सुंदरलाल बहुगुणा | पर्यावरण और संस्कृति को समर्पित संत

टिहरी गढ़वाल के उस छोटे-से गाँव मरोड़ा में आमतौर पर बाहर के लोग दिखाई नहीं देते थे, यही वजह है कि धोती-कुर्ता और टोपी पहने, हाथ में संदूकची थामे उस अजनबी नौजवान को देखकर मैदान में खेल रहे बच्चों में कौतूहल जागा. खेलना छोड़-छाड़कर बच्चों भागकर उस अजनबी के पास पहुंच गए. पूछा कि संदूकची में क्या रखा है? नौजवान ने पेड़ की छांव में बैठकर अपनी संदूकची खोली और चरखे पर सूत कातने लगा.

उसने बच्चों को बताया कि यह गांधीजी का चरखा है. इससे हम अपने कपड़े ख़ुद बनाएंगे और अंग्रेज़ों को हिन्दुस्तान छोड़ने के लिए मजबूर कर देंगे. फिर उसने बच्चों से पूछा – और तुम पढ़-लिख कर क्या करोगे? जवाब मिला – राजपरिवार की सेवा.

उसने फिर पूछा – तो जनता की सेवा कौन करेगा? क्या तुम चांदी के चंद टुकड़ों के लिए ख़ुद को बेच दोगे? इस सवाल ने उस भीड़ में खड़े एक किशोर के मन को गहरे तक झकझोर दिया. वह किशोर सुंदरलाल बहुगुणा थे. और वह नौजवान गाँधी के शिष्य श्रीदेव सुमन.

यह श्रीदेव सुमन की सोहबत का ही असर था कि खेलने-कूदने की उम्र में उन्होंने अपना जीवन समाज को समर्पित करने का संकल्प कर लिया. श्रीदेव सुमन ने उनका पूरा सहयोग किया. श्रीदेव की मौजूदगी और उनके राजशाही विरोधी रवैये ने मगर गाँव के राजभक्त लोगों में खलबली मचा दी. ख़ुद सुंदरलाल का परिवार राजभक्त था और उसे भी यह सब नाग़वार गुज़रा. गांव के लोगों के रवैये और अपने परिवार से मतभेद के बाद तेरह साल की उम्र में उन्होंने घर और गाँव दोनों छोड़ दिए.

महात्मा गांधी और मीराबेन की प्रेरणा उनके जीवन दर्शन का पाथेय बनी. सुंदरलाल ने उनसे सीखा कि अहिंसा के रास्ते पर चलकर भी समाज में बड़ा परिवर्तन कैसा संभव है. शराबबंदी हो, चिपको आंदोलन या टिहरी बांध का विरोध – उन्होंने हमेशा ही शांतिपूर्ण लड़ाई लड़ी. अहिंसा के रास्ते पर चलकर ही सामाजिक आंदोलनों को मुकाम तक पहुंचाया.
सत्याग्रह और जनजागरण के लिए उनकी पैदल यात्राएं तो गाँधी से प्रेरित थीं ही, विमला जी से ब्याह के वक़्त दूरस्थ ग्राम्य अंचल में आश्रम बनाकर रहने वाले जीवन की शर्त भी ऐसा ही बताती है.

120 दिन में चौदह सौ किलोमीटर की यात्रा
शराब बंदी आंदोलन को मिले जनसमर्थन के बाद सुंदरलाल बहुगुणा ने जातीय समानता, शराबबंदी, महिला सशक्तिकरण और वन संरक्षण का संदेश पूरे उत्तराखंड में फैलाने की ठानी. 1973 में दीपावली के दिन उन्होंने अपने आध्यात्मिक गुरू स्वामी चिदानंद का आशीर्वाद लेकर 25 अक्टूबर को सिमलासू से यात्रा शुरू की.

उनकी इस यात्रा का पहला पड़ाव मरोड़ा गांव था, जहाँ वह तीन दशक बाद लौटे थे. वहां से वह जौनपुर, जौनसार के रवांई, बावर, रुद्रप्रयाग, चमोली के सुखताल होते हुए ग्वालदम और थराली से कपकोट पहुंचे. फिर पिथौरागढ़, अल्मोड़ा और नैनीताल होते हुए इस 1400 किलोमीटर की पैदल यात्रा से उन्होंने पूरा उत्तराखंड नाप डाला. 22 फरवरी 1974 को मुनि की रेती में यात्रा पूरी की.

यात्रा के दौरान जिस गांव में वह रुकते, वहां के लोगों को अपनी यात्रा के अनुभव भी सुनाते. उनकी पीठ पर एक भारी पिट्ठू होता, जिसमें कपड़े और सूत कातने के लिए गांधी का चरखा और किताबें भी होती. यात्रा के दौरान उन्होंने देखा कि जहां जंगल काटे गए हैं, वहां पहाड़ खिसक रहे थे, लेकिन जहां लोगों ने बांज और चौड़ी पत्ती के जंगलों को बचाकर रखा, वहां की फ़िज़ां ही अलग थी. इस यात्रा तबाही के मंज़र देखकर ही उन्हें पर्यावरण संरक्षण के लिए आंदोलन शुरू करने की प्रेरणा मिली.

आराकोट से अस्कोट तक पैदल यात्रा
चिपको आंदोलन में युवाओं की भागीदारी के इरादे से उन्होंने 25 मई 1974 को गढ़वाल में आराकोट से कुमाऊं में अस्कोट तक की यात्रा की. सात सौ किलोमीटर की यह यात्रा उन्होंने 44 दिन में पूरी की. वह गांव-गांव जाकर घनश्याम सैलानी के गीत – खड़ा उठा भै बंधु सब कठ्ठा होला, सरकारी नीति से जंगलू बचौला, ठेकेदारी प्रथा से जंगल कटीगे, चिपका पेड़ों पर अब न कटेण द्या, जंगलू की संपत्ति अब न लुटेण द्या आदि गीतों से लोगों को जागरुक करते.

74 दिन का उपवास
यह 1995 की बात है, जब टिहरी बाँध के निर्माण के विरोध में उन्होंने भागीरथी नदी के किनारे अनशन शुरू किया था. उस समय प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने उनसे वायदा किया कि बाँध के निर्माण का काम रोक दिया जाएगा और एक स्वतंत्र समिति बनाई जाएगी जो बाँध बनने के सामाजिक और आर्थिक प्रभावों के साथ ही पर्यावरण पर इसके असर की समीक्षा करेगी. 45 दिन बाद उन्होंने अपना अनशन तोड़ दिया था. प्रधानमंत्री के अपने वायदे से मुकर जाने के बाद सुंदरलाल बहुगुणा ने फिर से अनशन का फ़ैसला किया.

उनकी सेहत के लिए फ़िक्रमंद दोस्तों-शुभचिंतकों ने उन्हें बहुत रोका मगर वे नहीं माने. तब उन्होंने एक ख़त लिखकर अपने अनशन की ज़रूरत समझाई थी – “हिमालय तपोभूमि है. तप के बिना, कष्ट सहे बिना इस दुनिया में कुछ हासिल नहीं किया जा सकता. मेरा अनशन उन लोगों की तरफ़ से है, जो मरती हुई पृथ्वी को बचाने के लिए लगातार जूझ रहे हैं. हमारी ज़िंदगी की ख़ातिर आख़िर कोई नदी, पहाड़, जगंल या समुद्र क्यों ख़त्म हो जाने चाहिए.”

इस बार उनका अनशन 74वें टूटा, जब नए प्रधानमंत्री एच.डी.देवगौड़ा ने उन्हें भरोसा दिलाया कि बाँध की ज़रूरत की समीक्षा के लिए वह दो समितियाँ बनाएंगे, जिनमें से एक समिति में सदस्यों के चयन का फ़ैसला सुंदरलाल बहुगुणा ख़ुद करेंगे.

हिमालय के लोगों, उनकी संस्कृति और पर्यावरण की रक्षा के लिए उम्र भर संघर्ष करते रहे सुंदरलाल बहुगुणा पीढ़ियों की प्रेरणा बने रहेंगे.


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