संस्मरण | और रावण मर गया!

  • 7:19 pm
  • 25 October 2020

बुंदेलखण्ड के टीकमगढ़ में मेरी ननिहाल है. मेरे नाना समशेर ख़ाँ वहाँ हर साल होने वाली ‘रामलीला’ में रावण का किरदार अदा करते थे. नानी के घर की दीवार पर आज भी रावण के गेटअप में उनकी तस्वीर के साथ एक और तस्वीर लगी हुई है, जिसमें नाना कंस के गेटअप में बाल कन्हैया को एक हाथ से ऊपर उठाए हुए हैं.

टीकमगढ़ की चार दशक पुरानी यह ‘रामलीला’ और ‘कृष्णलीला’ तो मैंने कभी नहीं देखी. लेकिन बचपन की एक बात, जो मुझे अभी तक याद है, वो यह कि दीवाली के रोज़ नाना लक्ष्मी जी की पूजा करते थे. पूजा के बाद हम बच्चों को खीलें-बताशे और मिठाइयां मिलतीं. भले ही नाना के गुज़रने के बाद ननिहाल के घर में यह परम्परा ख़त्म हो गई हो. लेकिन मेरी मां ने यह परम्परा हमारे घर में बनाए रखी.

हमारे छोटे से शिवपुरी शहर में भी उन दिनों दो जगह पर ‘रामलीला’ खेली जाती थी. मां दोनों ही रामलीला में हम बच्चों को साथ ले जातीं, जिसका हम जी भरकर लुत्फ़ लेते. शिवपुरी में भी जहां तक मुझे याद है, इन रामलीलाओं में हमारे घर के पड़ोस में रहने वाले नन्हें ख़ाँ मास्साब की अहम् भूमिका होती थी. वे इन रामलीलाओं में आर्ट डायरेक्टर, मेकअप आर्टिस्ट से लेकर कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर तक की ज़िम्मेदारी संभालते. हर साल नवदुर्गा, गणेश उत्सव और दशहरे में निकलने वाली झांकियाँ बनाने में भी नन्हें ख़ाँ मास्साब मनोयोग से काम करते. जब तक वे ज़िंदा रहे, उन्होंने इन गतिविधियों से कभी नाता नहीं तोड़ा. यही नहीं, जिस मोहल्ले में हमारा बचपन गुज़रा, वहां होली-दीवाली-रक्षाबंधन गोया कि हर त्योहार मजहब की तमाम दीवारों से ऊपर उठकर हम लोग उसी जोश-ओ-ख़रोश से मनाते थे. और आज भी यह परम्परा टूटी नहीं है. उसका स्वरूप अलबत्ता बदल गया है.

‘रामलीला’ में अभिनय के जानिब नाना के जुनून, ज़ौक़ और शौक़ की कुछ दिलचस्प बातें मेरी मां अक्सर बताया करती हैं. मसलन नाना ‘रामलीला’ के लिए घर से ही तैयार हो कर जाया करते थे. रामचरितमानस की तमाम चौपाइयां उन्हें मुंहज़बानी याद थीं. रावण के अलावा ‘रामलीला’ में ज़रूरत के मुताबिक और भी किरदार वह निभा लिया करते थे. रावण का किरदार उन्होंने अपनी ज़िंदगी के आख़िर तक निभाया. बीमारी की हालत में भी ‘रामलीला’ के संयोजकों ने उनसे नाता नहीं तोड़ा. उनकी गुज़ारिश होती कि वह बस तैयार होकर आ जाएं. बाक़ी वे लोग संभाल लेंगे.

और जैसा कि अमूमन होता है, मंच पर आते ही हर कलाकार ज़िंदा हो जाता है. वह अपने किरदार में ढल जाता है. जैसे कि कुछ हुआ ही न हो. ऐसा ही नाना के साथ होता और वे अपना रोल कर जाते. सबसे दिलचस्प बात, जिसे मेरी मां ने बताया, नाना के इंतक़ाल के बाद, एक मर्तबा दशहरा के वक़्त वह टीकमगढ़ में ही थीं. दशहरे का जुलूस निकला, तो वे उसे देखने पहुंची. जुलूस देखा, तो उन्हें निराशा हुई और उन्होंने पास ही खड़ी एक बुजुर्ग महिला से बुंदेलखंडी ज़बान में पूछा, ‘काहे अम्मा ऐसा जुलूस निकलता, ईमें रावण तो हैई नईएं?’

अम्मा बोलीं, ‘का बताएं बिन्नू, रावण ही मर गया.’

‘रावण मर गया!’ मां ने हैरानी से पूछा.

‘हां बेन, रावण मर गया. जो भईय्या रावण का पार्ट करत थे, वे नहीं रहे. वे नहीं रहे, तो रामलीला भी बंद हो गई.’

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