1857 के महान प्रवासी पलायन की पुनरावृत्ति

  • 9:06 pm
  • 10 May 2020

2020 के मई महीने का भारतीय प्रवासी श्रमिकों का पलायन इतिहास की न तो पहली बानगी है और न ही अंतिम. यह घटना बताती है कि पहले भी धरती तब-तब कांपी है, जब-जब किसान पुत्रों ने पलायन किया है. 10 मई 1857 के दिन का इतवार होना महज़ इत्तफ़ाक़ हो लेकिन मेरठ में ‘सन्डे इज़ हॉलिडे’ का जश्न मनाते तमाम अंग्रेज़ अफ़सरों और सिपाहियों को मौत की नींद सुलाकर ‘3 कैवेलरी’ के भारतीय बाग़ियों के फ़ौजी जत्थे का मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फर को अपना फ़ौजी सलाम देने की ख़ातिर देर शाम दिल्ली कूच कर डालना इत्तफ़ाक़ नहीं था. उत्तर भारत की विभिन्न देसी रियासतों की ग्रामीण पृष्ठभूमि से निकल कर दूरदराज़ तैनात ‘कम्पनी बहादुर’ की इस या उस फ़ौज में दाख़िल होने वाले इन धरती पुत्रों का 45-46 मील का दिल्ली तक का यह पलायन बेशक आगे चलकर नाकामयाब हुआ हो लेकिन इतिहास गवाह है कि इसी असफल पलायन ने अगले 90 सालों तक चलने वाले भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का दिशा-निर्धारण किया.

बग़ावत, दुःख और मजबूरी, भारत में पलायन की अपनी परंपरा और इतिहास है. हर बार इससे बड़े पैमाने पर कृषि जोतों की तबाही हुई और रियासत की मालगुजारी को ज़बरदस्त चूना लगा. सन् 1857 का कृषक संतानों का पलायन भी इतिहास की पहली घटना नहीं था. उत्तर और दक्षिण भारत में 1870 से अकाल और सूखे ने चारों ओर अपनी विभीषिका से देशवासियों को ध्वस्त कर डाला लेकिन इसका सिलसिला 1840 के दशक से ही शुरू हो गया था. ‘कम्पनी’ की ग़लत आर्थिक नीतियों और बेज़ा दखलन्दाज़ियों का नतीजा था – अवध रियासत में निरंतर चलने वाला सूखा और अकाल. कृषि उत्पाद में पैदा हुए इस ज़बरदस्त असंतुलन से आक्रांत अवध के किसान 1830 और 1840 से ही सूबे के एक हिस्से से दूसरे हिस्से या अन्य रियासतों में बड़े पैमाने पर पलायन करने लग गया था. ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ के आदेश पर सन् 1849 की अपनी अवध यात्रा से पूर्व के अपने प्रारंभिक अध्ययन और तैयारियों का जायज़ा लेने के बाद सूबे के रेज़ीडेंट मेजर जनरल डब्ल्यू० एच० स्लीमन ने ‘कंपनी’ को भेजी अपनी ख़त-ओ-ख़िताबत में इन्हें तत्काल रोके जाने की चेतावनी देते हुए लिखा था कि यह “ख़तरनाक है और सूबा-ए-रियासत की दौलत के नज़ाम-ओ-नक़्श को तहस-नहस कर देगा.” ‘कम्पनी’ ने इस बाबत गवर्नर जनरल लार्ड डलहौज़ी को ‘उचित कदम’ उठाने के लिए लिखा लेकिन डलहौज़ी ने जनरल स्लीमन की राय को कूड़ेदान में डाल दिया. नतीजतन यह पलायन पूरे ‘कम्पनी’ निज़ाम के दौरान जारी रहा और कुछ समय के लिए तभी रुका, 1857 में जब  ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ का डिब्बा बंद हुआ और भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने अपने पांव पसारे.  1870 के दशक में अकाल की स्थितियां और भी विकराल हुईं और इसके चलते पलायन का सिलसिला फिर चल निकला. 1890 के दशक में प्लेग और फ़्लू आदि महामारियों ने इस पलायन में आग में घी का काम किया जिसका नतीजा यह हुआ कि बम्बई, कलकत्ता (वर्तमान मुंबई और कोलकाता) और पूना जैसे अनेक बड़े शहर ख़ाली हो गए और ब्रिटिश, फ्रेंच भारतीय उद्योगपतियों के चेहरों पर हवाईयां उड़ने लगीं. तभी अंग्रेज़ हुकूमत ने कई अध्यादेश जारी करके इन प्रवासी मज़दूरों के पलायन पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया, जो कामयाब नहीं हुआ. लोग दम छुड़ा कर भागने में लगे थे और बावजूद हुक़ूमत की लाख कोशिशों के, उन्हें रोकना नामुमकिन साबित हुआ.

1890 के दशक में फैले भयंकर ब्यूबोनिक प्लेग ने बंबई की लगभग 9 लाख की आबादी को घटाकर आधा कर दिया था.  दूसरे बड़े शहरों का भी कमोबेश इतना ही बुरा हाल था. लार्ड एल्गिन, लार्ड कर्ज़न और लार्ड मिंटो – 1890 के दशक से लगाकर बीसवीं सदी के पहले दशक तक ब्रितानी हुकूमत के ये तीन वाइसराय हुए और इस पलायन को रोकने के लिए तीनों ने ही अपने-अपने समय में अनेक छोटे-बड़े अध्यादेश लागू किये और क़ानून बनाये. क़ानूनों का सबसे क्रूर मकड़जाल लार्ड एल्गिन ने फैलाया, जो अन्यथा बड़ा ‘लो प्रोफाइल’  था. 1896 का ‘महामारी एक्ट’ उन्हीं के दिमाग़ की खुराफ़ात था, जिसने आने वाले समय के दूसरे बार्बरिक महामारी नियमों और उपनियमों को जन्म दिया. आज़ाद भारत के राजनीतिक तंत्र और नौकरशाही को अंग्रेज़ों के बनाये ये महामारी क़ानून बहुत सुहाते हैं. बिना रत्ती भर छोटे-बड़े बदलाव के वे आज तक बड़ी ‘सदाशयिता’ से इनकी अनुपालना कर रहे हैं.

इन तीन दशकों में बने सभी छोटे-बड़े क़ानूनों, उप नियमों, अधिनियमों के पीछे तीन मुख्य उद्देश्य थे. यह चाहे अकाल हो या महामारी का ख़ौफ़, ब्रिटिश सबसे पहले किसी भी क़ीमत पर विकसित होती औद्योगिक अर्थ व्यवस्था को महफूज़ बनाये रखने के एवज़ में औद्योगिक श्रमिकों के पलायन को किसी भी क़ीमत पर रोकना चाहते थे. दूसरा वे भारतीय कामगारों और कृषकों के नाममात्र के लोकतांत्रिक अधिकारों को भी इन क़ानूनों की आड़ में हड़प जाना चाहते थे और तीसरा – वे इस सारी गहमागहमी और मसमसे का रोना रोकर सत्ता को ख़ुद के हाथों में और भी ज़्यादा केन्द्रिभूत करना चाहते थे.

लेकिन इन सारी दमनात्मक कार्रवाइयों के बावजूद पलायन रुका नहीं. चाहे शोक में, चाहे दहशत में, वे भागते रहे. कभी खुले आम कच्ची-पक्की सड़कों पर, कभी छुप-छुप कर गाँव-देहातों की पगडंडियों पर, कभी सीमित संख्या वाली रेल पटरियों के किनारे-किनारे, कभी पैदल, कभी पशु वाहनों में, कभी मोटर गाड़ियों में तो यदा-कदा रेलगाड़ियों में भी. ऐसा नहीं है कि श्रमिकों और धरती पुत्रों के इस पलायन ने भारतीय समाज के दूसरे व्यापक हिस्सों और प्रकारांतर से ब्रितानी हुकूमत पर असर नहीं डाला. 1900-1910 के पूरे दशक में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (जो कि तब तक मुख्यतः भारतीय मध्यवर्ग के स्वर के रूप में ही विद्यमान थी) के छोटे जलसों से लेकर महाधिवेशनों तक में, किसानों और औद्योगिक मज़दूरों के सवाल धीरे-धीरे अपना असर बढ़ाते गए और इसी का प्रभाव था कि 1910 के दशक में दक्षिण अफ्रीका से लौट कर जब गांधी जी ने अपना राजनीतिक महिमामंडल रचा तो गरीब किसानों और कृषि श्रमिकों के सवाल उनका ‘हिज मास्टर्स वॉइस’ थे. कांग्रेस के प्रभावी विरोध ने ब्रितानी हुकूमत पर दबाव डाला और इस तरह पलायन करते हिन्दुस्तानियों पर होने वाले दमन कुछ हद तक कम हुए. 20 के दशक में जब पहली बार भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई, ये मज़दूर और किसान ही थे जो उसका आधार बने. कम्युनिस्टों की ट्रेड यूनियनों के लाल बावटों (झंडों) ने ही इन मज़दूरों के क़दम पूरी तौर पर बम्बई और आगे चलकर कलकत्ता में थाम लिए.

भारतीय मीडिया चाहे जितनी उपेक्षा करे, सत्ताधारी दल जितनी भी घृणा दर्शायें और राजनीतिक विपक्ष चाहे जितने ‘एक्सक्यूज़’ ढूंढे, धरती-पुत्रों का पलायन एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय एजेंडा बन चुका है. उन्नीसवीं सदी की मानिंद वे आज भी कभी खुले आम पक्की सड़कों पर तो कभी छुप-छुप कर गाँव-देहातों की पगडंडियों पर, कभी पैदल तो कभी साइकिलों पर, कभी पशु वाहनों में तो कभी रेल पटरियों के किनारे-किनारे, कभी टिकट खरीदकर उन्हीं रेलगाड़ियों पर सवार होकर, ‘मार्च’ कर रहे हैं. यह महापलायन है, जो अतीत में हुक़ूमतों को ठोंक-पीटकर ठीक करता आया है.

इतिहास ने तो यही सिखाया है.

 

आवरण | स्लीमन की यात्रा के नक्शे का एक हिस्सा


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