तब नौशाद ने कहा था – दुनिया से मौसिक़ी का पयम्बर चला गया

  • 10:56 pm
  • 31 July 2020

महात्मा गांधी की हत्या के बाद श्रद्धांजलि के तौर मोहम्मद रफ़ी का गाया गीत ‘‘सुनो-सुनो ऐ दुनिया वालों, बापू की ये अमर कहानी’’ सुनकर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू विह्वल हो उठे थे. बाद में उन्होंने मो. रफ़ी को अपने घर भी बुलाया और उनसे वही गीत सुनने की फरमाइश की. नेहरू उनके इस गाने से इतना मुतास्सिर हुए कि आज़ादी की पहली वर्षगांठ पर मोहम्मद रफ़ी को रजत पदक देकर सम्मानित किया. अपनी ज़िंदगी में रफ़ी को ढेर सारा प्यार और बेशुमार सम्मान-पुरस्कार मिले मगर नेहरू के हाथों मिले पदक को वह अपने लिए सबसे बड़ा सम्मान मानते थे.

मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ के शैदाई अक्सर एक सवाल पूछते हैं और जिसका उन्हें कोई जवाब नहीं मिलता कि ‘‘भारत रत्न तो छोड़िए सरकार ने उन्हें ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ के लायक़ भी क्यों नहीं समझा होगा? अपने इस शानदार गायक की इस क़दर उपेक्षा हमने क्यों की होगी भला?’’ हालांकि उनके कई जूनियर इस क़ाबिल समझे गए हैं. मन्ना डे, पंकज मलिक, लता मंगेशकर और आशा भोंसले पहले ही यह पुरस्कार पा चुके है. यों मो.रफ़ी का फ़न अपने समकालीनों में किसी से कमतर नहीं लगता.

‘‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’’ सरीखे वतनपरस्ती के गीत हों या भक्तिरस में डूबे हुए ‘‘मन तड़पत हरी दर्शन को आज’’ जैसे उनके भजन रफ़ी की आवाज़ ने इन गीतों में जैसे जान फूंक दी. फ़िल्मी दुनिया के अपने साढ़े तीन दशक के कॅरिअर में मो. रफ़ी ने तमाम ज़बानों में हज़ारों गीत गाए और गीत भी ऐसे-ऐसे लाजवाब कि आज भी इन्हें सुनकर, लोगों के क़दम ठिठक जाते हैं. उनकी मीठी आवाज़ जैसे कानों में रस घोलती है. दिल में एक अजब सी कैफ़ियत पैदा हो जाती है. उन्हें गुज़रे चार दशक हो गए, लेकिन उन-सा गाने वाला कोई दूसरा नहीं आया. इतने अरसे के बाद भी वह अपने चाहने वालों के दिलों पर राज करते हैं.

हिन्दी गीतों की दुनिया में कई मौसम आए और चले गए, लेकिन रफ़ी का मौसम अभी भी जवां है. वह सदाबहार थे, सदाबहार हैं और आगे भी रहेंगे. हिन्दी सिनेमा के गीत-संगीत की जब भी बात होगी, रफ़ी का ज़िक्र बेहद अदब के साथ होगा.

31 जुलाई, 1980 को उनका इंतिकाल हुआ. बंबई में उस रोज़ मूसलाधार बारिश हो रही थी. और इस क़दर ख़राब मौसम के बावजूद अपने महबूब गुलूकार के जनाजे में शिरकत करने के लिए हज़ारों लोग सड़कों पर उमड़ आए थे, रोते-सिसकते अपनी आख़िरी विदाई दी. सरकार ने उनके एहतिराम में दो दिन के राष्ट्रीय शोक का एलान किया. और यह सब उन फ़नकार की अज़्मत बतलाने के लिए काफी है, जिसे हम मोहम्मद रफ़ी के नाम से याद रखते हैं. वरना उनके गायन और गीतों के बारे में इतने क़िस्से हैं कि सैकड़ों सफ़हे कम पड़ जाएं.

हिन्दी सिनेमा में प्लेबैक सिंगिंग को नया आयाम देने वाले रफ़ी अमृतसर के पास कोटला सुल्तान सिंह में पैदा हुए. उनके परिवार का संगीत से कोई ख़ास सरोकार नहीं था. रफ़ी ने इस बात का ज़िक्र ‘शमां’ मैग्ज़ीन में छपे एक लेख में किया है, ‘‘मेरा घराना मजहबपरस्त था. गाने-बजाने को अच्छा नहीं समझा जाता था. मेरे वालिद हाजी अली मोहम्मद साहब निहायत दीनी इंसान थे. उनका ज्यादा वक्त यादे-इलाही में गुजरता था. मैंने सात साल की उम्र में ही गुनगुनाना शुरू कर दिया था. ज़ाहिर है, यह सब मैं वालिद साहब से छिप-छिप कर किया करता था. दरअसल मुझे गुनगुनाने या फिर दूसरे अल्फाज़ में गायकी के शौक की तर्बियत (सीख) एक फक़ीर से मिली थी. ‘‘खेलन दे दिन चारनी माए, खेलन दे दिन चार’’ यह गीत गाकर, वह लोगों को दावते-हक़ दिया करता था. जो कुछ वह गुनगुनाता था, मैं भी उसी के पीछे गुनगुनाता हुआ, गांव से दूर निकल जाता था.’’

उस फक़ीर ने रफ़ी साहब की गीतों के जानिब इस दीवानगी और जुनून को देखते हुए दुआ दी कि ‘‘यह लड़का आगे चलकर खूब नाम कमाएगा.’’ 1935 में मो. रफ़ी के अब्बा ग़म-ए-रोजगार की तलाश में लाहौर आ गए. रफ़ी की गीत-संगीत की चाहत वहां भी बनी रही. उनकी गायकी को सबसे पहले उनके घर में बड़े भाई मोहम्मद हमीद और उनके एक दोस्त ने पहचाना. इस शौक को परवान चढ़ाने के लिए उन्होंने रफ़ी को बाक़ायदा संगीत की तालीम दिलाई. उस्ताद अब्दुल वाहिद खान, उस्ताद उस्मान, पंडित जीवन लाल मट्टू, फिरोज़ निज़ामी और उस्ताद ग़ुलाम अली ख़ां जैसे दिग्गजों से उन्होंने संगीत का ककहरा सीखा.

मोहम्मद रफ़ी ने अपना पहला नगमा 1941 में सत्रह साल की उम्र में एक पंजाबी फ़िल्म ‘गुल बलोच’ के लिए रिकार्ड किया था, जो 1944 में रिलीज़ हुई. इस फ़िल्म के संगीतकार थे श्याम सुंदर और गीत के बोल थे, ‘‘सोनिये नी, हीरिये ने’’. संगीतकार श्याम सुंदर ने ही रफ़ी से हिन्दी फिल्म के लिए सबसे पहले गवाया. फ़िल्म थी ‘गांव की गोरी’, जो 1945 में रिलीज़ हुई. उस वक्त भी हिन्दी फ़िल्मों का मुख्य केन्द्र बम्बई ही था. लिहाजा अपनी क़िस्मत आज़माने रफ़ी बम्बई पहुंच गए.

उस वक्त संगीतकार नौशाद ने फ़िल्मी दुनिया में अपने पैर जमा लिए थे. उनके वालिद साहब की एक सिफ़ारिशी चिट्ठी लेकर रफ़ी नौशाद के पास पहुंचे. नौशाद साहब ने रफ़ी से शुरुआत में कोरस से लेकर कुछ युगल गीत गवाए. फ़िल्म के हीरो के लिए आवाज़ देने का मौक़ा उन्होंने रफ़ी को काफ़ी बाद में दिया. नौशाद के संगीत से सजी ’अनमोल घड़ी’ (1946) वह पहली फ़िल्म थी, जिसके गीत ’‘तेरा खिलौना टूटा’’ से रफ़ी को काफी शोहरत मिली. इसके बाद नौशाद ने रफ़ी से फ़िल्म ’मेला’ (1948) का सिर्फ़ एक शीर्षक गीत गवाया, ‘‘ये ज़िंदगी के मेले दुनिया में कम न होंगे..’’, जो सुपर हिट साबित हुआ. इस गीत के बाद ही नौशाद और रफ़ी की जोड़ी बन गई.

इतिहास गवाह है कि इस जोड़ी ने एक के बाद एक कई सुपर हिट गाने दिए. ‘शहीद’, ‘दुलारी’, ‘दिल दिया दर्द लिया’, ‘दास्तान’, ‘उड़नखटोला’, ‘कोहिनूर’, ‘गंगा जमुना’, ‘मेरे महबूब’, ‘लीडर’, ‘राम और श्याम’, ‘आदमी’, ‘संघर्ष’, ‘पाकीजा’, ‘मदर इंडिया’, ‘मुगल-ए-आजम’, ‘गंगा जमुना’, ‘बाबुल’, ‘दास्तान’, ‘अमर’, ‘दीदार’, ‘आन’, ‘कोहिनूर’ जैसी अनेक फिल्मों ने नौशाद और मो. रफ़ी ने अपने फ़न से लोगों का दिल जीत लिया. 1951 में आई फ़िल्म ‘बैजू बावरा’ के गीत तो लोगों के ज़ेहन में पैबस्त हो गए. ख़ास तौर पर ‘ओ दुनिया के रखवाले..’, ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज’ गाने. नौशाद के लिए रफ़ी ने 150 से ज्यादा गीत गाए.

1950 और 60 के दशक में मोहम्मद रफ़ी ने अपने दौर के सभी नामचीन संगीतकारों शंकर जयकिशन, सचिनदेव बर्मन, रवि, रोशन, मदन मोहन, गुलाम हैदर, जयदेव, हेंमत कुमार, ओ.पी नैयर, सलिल चौधरी, कल्याणजी आनंदजी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, खैयाम, आर. डी. बर्मन, उषा खन्ना के साथ सैंकड़ो गाने गाए. एक दौर यह था कि रफ़ी हर संगीतकार और कलाकार की पहली पसंद थे. उनके गीतों के बिना कई अदाकार फ़िल्मों के लिए हामी नहीं भरते थे. फिल्मी दुनिया में रफ़ी जैसा वर्सेटाइल सिंगर शायद ही कभी हो. उन्होंने हर मौके, हर मूड के लिए गाने गाए. ज़िंदगी का ऐसा कोई भी वाकिया नहीं है, जो उनके गीतों में न हो. मिसाल के तौर पर शादी की सभी रस्मों और मरहलों के लिए उनके गीत हैं. ‘‘मेरा यार बना है दूल्हा’’, ‘‘आज मेरे यार की शादी है’’, ‘‘बहारो फूल बरसाओ मेरा महबूब’’, ‘‘बाबुल की दुआएं लेती जा’’ और ‘‘चलो रे डोली उठाओं कहार’’. हीरो हो या कॉमेडियन सब के लिए उन्होंने गाया, लेकिन गायन की अदायगी अलग-अलग.

मो. रफ़ी के गीतों का ही जादू था कि कई अदाकार अपनी औसत अदाकारी के बावजूद फ़िल्मों में लंबे समय तक टिके रहे. सिर्फ गानों की बदौलत उनकी फ़िल्में सुपर हिट हुईं. रफ़ी साहब के गाने का अंदाज भी निराला था. जिस अदाकार के लिए वे गाते, पर्दे पर ऐसा लगता कि वह ही गा रहा है. यक़ीन न हो तो भारत भूषण, दिलीप कुमार, शम्मी कपूर, देव आनंद, गुरुदत्त, राजेन्द्र कुमार, शशि कपूर, धर्मेन्द्र, ऋषि कपूर के लिए गाये उनके गीतों को ग़ौर से सुनिए-देखिए. मोहम्मद रफ़ी के लिए यह किस तरह से मुमकिन होता था, इस बारे में उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘‘किसी भी फ़नकार के लिए गाने की मुनासिबत से अपना मूड बदलना बहुत ही दुश्वार अमल होता है. वैसे गाने के बोल से ही पता चल जाता है कि गाना किस मूड का है. फिर डायरेक्टर भी हमें पूरा सीन समझा देता है, जिससे गाने में आसानी होती है. कुछ गानों में फ़नकार की अपनी भी दिलचस्पी होती है. फिर उस गीत का एक-एक लफ़्ज दिल की गहराइयों से छूकर निकलता है.’’ रफ़ी साहब ने बड़े ही सरलता और सहजता से भले ही यह बात कह दी हो, लेकिन गाने वाले जानते हैं कि यह इतना आसान भी नहीं.

रफ़ी फ़िल्मी दुनिया में अपने कॅरिअर की शुरूआत में कुंदन लाल सहगल, जी. एम. दुर्रानी और तलत महमूद की गायकी के प्रशंसक रहे. शुरू की फ़िल्मों में उन्होंने उनकी गायन शैली को अपनाया, लेकिन बाद में अपना ख़ुद का स्टाइल बना लिया. वे ख़ुद ही दूसरे गायकों के लिए आईकॅन बन गए. रफ़ी ने तमाम अदाकारों के लिए तो गाया ही, पार्श्व गायक किशोर कुमार के लिए भी आठ गाने गाए. यही नहीं 1945 में, वे पहली बार फ़िल्म ‘लैला मजनू’ के एक गीत ‘‘तेरा जलवा जिसने देखा’’ के लिए फिल्म स्क्रीन पर भी आए. रफ़ी की ज़िंदगी में एक दौर ऐसा भी आया था, जब वे कुछ अरसे के लिए फ़िल्मों से दूर हो गए थे. 1971 में रफ़ी साहब हज पर गए थे. जब वह वहाँ से लौटने लगे, तो कुछ मौलवियों और उलेमा ने उनसे कहा, ‘‘अब आप हाजी हो गए हैं. लिहाज़ा आपको फ़िल्मों में नहीं गाना चाहिए.’’ रफ़ी यह बात मान भी गए और वाक़ई लौटकर उन्होंने गाने गाना बंद कर दिया.

उनके इस फ़ैसले से उनके चाहने वालों को बड़ी निराशा हुई. सभी ने उनसे मिन्नतें कीं कि वह फिर से गाना शुरू कर दें. आख़िरकार नौशाद साहब ने उन्हें समझाया,‘‘गाना छोड़ कर ग़लत कर रहे हो, मियां. ईमानदारी का पेशा कर रहे हो, किसी का दिल नहीं दुखा रहे. यह भी एक इबादत है. अब बहुत हो गया, अब गाना शुरू कर दो.’’ और तब रफ़ी साहब ने फिर से गाना शुरू किया. अपनी इस वापसी के बाद रफ़ी ने ’हम किसी से कम नहीं’, ’यादों की बारात’, ‘अभिमान’, ‘बैराग’, ‘लोफ़र’, ‘लैला मजनूं’, ‘सरगम’, ‘दोस्ताना’, ‘अदालत’, ‘अमर, अकबर, एंथनी’, ‘कुर्बानी’ और ‘क़र्ज़’ जैसी कई फ़िल्मों के लिए बहुत से यादगार गीत गाए.

अपने पेशे के लिए वह बहुत समर्पित इंसान थे. शोहरत की बुलंदियों को छूने के बाद भी कोई शौक उन्हें कभी छू नहीं पाया. फ़िल्मों में तरह-तरह के गीत गाने वाले रफ़ी यों कम ही बोलते थे. इंटरव्यू और फ़िल्मी पार्टियों से दूर रहते. हँसमुख और दरियादिल ऐसे कि हमेशा सबकी मदद के लिये तैयार रहते थे. कई फ़िल्मी गीत उन्होंने बिना पैसे लिये या बेहद कम पैसे लेकर गाए. सैंकड़ों फ़िल्मों के लिए गाया लेकिन ख़ुद फ़िल्में देखने का बिल्कुल शौक़ नहीं था. परिवार के साथ कभी उनकी ज़िद पर कोई फ़िल्म देखने जाते, तो वहां सो जाते. अपने परिवार और ख़ास दोस्तों के साथ बैडमिंटन, कैरम खेलना और पतंग उड़ाने का शौक ज़रूर था. ‘दुलारी’ का गाना ‘‘सुहानी रात ढल चुकी, न जाने तुम कब आओगे’’ ख़ुद उन्हें बहुत पसंद था. 1970 के दशक में उन्होंने कई लाइव कार्यक्रमों में शिरकत की और इसके लिए पूरी दुनिया घूमे. दुनिया भर में उनके मुरीदीन अब भी हैं. ऐसी शोहरत बहुत कम लोगों को नसीब होती है.

‘फिल्म फेयर’ अवार्ड के लिए उन्हें सोलह बार नॉमिनेट किया गया और छह बार उन्हें यह पुरस्कार मिला. ’चौदहवीं का चाँद हो तुम’ (फिल्म ’चौदहवीं का चाँद’, साल 1960), ’तेरी प्यारी-प्यारी सूरत को’ (फिल्म ’ससुराल’, साल 1961), ’चाहूँगा मैं तुझे साँझ सवेरे’ (फिल्म ’दोस्ती’, साल 1964), ’बहारों फूल बरसाओ’ (फिल्म ’सूरज’, साल 1966), ’दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर’ (फ़िल्म ब्रह्मचारी, साल 1968) और ’क्या हुआ तेरा वादा’ (फिल्म ’हम किसी से कम नहीं’, साल 1977) के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक का फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिला. ’क्या हुआ तेरा वादा’ के लिए ही रफ़ी को पहली बार सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. 1965 में उन्हें पद्मश्री से नवाजा गया. 1980 में अपनी मौत से ठीक दो दिन पहले फिल्म उन्होंने फ़िल्म ‘आस-पास’ के लिए गाना रिकॉर्ड किया था. इस अज़ीम फ़नकार की मौत पर उन्हें ख़िराजे अक़ीदत पेश करते हुए नौशाद ने क्या खूब कहा था, ‘‘कहता है कोई दिल गया, दिलबर चला गया/ साहिल पुकारता है, समंदर चला गया/ लेकिन जो बात सच है कहता नहीं कोई/ दुनिया से मौसिक़ी का पयम्बर चला गया.’’


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