैं ए.सी. हॉल से निकल कर अपने घर पहुंच गया था. बाक़ी लोग भी अपने उनींदेपन को छोड़कर चैतन्य हो गए थे.

बैकग्राऊंड में संगीत की जगह रोज़मर्रा की आवाज़ों ने एक नया एहसास जगा दिया. लगा कोई फ़िल्म नहीं है, ज़िन्दगी है. ज़िन्दगी के संगीत की आवाज़ का मुक़ाबला कोई ऑरकेस्ट्रा नहीं कर सकता है.

अहमद घर के कामों के बीच अपनी कॉपी उठाकर होमवर्क करने बैठ गया. पर ये क्या, वो अपने पास बैठने वाले मोहम्मद रज़ा की कापी उठा लाया था. मास्टरजी का गुस्सा याद आ गया. मोहम्मद की तो कल खैर नहीं.

अहमद परेशान हो गया. और मां की नज़र बचा कर घर से निकल गया.

और शुरू हुई एक यात्रा. सही मायनों में यात्रा ही थी… हम अहमद के साथ मोहम्मद रज़ा की होमवर्क की नोटबुक पहुंचाने ईरान के गांव में घूमने लगे.

वहां तो हर दूसरे घर में मुहम्मद था. पर वो मुहम्मद न मिला जिसकी अहमद को तलाश थी. और न मुहम्मद का गांव मिला. पर अब्बास कियरोस्तामी का ईरान मिल गया.

वही ईरान जो सूफ़ियों का ईरान है, मौसिकी और शायरी का ईरान है. अब्बास कियरोस्तामी नाम के सूफ़ी के साथ ईरान के गांव की सैर कमाल का अनुभव था. कोई भी ड्रामा नहीं, कोई विलेन नहीं, कोई हीरो नहीं बल्कि कोई ड्रामेटिक कहानी भी नहीं. बस एक खोज थी. बड़ा ही रूहानी एहसास था. लगता था ख़ुद को देख रहे हैं एक साफ़ बुर्राक़ आइने में.

फिर तो अब्बास कियरोस्तामी ने आईना दर आईना हमें बरसों अपने अन्दर का सिनेमा दिखाया. ऐसा सिनेमा, जिसमें हम सोने के लिए जाते हैं और जाग जाते हैं. एकदम सूफ़ियाना समाधि की तरह.

पर सुना है कि अब्बास कहीं और चला गया है, वहां…जहां से कोई लौट कर नहीं आता है. पर हम भी पीछा नहीं छोड़ेंगे…तुमको फिर से खोज निकालेंगे… कहां-कहां छुपोगे अब्बास… अब सब लोग तुमको जानते हैं.

और हां, मुहम्मद की तलाश भी जारी रहेगी. उस मुहम्मद की जिसकी तलाश अहमद जैसे बच्चों को है, जो दूसरे की फ़िक़्र करते हैं. उस मुहम्मद की बड़ी सख़्त ज़रूरत है. आज की इस दुनिया में…

(लेखक फ़िल्ममेकर हैं, अभिनेता और फ़ोटोग्राफ़र भी. देहरादून में रहते हैं. यह टिप्पणी ‘व्हेयर इज़ द फ़्रेंड्स हाउस’ के हवाले से है.)

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