लॉक डाउन डायरी | आस उस दर से मगर टूटती नहीं
मदिरा और मद्यपान का गरिमापूर्ण-ग्लैमरयुक्त चित्रण करने वाले रस पारखियों और मद्य प्रेमियों के लिए यह लॉक डाउन निष्ठुर महीना बन गया है. प्रयागराज में गंगा और यमुना कहीं अधिक स्वच्छ और निर्मल होकर बह रही हैं, उनका संगम हो रहा है लेकिन इलाहाबाद के शराबी शाम के अपने संगम से दूर हैं. फिर भी उम्मीद है कि नहीं जा रही है.संगम की तरफ जाने वाली शहर की बेहद खास सड़क के किनारों पर और उसके आसपास की दुकानों पर दिन में अक्सर और शाम को ज्यादा लोग जुटते हैं. आसपास के लोगों, दुकानदारों, एटीएम के गार्डों से रोज का सवाल उछालते हैं, ‘अमे! कब खुली भाई?’ तीस दिन पुराना वही जवाब मिलता है, ‘पता नहीं. शायद, लॉक डाउन के बाद.’ इस जवाब के आख़िरी पांच लफ्ज़ रूह को सुकून पहुंचाते हैं और वो तालाबंदी की उलझनों की तारीक़ी पार करके आसमानी-गुलाबी नशे के पार पहुंच जाते हैं.
इस सड़क पर सबसे मौके की दुकान के सामने शाम को हर उम्र के ढेर सारे लोग जुटते हैं. बाक़ायदा मास्क लगाकर और चार-छह गज की दूरी से एक दूसरे से बतियाते हैं, शराब का महत्व बताते हैं कि कैसे दुकान खुल जाए तो सरकार के रेवेन्यू की थैली भर जाए. मन के चैन के लिए नमकीन का छोटा पैकेट खरीदते हैं, कोल्ड ड्रिंक और सोडा की बोतलें लेते हैं. दुकान का साइन बोर्ड ताकते रहते हैं, फिर चले जाते हैं- आस उस दर से टूटती ही नहीं, जा के देखा न, जा के देख लिया. सड़क का रास्ता एक तरफ से बंद है. कुछ लोग सड़क उस पार से ही स्कूटर-मोटर रोककर खड़े हो जाते हैं. दुकान की ओर निहारते हैं. आस लेकर चले जाते हैं. शहर की हर दुकान के आस-पास का शाम का यही मंजर है. उस दिन दुकान से कुछ दूर एक बड़े जनरल स्टोर के सामने खरीदारों की भीड़ के बीच हिमाचल प्रदेश की किसी डिस्टलरी के मुलाजिम ने वहीं से अपनी शराब फैक्ट्री में फोन लगाया. फ़ोन का स्पीकर खोल दिया. शराब फैक्ट्री के गार्ड ने बताया कि इस समय केवल वही है अकेला, कोई मजदूर नहीं है, गेट बंद है और हां फैक्ट्री खुलने के बाद मज़दूरों के जल्दी लौटने की उम्मीद नहीं है. अगर मज़दूर आ भी गए तो दस दिन लग जाएगा भट्ठी गरम होने में. इस ख़बर से आसपास के कुछ लोगों में उदासी की लहर दौड़ गई.
जहां मुर्दा शांति है, वहीं पाउच में पैक ‘जीवन शक्ति’ भी
निकोटियाना प्रजाति के पौधे निकोटिया टैबकम के पत्तों की ‘जीवन शक्ति’ के जादू का अनुभव हिंदुस्तानियों से ज्यादा किसे पता होगा? इसके पत्तों और तेज़ाबी रसायनों से निर्मित सनसनाहट और झन्नाटेदार सुख का मजा उत्तर भारतीयों से ज्यादा किसको मालूम होगा? लेकिन, आजकल वह भी बंद. लॉक डाउन की शुरुआत में बाज़ार के किसी कोने या नुक्कड़ की दुकान पर गुटखा, सुरती, खैनी आदि पदार्थ आसानी से जाते थे लेकिन अब वह भी बंद! हालांकि, खोजी तबीयत के लोग बड़े जनरल स्टोर या पंसारी की दुकान से भी गुटखा निकाल लाते हैं. यह अलग बात है कि वही गुटखे का पाउच अब उन्हें तिगुने दाम में मिलता है. बाज़ार में सन्नाटा है. दुकानों पर पहरा है. सब कुछ बंद है लेकिन गुटखा प्रेमियों के मुंह और मन में एक अजीब सी खलबली है. जब तलाश के सारे रास्ते बंद हो गए प्रयागराज के कुछ एडवेंचर प्रेमी साहसी युवाओं ने एक अलग मार्ग अपनाया- “मुक्ति का मार्ग”. आप उनके इस यत्न और युक्ति को किसी भी कोटि में रख सकते हैं. गुटखा-सुरती सुख अर्जित करने के लिए श्मशान घाट से ‘अच्छी’ और क्या होगी? वहां मुर्दा शांति है, कुछ दुकानों पर खड़े लोगों की भुनभुनाहट है, हवा में चिरायन्ध है, वहां मिनरल वाटर, चाय-पकौड़ी-नमकीन है, पान, तंबाकू, दोहरा, गुटखा भी है.
हिम्मती युवाओं में कुछ ने रसूलाबाद घाट का रुख किया और कुछ ने दारागंज घाट का, जहां अंतिम विदा के लिए, अंत्येष्टि के लिए लोग अपने परिजन को ले आते हैं. यहां उसके लिए भी सामान है, जिसके देह की मुक्ति होनी है. जो लोग उन्हें मुक्त कराने आए हैं, उनकी तात्कालिक जरूरतों के लिए दुकानें हैं. गुटखा प्रेमी युवक जान गए कि पुड़िया यहीं मिलेगी. जादुई पुड़िया वहां मिल भी जाती है लेकिन यह कामयाबी क्षणभंगुर निकली. आज शाम से वहां पर यह सेवा समाप्त हो गई. नया ठिकाना कहां मिलेगा या यह किस तरह किस चीज़ की दुकान में मिल जाय? कौन जानता है? जैसे इलाहाबाद में कपड़ों की एक पुरानी और बड़ी दुकान में झाड़ू बिकती है.
अंडेबाज़ी के शौक़ीन और चिकनखोर
डायरी का यह वाला हिस्सा नॉन वेजिटेरियन है. शाकाहारी पाठक चाहें तो डायरी के अगले हिस्से पर जा सकते हैं. लॉक डाउन ने चटोरों, खबोड़ों, खब्बुओं पर आघात तो किया ही है, नॉन-वेजिटेरियन पर तो यह मार ज़्यादा सालने वाली रही है. उस दिन टेलीविजन में ख़बर आई कि मछली मिलेगी लेकिन सब्जी मंडी के अलग हिस्से में, जहां मछली मार्केट लगती है, वह हिस्सा सूना ही दिखा है. अंडेबाज़ी के शौकीनों के लिए राहत की बात है. मोहल्ले के अंडे वाले काले रंग के पॉली बैग में अंडा रखकर होम डिलीवरी कर रहे हैं. ख़बर यह है कि पुराने शहर और पॉश इलाके की कुछ दुकानों पर सुबह के वक्त चिकन मिल रहा है. लॉक डाउन में चिकन प्राप्ति का कारनामा कुछ जुझारू लोगों ने दिखाया है और दूसरों को भी महान प्रेरणा दी है. लोग आगे की योजना पुलिस की रियायत और रिस्क को भांपकर बना रहे हैं.
देखा देखी तनिक हुई जाए यानी मित्र मिलन की आस
फेसबुक, टि्वटर, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम, यूट्यूब आदि पर थकती उंगलियों के बीच अगर कहीं कुछ चैन मयस्सर है तो किताबों और संगीत की दुनिया में. शहर के दोस्तो से दूर कर देने वाले लॉक डाउन के बीच जब शाम बहुत भारी हो जा रही है, तब बेग़म अख़्तर की आवाज़ में यह मीठा और कसक भरा दादरा बहुत याद आता है- हमरी अटरिया पे आओ सांवरिया, देखा-देखी बलम हो जाए. मित्र मिलन की आस में लोगों ने रास्ते निकाल लिए हैं. जुगाड़ यह है कि दो मित्र बाहर के लिए कोई काम निकालते हैं, काम पैदा करते हैं, परिवार के दूसरे सदस्य का काम खुद ले लेते हैं. फिर फोन से तय होता है कि कितने बजे किस मोहल्ले की किस दुकान पर मिलना है. दुकान दूर की हो या पास की. नियत समय पर मित्र मिलते हैं, मुंह ढंककर मिलते हैं, दूर-दूर से मिलते हैं, सामान खरीदने और पुलिस वाले की डंडे फटकारने तक बातचीत करते हैं. अगली बार फिर कोई काम लेकर, उसका बहाना खोज कर मिलने का वायदा लेकर-देकर चले जाते हैं. आभासी दुनिया का सूखापन यहीं हार जाता है. क्या इसी तरह शहर कोई प्रेमी जोड़ा भी मिल रहा होगा? पता नहीं, लेकिन उनके मिलने की आस, कसक और ललक बनी रहे…दुनिया के खुल जाने के बाद भी. यही दुआ है.
इलाहाबादी ग्लोबल कनेक्ट
यह प्लेनेट इसी लॉक डाउन में दिखा और चमका. फेसबुक ब्रह्मांड में यह प्लेनेट इलाहाबाद है, इसमें ऐसे लोग शामिल हैं, जो दुनिया में कहीं और रहते हैं लेकिन जिनका इलाहाबाद नॉस्टैल्जिया है या जो इलाहाबाद से अभी तक प्रयागराज नहीं पहुंच सके हैं या ऐसे प्रयागराजी जो अब भी या कभी-कभार इलाहाबाद को मिस करते हैं. तकरीबन साढे छह हज़ार लोग इस ग्रुप में हैं. अच्छा यह है कि इसमें हाय, बाय, शाय, गुड मॉर्निंग, गुड़ नाईट, गुड़ डे, राजनीति, धर्म जैसी चीजें नहीं हैं. इस बात का पालन सख़्ती से हो रहा है. इसमें सिर्फ इलाहाबाद है, इलाहाबाद का नशा है, उसका हैंगओवर है. दुनिया भर के बहुतेरे कामयाब लोग, जिनसे इलाहाबाद छूटा नहीं है, इस समूह में हैं. यह ग्रुप पुराने इलाहाबादी, सांस्कृतिक आयोजनों के कर्ताधर्ता और अब कारपोरेट की दुनिया में नाम कमा रहे सौरभ अस्थाना के दिमाग की उपज है.
आवरण चित्र| ख़ुसरो बाग़/ प्रभात
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