पर्यावरण की हिफ़ाज़त का मंत्र पुरखों की परंपरा में
बांदा | नरैनी में हुए ब्याह में दोना-कुल्हड़ या मउर-मंगलाचार कोई नवाचार नहीं, ऐसी परंपरा है, जिसे बिसार दिया गया है. और कुछ चेतना सम्पन्न लोग ऐसी परम्पराओं की ख़ूबियाँ याद दिलाकर उन्हें वापस अमल में लाने की कोशिश में लगे हैं.
गोरे पुरवा में हुई शादी की प्रेरणा यशवंत कुमार हैं. पेशे से शिक्षक और पर्यावरण की बेहतरी के लिए पुरखों की परंपरा में भरोसे के हामी यशवंत कुमार अब तक चौदह लड़कियों की शादी करा चुके हैं. उनका कहना है कि ऐसी शादी के लिए दोनों पक्ष के लोगों की सहमति अहम है.
गोरे पुरवा में माँ-पिता को खो चुकी वंदना को यशवंत कुमार ने बेटी माना था. मध्य प्रदेश के गोपरा में वंदना की शादी भी उन्होंने ही तय की. 16 जून को बारात आई. सारे बाराती बैलगाड़ी से आए. दूल्हा कमलेश के सिर पर खजूर का मउर था.
शादी में लाइट-बैंड के तमाझाम का इंतज़ाम भी नहीं किया गया. यूं कहें कि इसके लिए न लड़की वालों ने ज़िद की और न लड़के वालों ने. बैंडबाजा, डीजे और आतिशबाज़ी के शोरशराबे की जगह सिर्फ़ ढोलक की थाप थी. बारातियों और दूल्हे के स्वागत में महिलाओं ने मंगल गीत गाए.
विवाह स्थल को फूलों-पत्तियों से सजाया गया. बारातियों-घरातियों को हरे छ्यूल के पत्तों पर नाश्ता और भोजन, कुल्हड़ में पानी और आम का पना परोसा गया.
विदाई से पहले वंदना और कमलेश ने नीम और आम के पौधे रोपे. ससुराल में भी दो पौधे रोपने का संकल्प करते गए. हर बराती को उपहार में पौधे मिले.
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