आज़ादी के गीतों से सजी सहमत की एक शाम

नई दिल्ली | यहाँ आयोजित संगीत समारोह ‘सॉन्ग्ज़ ऑफ़ फ़्रीडम – आज़ादी के गीत’ में सुमंगला दामोदरन ने दिल खोलकर गाया. यह कार्यक्रम संभवतः 1857 से लेकर आज तक के प्रतिरोध, क्रांति, संघर्ष और भारतीय आज़ादी आंदोलन के गीतों का सबसे प्रभावशाली और वैविध्यपूर्ण संग्रह था. उन्होंने जलियाँवाला बाग कांड से लेकर टैगोर, गांधी, बंगाल के अकाल, मुल्क के बंटवारे और दिल्ली दंगों के दर्द और जन-भावनाओं को अपने गीतों के मार्फ़त अभिव्यक्त किया, और गाज़ा के प्रति एकजुटता भी दिखाई.

सुमंगला ने जलियाँवाला बाग हत्याकांड के बाद एक गुमनाम कवि के लिखे हुए गीत “दिन ख़ून के” (हिंदुस्तानी) से कार्यक्रम की शुरुआत की; मूल रूप से 1940 के दशक की शुरुआत में इप्टा बॉम्बे सेंट्रल स्क्वॉड में प्रीति सरकार ने यह गीत गाया था. 1919 के जलियाँवाला हत्याकांड से, वह 20 सितंबर 1933 की ओर चली आईं, जब महात्मा गांधी पुणे में ‘आमरण अनशन’ पर थे. रवींद्रनाथ टैगोर महात्मा से मिलने गए और उनसे अपना अनशन तोड़ने का अनुरोध किया. उनके इस आग्रह के बाद, गांधी ने टैगोर से अपना एक गीत गाने को कहा—और वह बांग्ला गीत था “जीबोन जोखोन…”—सुमंगला ने जिसे सौम्य बांग्ला लहजे में डूबकर गाया.

इसके बाद “वझगा नी एम्मान” (मलयालम) नाम का एक गीत था, जो मूल रूप से सुब्रमण्यम भारती की एक कविता थी, जिसे उन्होंने महात्मा गांधी को तब पढ़कर सुनाया था, जब मद्रास में सी. राजगोपालाचारी के घर दोनों की मुलाक़ात हुई थे. सुमंगला के अगले गीत ने श्रोताओं को हैरान कर दिया, जब उन्होंने एक हरे तोते के लिए एक किसान लड़की का प्रेम गीत गाया. यह गीत, “पच्चप्पनमत्तते” (मलयालम) मूल रूप से पी.के. मेदिनी ने गाया था, जो अब 90 वर्ष की आयु पार कर चुकी हैं और राजनीतिक रूप से अब भी सक्रिय हैं.
शीला भाटिया की रची हुई हीर (पंजाबी) गाकर उन्होंने सुनने वालों को हैरानी के समंदर में गोते लगाने के लिए छोड़ दिया. 1943 में बंगाल दुर्भिक्ष के दिनों में जन जागरूकता फैलाने की मंशा से इसे लाहौर में किसान सभा की ओर से आयोजित रैली में गाया गया था. उनकी आवाज़ के सोज़ और क्रंदन ने अकाल की मानवीय त्रासदी और दुःखद पंजाबी प्रेम कहानी को बख़ूबी व्यक्त किया.

एहसान अली

इसके बाद मख़दूम मोहिउद्दीन द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान लिखा गया गीत “जाने वाले सिपाही से पूछो…” (हिंदी) एक और मार्मिक रचना थी. यह गीत तब लिखा गया था, जब कवि ने ग़रीब किसानों को युद्ध के लिए जाने वाली ब्रिटिश सेना में शामिल होने के लिए जुटते हुए देखा था. परचम समूह ने देश में सिख विरोधी नरसंहार के बाद 1984 में इस गीत को पुनर्जीवित किया था. सुमंगला ने एक और लोकप्रिय भोजपुरी गीत “अजादिया” गाया, जिसे जेएनयू के एक क्रांतिकारी कवि गोरख पांडे ने लिखा था, और जिन्होंने 1988-89 के आसपास अपनी जान दे दी थी. दुष्यंत कुमार की एक और मार्मिक कविता सुमंगला ने इतने जोश के साथ गाई कि गाने में श्रोता भी उनके साथ शरीक हो गए. “हो गई है पीर पर्वत सी…”, यह किसी भी मौक़े पर किसी भी सुनने वाले को भाव-विह्वल कर देने वाली ग़ज़ल है.

बात जब संघर्ष, क्रांति, प्रतिरोध और आज़ादी की हो रही हो, तो फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की आवाज़ भला कैसे छूट सकती है. इसके बाद, शाम के दूसरे और आख़िरी कार्यक्रम में, फ़ैज़ की सदाबहार नज़्म “अब तुम ही कहो क्या करना है, अब कैसे पार उतरना है…” थी, जिसे उन्होंने बेरूत में लिखा था और अपने आख़िरी संग्रह में यासर अराफ़ात को समर्पित किया था.

सहमत की ओर से आयोजित “स्वतंत्रता के गीत” संध्या का समापन गीत “बालिकुदेरंगले” (मलयालम) था. केरल पीपुल्स आर्ट्स क्लब ने यह गीत 1957 में, पहली कम्युनिस्ट सरकार के सत्ता में आने के तुरंत बाद, तैयार किया था. इसे 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों को श्रद्धांजलि स्वरूप गाया गया था. इस गीत में सुमंगला के साथ क्लब के कुछ सदस्य भी शामिल हुए.

सुमंगला के साथ गिटार पर मार्क अरन्हा और सारंगी पर एहसान अली ने संगत की. उन्होंने हिंदुस्तानी, भोजपुरी, बांग्ला, तमिल, पंजाबी और मलयालम में गायन किया.

सुमंगला दामोदरन एक अर्थशास्त्री और लोकप्रिय संगीत-अध्ययन की विद्वान हैं. वह संगीतकार और रचनाकार भी हैं, जिन्होंने भारतीय प्रतिरोध संगीत परंपराओं का संग्रह और लेखन किया है. एक विकास अर्थशास्त्री के रूप में, उनके शोध का क्षेत्र और लेखन, मुख्यतः औद्योगिक और श्रम अध्ययन, और विशेष रूप से औद्योगिक संगठन, वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं, अनौपचारिक क्षेत्र, श्रम और प्रवासन, के बारे में हैं. अपनी अकादमिक व्यवस्ताओं के अलावा, वह एक गायिका और संगीतकार भी हैं.

फ़ोटो क्रेडिट | राजिंदर अरोड़ा


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