दिनेश ठाकुर | थिएटर जिनकी सांसों में बसता था

  • 8:07 pm
  • 20 September 2020

हिन्दी रंगमंच की दुनिया में दिनेश ठाकुर की पहचान रंगकर्मी, अभिनेता और नाट्य ग्रुप ‘अंक’ के संस्थापक और निर्देशक के तौर पर है. ‘अंक’ का सफ़र 1976 में शुरू हुआ, जो उनके इस दुनिया से जाने के आठ साल बाद भी जारी है. रंगमंच हो, टेलीविज़न या फिर सिनेमा – हर क्षेत्र में उन्होंने अपनी अलग छाप छोड़ी.

दिनेश ठाकुर ने शुरूआत रंगमंच से ही की हालांकि बाद में फ़िल्मों में भी काम किया. यों बुनियादी तौर पर वह पूर्णकालिक रंगकर्मी ही थे. थिएटर उनकी सांसों में बसता था, उनका जुनून था. 8 अगस्त, 1947 को जयपुर में जन्मे दिनेश ठाकुर का नाटक के जानिब लगाव स्कूल के दिनों से ही था. जब वह नौंवी में थे, तभी उन्होंने अपना पहला नाटक ‘औरंगजेब की आख़िरी रात’ डायरेक्ट किया. नाटक कामयाब रहा. और इस कामयाबी ने उनमें नाटक के प्रति गहरा लगाव पैदा किया. अठारह साल का होते-होते उन्होंने पक्का इरादा कर लिया था, ”एक्टर बनूंगा, एंटरटेनर बनूंगा. लोगों को मनोरंजन दूंगा. हंसाऊंगा, बस!”

दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज में पढ़ाई के दौरान वह कॉलेज की ड्रामेटिक सोसायटी का हिस्सा बन गए और पांच सालों तक ख़ूब नाटक किए. उन दिनों दिल्ली में कहीं भी नाटक खेले जाते, वह देखने ज़रूर जाते. दिल्ली में ही उन्हें हिन्दी रंगमंच के दो दिग्गज निर्देशकों बी.वी. कारंत और हबीब तनवीर के साथ काम करने का मौक़ा मिला. इन दोनों के साथ उन्होंने नाटक की लम्बी रिहर्सल की. लेकिन अफसोस कि इन दोनों ही नाटकों के शो किसी वजह से नहीं हो सके. नाटक के शो भले ही नहीं हो पाए, पर इन दोनों ही निर्देशकों के साथ किए काम का तजुर्बा दिनेश ठाकुर को बाद में बहुत काम आया.

कॉलेज की पढ़ाई के बाद वह ‘अभियान’ संस्था से जुड़ गए. ‘अभियान’ में उन्होंने राजेन्द्रनाथ, टी. पी. जैन, किशोर कपूर, नमित कपूर जैसे दिग्गज कलाकारों-निर्देशकों के साथ काम किया. बाद में ओम शिवपुरी के नाट्य ग्रुप ‘दिशांतर’ से भी जुड़े. दिनेश ठाकुर का पहला फुललेंथ प्ले ‘केयरटेकर’ था, जिसे उन्होंने ही निर्देशित किया. रंगमंच में उनके काम की ख्याति उन्हें बंबई खींच ले गई. बासु भट्टाचार्य उन दिनों ‘अनुभव’ बना रहे थे, जिसके एक रोल के लिए उन्होंने दिनेश ठाकुर को बंबई बुला लिया. 1971 में आई ‘अनुभव’ टिकट खिड़की पर हिट रही और फ़िल्म देखने वालों को दिनेश ठाकुर का काम बहुत पसंद आया. ‘अनुभव’ के बाद उन्हें एक साथ कई फ़िल्में और मिल गईं, जिसमें बासु चटर्जी की फ़िल्म ‘रजनीगंधा’ भी शामिल थी. ‘रजनीगंधा’ न सिर्फ़ सुपर हिट हुई, बल्कि इस फ़िल्म को बेस्ट मूवी का फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड भी मिला. इस फ़िल्म की क़ामयाबी के बाद दिनेश ठाकुर ने दिल्ली को हमेशा के लिए छोड़ दिया.

मायानगरी में उनकी फ़िल्मों की सफ़र शुरू हो गई. ‘परिणय’, ‘कालीचरण’, ‘कर्म’, ‘मधु मालती’, ‘घर’, ‘नैय्या’, ‘मीरा’, ‘गृह प्रवेश’, ‘ख्वाब’, ‘अग्नि परीक्षा’, ‘बग़ावत’, द बर्निंग ट्रेन’, ‘आमने-सामने’,’आज की आवाज़’, ‘आस्था’, ‘फ़िज़ा’ जैसी ऑफ बीट और कमर्शियल फ़िल्मों में उन्होंने एक साथ अदाकारी की. कुछ फ़िल्मों के लिए उन्होंने कहानी और स्क्रीनप्ले भी लिखा. 1978 में आई फ़िल्म ‘घर’ की स्टोरी और स्क्रीनप्ले दिनेश ठाकुर का ही था और इस फ़िल्म के लिए 1979 में उन्हें बेस्ट स्टोरी का फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड भी मिला. निर्देशक बासु भट्‌टाचार्य के साथ दिनेश ठाकुर किसी न किसी तौर पर जुड़े रहे, चाहे अदाकार के तौर पर या फिर स्क्रिप्ट और डायलॉग लेखक के तौर पर या फिर क्रिएटिव कंसल्टेंट के तौर पर.

दिनेश ठाकुर फ़िल्में ज़रूर कर रहे थे, लेकिन उनकी मंजिल रंगमंच था. बंबई में रंगमंच की दुनिया में जमने के लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा. उस वक्त मुंबई में ‘इप्टा’ का बड़ा नाम था. मशहूर रंग-निर्देशक सत्यदेव दुबे के निर्देशन में इप्टा के लगातार नाटक हो रहे थे. नाटक करने के लिए दिनेश ठाकुर ने सभी निर्देशकों से मुलाक़ात —बात की, लेकिन कहीं बात बनी नहीं. सब तरफ से निराश होकर, उन्होंने ख़ुद ही नाटक करने का फैसला किया. 1976 में सुरेन्द्र गुलाटी के लिखे नाटक ‘शाबास अनारकली’ से वे बंबई में रंगमंच पर उतरे. इस नाटक के साथ ही उनका नाट्य ग्रुप ‘अंक’ भी अस्तित्व में आया. दिनेश ठाकुर ने अपने नाटक का पहला प्रोडक्शन ‘अंक’ के बैनर पर ही किया. इस नाटक के सफल प्रदर्शन के बाद उन्होंने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. शुरूआत में उन्हें रंगमंच की दुनिया में पांव जमाने में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा. पैसे के लिए उन्होंने दुर्गा पूजा और गणेशोत्सव के मौक़ों पर भी नाटक किए.

रंगमंच पर उनकी मेहनत आहिस्ता—आहिस्ता रंग लाई और उनके पास नाटक के प्रस्ताव आने लगे. अपने प्रोडक्शन हाउस ‘अंक’ के बैनर पर दिनेश ठाकुर ने ‘बाक़ी इतिहास’ (बादल सरकार), ‘काग़ज़ की दीवार’, ‘बीबियों का मदरसा’, ‘आला अफ़सर’, ‘कमला'(विजय तेंदुलकर), ‘जित लाहौर न वेख्या’ (असगर वजाहत), ‘पगला घोड़ा'(बादल सरकार), ‘जात ही पूछो साधो की'(विजय तेंदुलकर), ‘खामोश! अदालत जारी है'(विजय तेंदुलकर), ‘शह या मात'(बीएम शाह), ‘रक्तबीज'(शंकर शेष), ‘आधे अधूरे'(मोहन राकेश), ‘टोपी शुक्ला'(राही मासूम रजा), ‘हाय मेरा दिल’, ‘महाभोज'(मन्नू भंडारी), ‘हंगामाख़ेज़'(आगा हश्र काशमीरी), ‘जाने न दूंगी’, ‘जीया जाए ना’, ‘हमेशा’, ‘हम दोनों’ समेत साठ नाटकों का निर्देशन किया.

पर उन्हें असली पहचान और प्रसिद्धि नाटक ‘तुगलक’ (गिरीश कर्नाड) से मिली. 1988 में पहली बार प्रदर्शित हुआ उनका यह नाटक इतना कामयाब हुआ कि बंबई में 18 दिन के अंदर इसके तीस शो हुए और 23 शो हाउसफुल. बंबई रंगमंच के इतिहास में सचमुच यह एक बड़ी घटना थी. ‘तुगलक’ की कामयाबी के बाद थिएटर में दिनेश ठाकुर के क़दम रूके नहीं, बल्कि आगे और आगे बढ़ते चले गए. इस नाटक के बाद उनका नाटक ‘महाभोज’ आया और इसे भी ‘तुगलक’ की तरह कामयाबी हासिल हुई. अंग्रेंज़ी नाटक ‘सेन्ड मी नो फ़्लावर’ का हिन्दी में रूपान्तरण ‘हाय मेरा दिल’ दिनेश ठाकुर का एक और लोकप्रिय नाटक था. इसकी लोकप्रियता का आलम यह था कि पृथ्वी थिएटर में 1980 में शुरू किए गए इस नाटक के पांच महीने में ही सौ शो हो गए थे. देश भर में इसके एक हज़ार से ज्यादा शो हो चुके हैं, लेकिन इस नाटक की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है. यह नाटक जहां भी होता है, दर्शकों का दिल जीत लेता है.

उस वक्त जब बंबई के रंगमंच पर गुजराती और मराठी नाटक राज कर रहे थे, दिनेश ठाकुर ही थे जिन्होंने दर्शकों को हिन्दी रंगमंच की तरफ दोबारा मोड़ा. हिन्दी नाटकों के प्रति दर्शकों में दिलचस्पी जगाई. समय और ज़रूरत के मुताबिक अपने नाटकों में बदलाव करने के वह बड़े हामी थे. उनका मानना था कि ‘‘नाटक में समय के साथ-साथ नवीनता जरूरी है.’’ वहीं नाटक में प्रयोगधर्मिता के बारे में उनका ख़्याल था, ‘‘मैं ऐसे प्रयोगधर्मी काम को गलत मानता हूं, जो आप कर रहे हैं, लेकिन दर्शकों को कुछ समझ में नहीं आ रहा.’’ हो सकता है कि बहुतेरे लोग उनकी इस बात से सब इत्तेफाक न रखें. रंगमंच के प्रति उनका अपना नज़रिया और अलग सोच थी और इस सोच के ही मुताबिक उन्होंने नाटक निर्देशित किए. निर्देशन के लिए वह जब भी कोई नाटक चुनते तो उसमें यह जरूर देखते कि मनोरंजन के साथ-साथ उसमें दर्शकों के लिए एक ऐसा संदेश हो, जो उन्हें सोचने पर मजबूर करे.

रंगमंच के जानिब दिनेश ठाकुर का जुनून ग़ज़ब का था. एक बार जब वे पूरी तरह से रंगमंच में जम गए, तो उन्होंने फ़िल्मों से बिल्कुल किनारा कर लिया. रंगमंच न सिर्फ उनकी ज़िंदगी था, जीने का सहारा. अपने इंटरव्यू में वह अक्सर एक बात कहते थे, ‘‘थिएटर मेरी सांसें हैं, जिसके बिना मैं एक क़दम आगे नहीं चल सकता.’’ ज़िंदगी के रंगमंच पर अपने हिस्से की भूमिका निभाकर 20 सितम्बर, 2012 को वह पर्दे के पीछे हो गए लेकिन आख़िरी सांस तक थिएटर से वाबस्ता रहे. उनकी दिली तमन्ना थी कि गुजराती और मराठी रंगमंच की तरह हिन्दी रंगमंच भी आत्मनिर्भर बने. आत्मनिर्भरता को वह इसलिए जरूरी मानते थे कि ‘‘जिस दिन सरकारी अनुदान मिलना बंद हो जाएगा या कोई स्पॉन्सर नहीं मिलेगा, तो उस पर निर्भर रहने वाला रंगकर्म भी बिखर जाएगा.”

मौजूदा दौर में हिन्दी रंगमंच की जो हालत है, उसमें दिनेश ठाकुर की यह बात सौ फीसदी सही साबित हुई है.

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