गुरशरण सिंह | मनुष्य विरोधी अंधेरों के बीच रोशन मशाल

  • 10:48 am
  • 16 September 2020

गुरशरण सिंह हमारे दौर के विलक्षण सांस्कृतिक लोकनायक थे. ऐसी मशाल जो मनुष्य-विरोधी अंधेरों के ख़िलाफ़ रोशनी के इरादे से हमेशा आगे रहती. लोक चेतना के लिए उन्होंने जो किया और जैसा जीवन जिया, उसे आगे की पीढ़ियां भुला नहीं सकेंगी. उस एक शख़्सियत के कितने ही मकबूल नाम थे – गुरशरण सिंह..भाजी..बाबा…भाई मन्ना सिंह…. और गुरशरण सिंह ऐसे नायाब नाटककार रहे, जिन्होंने अपने पंजाब के एक-एक गांव, क़स्बे और शहर में जाकर नाटक किए. बेशक ज्यादा तादाद नुक्कड़ नाटकों की रही. उन्हें नुक्कड़ नाटकों का अनथक क्रांतिकारी रहनुमा बेवज़ह नहीं कहा जाता.

पंजाब का सियासी-सामाजिक इतिहास और गुरशरण सिंह का रंगकर्म का सफ़र साथ-साथ चले है. जिस किसी घटना ने देश और पंजाब की दशा-दिशा को प्रभावित किया, उन्होंने उस पर नाटक लिखा और खेला. ऐसी कुछ घटनाएं आज भले ही विस्मृत हैं मगर उन पर भाजी के लिखे नाटक ज़िंदा हैं. पंजाब में एक काला दौर ऐसा रहा है जब लोग अख़बारों की ख़बरों और विश्लेषणों पर कम, गुरशरण सिंह के नाटकों और तर्कों पर ज्यादा भरोसा करते थे. आतंकवाद के उस ख़ौफनाक दिनों में उन्होंने जो काम किया, उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती. काली आंधी के उस दौर में जब सूबे की ज्यादातर क़लमें ख़ामोश थीं और संस्कृतिकर्मी ख़ौफज़दा होकर घरों में बैठ गए थे तब बाबा ने ख़िलाफ़ वक्त को यूं ही बगल से गुजरने नहीं दिया. चौतरफ़ा ख़ूनख़राबे और आपाधापी के बीच ज़मीनी स्तर पर जाकर अमन और सद्भाव के लिए मायनीख़ेज़ काम किया. अपनी कला के जरिए अवाम को समझाया-बताया कि हिन्दू-सिख एकता कायम रहेगी तो पंजाब बचेगा, देश बचेगा, वर्ना कुछ नहीं बचेगा.

उन्हीं दिनों कट्टरपंथी आतंकवादी तो गुरशरण सिंह के खिलाफ़ थे ही, हुकूमत तथा ग़ैर-वामपंथी सियासत भी उनके मुख़ालिफ़ थी. वजह भी शीशे की साफ़ थी. उस दौर के उनके नाटको में संत जनरैल सिंह भिंडरावाला, संत हरचन्द सिंह लौंगोवाल, जत्थेदार गुरूचरणसिंह तोहड़ा, जत्थेदार तलवंडी, सुरजीत सिंह बरनाला और प्रकाश सिंह बादल के साथ-साथ इंदिरा गांधी, ज्ञानी जैल सिंह, दरबारा सिंह, राजीव गांधी और कैप्टन अमरिंदर सिंह भी बाक़ायदा पात्र होते थे. सबके सब खलनायक की भूमिकाओं में होते.

प्रसंगवश, भाजी का एक नुक्कड़ नाटक है – ‘हिटलिस्ट’. इसका मंचन एक बार अमृतसर में स्वर्ण मंदिर के पास किया गया. ‘संत जी’ इसमें पात्र बनाए गए थे. उन दिनो संत जी की दहशत समूचे पंजाब में बेतहाशा दनदना रही थी और उनकी बदनाम, ज़ालिम तथा जानलेवा ‘हिटलिस्ट’ के क़िस्से ख़ास-ओ-आम को ख़ूब थर्राते. चलते नाटक के बीच भाजी को धमकी मिली, नाटक फ़ौरन बंद करने का फ़रमान सुनाया गया और सूचित किया गया कि आज के बाद उनका नाम हत्यारी हिटलिस्ट में शुमार हो गया. लेकिन न तो नाटक रुका और न ही जान से मार दिए जाने की धमकी फ़ौरी तौर पर कोई असर दिखा पाई, उल्टे भाजी का बुलंद जवाब था – हथियारों के बूते उन्हें डराने की कोशिश बेकार है. हथियार चलाना तो उन्हें भी आता है. कोई गलतफहमी नहीं रहनी चाहिए, एक हिटलिस्ट अवाम के भीतर भी आकार ले रही है और उनमें उन सब के नाम शिखर पर हैं जो धर्म और राजनीति के नाम पर निहत्थे और बेगुनाह लोगों पर जुल्म कर रहे हैं.

ख़ैर, इस घटना के बाद गुरशरण सिंह को सरकारी एजेंसियों के ज़बरदस्त दबाव की वजह से अमृतसर छोड़कर चंडीगढ़ चले जाना पड़ा. हालांकि उनके प्रशंसकों का एक बड़ा तबका भी चाहता था कि भाजी को जुनूनी आतंकियो का आसान शिकार कतई नहीं बनना चाहिए. गुरशरण सिंह के एक और मशहूर नाटक में बादल, बरनाला और कैप्टन पात्र थे. उसके एक मंचन के दौरान बतौर मुख्यमंत्री सुरजीत सिंह बरनाला भी दर्शक-दीर्घा में थे. खुद को पात्र और वह भी खलनायक के तौर पर देखकर वह नाराज़ होकर उठकर चले गए, पर गुरशरण सिंह ने इस सबकी कोई परवाह नहीं की. यही बरनाला मुख्यमंत्री थे और एक नाट्य उत्सव में मुख्य अतिथि थे. वहीं भाजी को भी नाटक प्रस्तुत करना था. मुख्यमंत्री समय से नहीं आए तो उन्होंने उत्सव का बहिष्कार कर दिया और नाट्यशाला से बाहर आकर नाटक किया. वह बेख़ौफ तार्किक प्रतिरोध से लबालब से भरे हुए इंसान थे.

इंजीनियर के तौर पर उनकी ज़िंदगी का लंबा अरसा भाखड़ा बाँध पर बीता. श्रमिक हितों को लेकर वह अक्सर प्रबंध-तंत्र से टकरा जाते. कुछ निर्णायक हड़तालों और आंदोलनो की उन्होंने अगुवाई भी की. श्रमिकों और कर्मचारियों के बीच अर्थपूर्ण नाटक प्रस्तुत करते तो बहुधा प्रबंधन और अफसरशाही को उनके तेवर रास नहीं आते थे. मगर गुरशरण पूरी ज़िद और समर्पण की भावना से जुटे रहते. 1975 में आपातकाल का उन्होंने ज़ोरदार विरोध किया था. आपातकाल के विरोध में नाटक किए तथा कई सेमीनार आयोजित किए. बौखलाई सरकार ने कई तरह की धमकियां देकर 19 सितम्बर 1975 को उन्हें नौकरी से बर्खास्त कर दिया. मगर इससे सरकार के जनविरोधी कामों को उजागर करने वाली उनकी सांस्कृतिक गतिविधियां थमी नहीं.

1984 के जून और नवम्बर ने पंजाब और पंजाबियों को बहुतेरे जख़्म दिए. तब गुरशरण सिंह पंजाब और पंजाबियत की गहरी पीड़ा की अभिव्यक्ति बनकर सामने आए. खालिस्तानी और राज्य आतंकवाद के प्रबल विरोधी गुरशरण ने आपरेशन ब्लू स्टार का भी अपने तई ज़बरदस्त विरोध किया और गाँव-कस्बों तथा शहरो में जाकर नुक्कड़ नाटक किए, पंजाब संकट की असली वजहों से अवाम को रू-ब-रू कराया. और ऐसा ही उन्होंने नवंबर, 84 के भयावह सिख विरोधी क़त्लेआम के बाद किया. तब उन्होंने दिल्ली, कानपुर, हरियाणा और अन्य हिंसाग्रस्त इलाक़ों में जाकर नुक्कड़ नाटक किए. उनके हर नाटक में यह खुला संदेश है कि व्यवस्था न बदली और हम ख़ामोश रहे तो बार-बार जून 84 और नवंबर 84 होंगे. 1969-71 की नक्सलबाड़ी लहर के साथ भाजी की खुली सहानुभूति थी. उस लहर ने पंजाब में दस्तक दी तो उन्होंने उसके पक्ष में सांस्कृतिक मोर्चा संभाला.

पंजाबी के कतिपय नामवर लेखक, कवि और नाटककार नक्सलबाड़ी आंदोलन की देन है. अवतार सिंह पाश, सुरजीत पातर, लालसिंह दिल, अमरजीत चंदन, संतराम उदासी, मित्रसेन मीत, वरियामसिंह संधू, अत्तरजीत, त्रिलोचन तथा अजमेर सिंह औलख आदि कुछ ख़ास नाम है. इन सबका गुरूशरण सिंह से लगाव जगजाहिर है. कम लोग जानते हैं कि पाश का पहला कविता संग्रह और वरियामसिंह संधू का पहला कहानी संग्रह गुरशरण सिंह ने ही छापा था. कितने ही लेखक और नाटककार उनके संरक्षण में परिपक्व बने. उन्होंने बलराज साहनी प्रकाशन की स्थापना की थी, जिसका मकसद अच्छा जनवादी और प्रगतिशील साहित्य कम कीमत पर साहित्य-प्रेमियों तक पहुंचाना था. अपनी इस मुहिम को उन्होंने उम्र भर जारी रखा. लोक मुद्दों और लोक साहित्य-संस्कृति पर आधारित कुछ पत्रिकाओं का संपादन-प्रकाशन भी गुरशरण सिंह ने समय-समय पर किया. बलराज साहनी उनके गहरे दोस्त थे तो हिन्दी के फक्कड़ कवि कुमार विकल भी क़रीबी दोस्तो में थे. उन्होंने प्रेमचंद से लेकर असगर वजाहत तक की कहानियों पर आधारित नाटक पंजाबी में लिखे.

कई पंजाबी उपन्यासों में भाजी नायक के तौर पर जनहित में लड़ाइयां लड़ते दिखते हैं. मित्रसेन मीत ने तो अपने तीन उपन्यासों में उन्हे नायक बनाया है. तीनों उपन्यास हिन्दी में अनूदित होकर एक ही जिल्द में ‘रामराज्य’ के नाम से संकलित है. बेशुमार कहानियों और नाटकों में भी वह अपने बड़े कद के साथ पात्र बनकर उपस्थित हैं. उन पर ढेरों कविताएं और गीत भी है. ऐसा विरल सम्मान और स्नेह पंजाबी में शायद ही किसी और को हासिल हो.

उनकी अपार लोकप्रियता की ही मिसाल है कि पंजाब में ऐसे बेशुमार लोग हैं, जिन्हें उनके कई नाटकों के दृश्य और संवाद जस-के-तस याद हैं. इन नाटको में ‘बाबा बोलदा है’, ‘टोया’, ‘हिटलिस्ट’, ‘कुर्सीवाला-मंजीवाला’, ‘जंगीराम दी हवेली’, ‘ऐह लहू किस दा है’, ‘धमक नगारे दी’, ‘कुर्सी मोर्चा ते हवा दे विच लटकदे लोग’, ‘नवां जनम’ आदि प्रमुख हैं. ये वे नाटक हैं, जिनका मंचन उन्होने पंजाब के चप्पे-चप्पे में किया है. एक गांव में हो रहे नाटक को आसपास के कई गांवों के सैकड़ों लोग इकट्ठा होकर देखते.

दूरदर्शन के लिए उन्होंने ‘भाई मन्ना सिंह’ धारावाहिक बनाया. इसमें पंजाब के संताप से जुड़ी कहानियो की नाटकीय प्रस्तुति होती थी. इस धारावाहिक ने उन्हें और मकबूल बनाया और उनका एक और नाम भाई मन्ना सिंह पड़ गया. देश के कई इलाको में वह अपने इसी नाम से पहचाने जाते. इस धारावाहिक के लिए भाजी ने विचारों और विचारधारा के स्तर पर कोई समझौता नहीं किया और पंजाब की बाबत एक सही समझ शेष देश को देने की कोशिश की थी. यह काम उनकी तरह का शख़्स ही कर सकता था.

प्रगतिशील इंकलाबी संगठनों को एक मंच पर लाने की उन्होंने कई बार कोशिश की. प्रमुख संगठन हर बार भगत सिंह के शहीदी दिवस पर उनके पुश्तैनी गांव खटकर कलां में जुटते. इसी तरह हमख़्याल लोग आए बरस जालंधर के देशभगत यादगार हाल में होने वाले ‘मेला गदरी बाबयां’ इकठ्ठा होते.

एक और बेमिसाल काम उन्होंने सुदूर देशों मे नुक्कड़ नाटक करने का किया. पंजाबी-हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेज़ी में भी नाटक किए. विमर्श और संवाद का कोई भी मौका वे छोड़ते नहीं थे. विद्यार्थियों और युवाओं को वह अपनी असली ताकत मानते थे. महिलाओं और बच्चों की बेहतरी भी उनके सरोकारों में शुमार रही.

भाजी का इंटरव्यू करते हुए एक बार मैंने उनसे पूछा कि मूलवाद और प्रगतिशीलता विरोधी ताक़तों से लड़ने का ऐसा जज्बा पहले-पहल कब महसूस किया तो उन्होंने एक वाकया सुनाया. 1947 में बँटवारे के वक्त वह करीब सत्रह साल के थे. अमृतसर के हाल बाजार से एक जुलूस निकल रहा था. अलफ़ नंगी औरतों का. वे मुस्लिम परिवारों से थी और घोड़ों पर सवार, तलवारों-बरछों से लैस जुनूनी लोग उन्हें घेरे चल रहे थे- शर्मनाक तरीके से उन्हें अपमानित करते हुए. किशोर गुरशरण यह सब देखकर दहल गए और तभी प्रण लिया कि आज के बाद हर तरह की धार्मिक कट्टरता के ख़िलाफ़ काम करेंगे. ताउम्र उन्होंने किया भी.

चन्द्रशेखर जब प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने आतंकवादियों से खुली बातचीत की कवायद शुरू की. साप्ताहिक सण्डे मेल के लिए इस मुद्दे पर मैने उनका लम्बा साक्षात्कार किया. रोष में उन्होंने कहा था कि आतंकी संगठनों से भारत सरकार को ज़रूर बात करनी चाहिए, लेकिन बातचीत में उन समूहों को भी शामिल करना चाहिए, जिन्हें आंतकवादियों ने निशाने पर लिया. तत्कालीन केंद्र सरकार की शर्त थी कि आमने-सामने संवाद से पहले आतंकवादियों को हथियार छोड़ने होंगे और भारतीय संविधान में आस्था रखनी होगी. गुरशरण सिंह का दो-टूक कहना था कि यह शर्त दरअसल एक सरकारी मज़ाक है. खालिस्तानी आंतकवादियों से बातचीत तो करनी ही इसलिए है कि वे हथियार छोड़ दें और भारतीय संविधान को मान लें.
भाजी का कहना एकदम सही था. बाद में वह सरकारी कवायद एकदम मज़ाक बनकर रह गई थी.

वह पंजाब के गोशे-गोशे से वाक़िफ थे. एक बार उन्होंने नहीं छापने की शर्त पर बताया था कि एक आला सरकारी एजेंसी के बड़े अधिकारी उनसे मिलने आए और पेशकश की कि जितना चाहे (सरकारी) पैसा ले लीजिए, आतंकवादियों के ख़िलाफ़ मुहिम तेज़ कीजिए पर सरकार के प्रति अपना रवैया नर्म कर लीजिए. उन्होंने सख़्ती से इंकार करते हुए अफ़सर को चलता किया. भाजी ने जितना काम खालिस्तानी आतंकवाद पर किया, ठीक उतना ही सरकारी आतंकवाद के ख़िलाफ़ भी. वह मानते थे कि व्यवस्था की विसंगतियां धार्मिक कट्टरतावाद और साम्प्रदायिक हिंसा को बल देती है. उन्होंने फ़र्जी मुठभेड़ों का भी विरोध किया. संत भिंडरावाला और कतिपय सियासतदानों को उन्होने नाटकों का खलनायक बनाया तो उस समय के डीजीपी रिबेरो, केपीएस गिल व राज्यपाल सिद्धार्थ शंकर रे सरीखे मुठभेड़ विशेषज्ञों को भी नहीं छोड़ा.

भाजी गुरशरण सिंह नही हैं पर उनका नाम और उनके काम हमारे बीच है और इस तरह हमेशा ही ज़िंदा रहेंगे उनके विचार. उनके आलोचक सही ही कहते हैं कि उनके समूचे कृतित्व में कला-सौंदर्य कम बल्कि चिंतन-विचार ज्यादा है. वह हमेशा इसी बात पर अड़े रहे कि कला कला के लिए नहीं, अवाम और उसके बेहतरी के लिए होती है.

तो सदा रहेगी गुरशरण सिंह की रोशनी…!

सम्बंधित

औरतों-मजदूरों के हुक़ूक की हिमायती अंगारे वाली रशीद जहां


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.