राहत इंदौरी | उन चराग़ों को बुझा दो तो उजाले होंगे

  • 10:46 pm
  • 11 August 2020

राहत इंदौरी के नाम के साथ मरहूम लिखने में हाथ कांप गए. सुबह बीमारी की ख़बर सुनी तो उनके सेहत-याब होकर लौटने का पूरा यक़ीन था. मगर शाम को यह मनहूस ख़बर आई. और अभी यह लिखते हुए सोचता हूं कि उनके काम और उनके मिज़ाज को अगर एक लफ़्ज़ में कहना पड़े तो क्या कहेंगे! मेरे ख़्याल से उनकी बेबाक़ी, सच बयान करने का माद्दा. और इस लिहाज़ से वह जोश, साहिर, फ़ैज़, फ़राज़ और हबीब जालिब की परंपरा के शायर हो जाते हैं. सचबयानी के उतने ही कायल.

हुकूमत किसी भी रहनुमा की हो, राहत इंदौरी की ग़ज़ल ने उसे नहीं बख्शा. 1986 में उन्होंने कराची में एक शेर पढ़ा और नेशनल स्टेडियम में हज़ारों लोग खड़े होकर देर तक तालियां बजाते रहे. उसी शेर को कुछ अर्से बाद दिल्ली के लाल किले के मुशायरे में पढ़ा, तब भी उसी तरह की शोरअंगेज़ी हुई. वह शेर था, ‘अब के जो फ़ैसला होगा वो यहीं पे होगा/ हमसे अब दूसरी हिजरत नहीं होने वाली..’ यह शेर पाकिस्तान और हिंदुस्तान के अवाम के मुश्तरका ग़म को बख़ूबी बयान करता है. उनका एक और शेर है, ‘ मेरी ख़्वाहिश है कि आंगन में न दीवार उठे/ मेरे भाई मेरे हिस्से की ज़मीं तू रख ले..’ यह शेर भी गौरतलब है, ‘हम ऐसे फूल कहां रोज़-रोज़ खिलते हैं/ सियह गुलाब बड़ी मुश्किलों से मिलते हैं..’

राहत इंदौरी दुनिया भर में घूमे लेकिन मन हिंदुस्तान और अपने घर ही रमा. उनकी शरीके-हयात सीमा जी ने कहीं एक इंटरव्यू में कहा था कि वह एक बार एक महीने अमेरिका रहकर लौटे तो सीधे रसोई में पहुंच गए और कहने लगे- “घर का खाना लाओ, इससे अच्छा खाना पूरी दुनिया में कहीं नहीं मिलता.”

बेहतरीन ग़ज़ल-गो और गीतकार होने के साथ वह उम्दा चित्रकार भी थे. मुसव्विरी में भी उनके जज़्बात ख़ूब-ख़ूब उभरते थे. जिन्होंने उनका यह हुनर देखा है, वे बताते हैं कि ब्रश और रंगों से भी वह नायाब ग़ज़ल कहते थे. राहत साहब ने एक बार कहा था कि पेंटिंग की प्रेरणा उन्हें रविंद्र नाथ टैगोर से मिली. पेंटिंग सीखने की शुरुआत उन्होंने इंदौर के ज्योति स्टूडियो (ज्योति आर्ट्स) से की, जिस के संचालक छगनलाल मालवीय थे. इंदौर के गांधी रोड पर हाईकोर्ट के पास यह स्टूडियो था. उन दिनों ज्यादातर सिनेमा के बैनर और होर्डिंग का काम यहां होता था. इसी स्टूडियो के पास सिख मोहल्ला था, जहां लता मंगेशकर का जन्म हुआ. प्रसंगवश, राहत साहब ने नायाब गीत भी लिखे और उनमें कुछ को लता जी ने स्वर दिया.

राहत इंदौरी नौवीं जमात में थे. उनके नूतन हायर सेकेंडरी स्कूल में मुशायरा हुआ. जांनिसार अख़्तरर की ख़िदमत उनके हवाले थी. वह उनसे ऑटोग्राफ लेने गए तो कहा कि मैं भी शेर कहना चाहता हूं, इसके लिए मुझे क्या करना होगा. अख़्तर साहब का जवाब था कि पहले कम से कम-से-कम पांच हजार शेर याद करो. राहत साहब ने कहा कि इतने तो मुझे अभी याद हैं. जनाब जांनिसार अख़्तर ने सिर पर हाथ रखा और कहा कि तो फिर अगला शेर जो होगा वह तुम्हारा ख़ुद का होगा. ऑटोग्राफ देने के बाद अख़्तर साहब ने अपनी ग़ज़ल का एक शेर लिखना शुरू किया, ‘हम से भागा न करो दूर, ग़जालों की तरह…’ राहत साहब के मुंह से बेसाख़्ता दूसरा मिसरा निकला, ‘हमने चाहा है तुम्हें चाहनेवालों की तरह…’

ताउम्र वह जांनिसार अख़्तर का बेहद एहेतराम करते रहे लेकिन शायरी में उनके उस्ताद कैसर इंदौरी साहब थे. उनकी शागिर्दी में आने के बाद राहत साहब ने अपना नाम ‘राहत कैसरी’ रख लिया था. उनके पहले मज्मूआ ‘धूप-धूप’ राहत कैसरी नाम से शाया हुआ था. बाद में अपने उस्ताद की सलाह पर ही उन्होंने अपना नाम राहत इंदौरी कर लिया. शुरुआती मुशायरों में उन्हें ‘इंदौरी’ होने का ख़ामियाजा भी भुगतना पड़ा. ख़ासतौर पर जो मुशायरे दिल्ली, लखनऊ और भोपाल में होते थे. उनका गोशानशीन उस्तादों और उनके नामनिहाद शागिर्दों को जवाब होता था, ‘जो हंस रहा है मेरे शेरों पे वही इक दिन/ क़ुतुबफ़रोश से मेरी किताब मांगेगा…’ शुरुआती दिनों का ही उनका एक शेर है, ‘मैं नूर बन के ज़माने में फैल जाऊंगा/ तुम आफ़्ताब में कीड़े निकालते रहना…’

वस्तुत: सियासत की शायरी उनके मिज़ाज का मूल थी. इन दिनों के मुशायरों में भी अक्सर वह विपरीत हवा पर शेर कहते थे. उनका यह शेर याद कीजिए, ‘जिन चराग़ों से तअस्सुब का धुआं उठता है/ उन चराग़ों को बुझा दो तो उजाले होंगे…’ इस शेर के ज़रिए वह सीधा फ़िरकापरस्त सियासत पर कटाक्ष करते हैं. उनके बेशुमार प्रशंसकों का एक पसंदीदा शेर है, ‘ज़रूर वो मेरे बारे में राय दे लेकिन/ यह पूछ लेना कभी मुझसे वो मिला भी है?’ बहुत पहले उन्होंने लिखा था, ‘तुम्हें पता ये चले घर की राहतें क्या हैं/ अगर हमारी तरह चार दिन सफ़र में रहो….’ उनका यह शेर भी रोशनी की मानिंद हैं कि ‘रिवायतों की सफ़ें तोड़कर बढ़ो वर्ना, जो तुमसे आगे हैं वो रास्ता नहीं देंगे…’.

जिस प्रगतिशील रिवायत से उनकी शायरी थी, उसी में यह लिखना संभव था, ‘हम अपने शहर में महफूज़ भी हैं, ख़ुश भी हैं/ ये सच नहीं है, मगर ऐतबार करना है…’ इसी क़लम से यह भाव भी निकला, ‘मुझे ख़बर नहीं मंदिर जले हैं या मस्जिद/ मेरी निगाह के आगे तो सब धुआं है मियां…’ यह भी लिखा: ‘महंगी कालीनें लेकर क्या कीजिएगा/ अपना घर भी इक दिन जलनेवाला है….’ और यह भी कि, ‘गुजिश्ता साल के जख्मों हरे-भरे रहना/ जुलूस अब के बरस भी यहीं से निकलेगा…’

कितने ही शेर याद आ रहे हैं लेकिन यह शेर कहकर बात पूरी करता हूं कि ‘घर की तामीर चाहे जैसी हो/ उसमें रोने की कुछ जगह रखना..!’ घरों का तो नहीं मालूम, मगर बहुतों के दिल का हाल ऐसा ही है.

जन्म | 1 जनवरी 1950 – निधन | 11 अगस्त, 2020


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