मज़ाहिया शायर जिसके रुमानी नग़मे ज़माना अब तक गुनगुनाता है

  • 10:16 pm
  • 23 September 2020

राजा मेहदी अली ख़ान के नाम और काम से जो लोग वाक़िफ़ नहीं हैं, ख़ास तौर से नई पीढ़ी, उन्हें यह नाम सुनकर लग सकता है कि किसी छोटी-मोटी रियासत के राजा के बारे में बात हो रही है. यह एक पूरा नाम है, यह जानकर उन्हें हैरानी हो सकती है.

और उनके लिखे गाने सुनकर वे शायद और हैरान हों. उस दौर में शकील, मजरूह, हसरत, साहिर और कैफी आज़मी सरीखे नामी-गिरामी शायरों के बीच अपनी जगह आसान तो नहीं रहा होगा मगर अपने लंबे अदबी सफ़र में राजा मेहदी अली ख़ान न सिर्फ़ मज़ाहिया शायरी का बड़ा नाम रहे, बल्कि फ़िल्मों में उन्होंने जो गीत-ग़ज़लें लिखीं, वे यादगार बन गए. एक तरफ मज़ाहिया शायरी थी, जिसमें उन्हें तंज़-ओ-मिज़ाह से काम लेना पड़ता था, तो दूसरी ओर फ़िल्मी गीत थे, जिसमें वह रुमानी शायरी कर रहे होते. दोनों ही काम इस हुनरमंदी से करते कि मालूम ही नहीं चलता था यह तख़्लीक़ एक ही शख़्स की है. राजा मेहदी अली ख़ान ने मज़ाहिया शायरी में काफ़ी नाम-शोहरत हासिल की. ‘खरगोशों के जज़्बात’, ‘अदीब की महबूबा’, ‘चार बजे’, ‘बच्चों की तौबा’, ‘मियां के दोस्त’, ‘हमें हमारी बीवियों से बचाओ’, ‘परिंदों की म्यूज़िक कांफ्रेंस’, ‘अलिफ़ से ये तक’ उनकी अहम मज़ाहिया नज़्में हैं.

उनके वालिद बहावलपुर रियासत के वज़ीर-ए-आज़म थे. कम उम्र में वालिद के गुज़र जाने के बाद मां और मामू ने उनकी परवरिश की. उनकी ददिहाल और ननिहाल दोनों जगह अदबी माहौल था. उनकी वालिदा हामिदा बेगम ख़ुद एक बेहतरीन शायर थीं, जो हेबे साहिबा के नाम से शायरी करती थीं. मामू मौलाना ज़फर अली ख़ान ‘ज़मींदार’ अख़बार के एडिटर थे. राजा मेहदी अली ख़ान के भाई राजा उस्मान ख़ान, ‘मगजन’ रिसाले के एडिटर थे. उनकी बहनों को भी शायरी का शौक था. इसका असर यह कि वह भी कम उम्र में ही शायरी करने लगे. लाहौर के गवर्मेंट इस्लामिया कॉलेज से एफ.ए. करने के बाद सहाफ़ी के तौर पर उन्होंने काम शुरू किया. ‘ज़मींदार’ के अलावा बच्चों की एक पत्रिका ‘फूल’ में उन्होंने काम किया. ‘तहज़ीब’ और ‘निस्वां’ जैसे रिसालों से भी जुड़े रहे. ‘फूल’ में काम के दौरान उन्होंने कई मशहूर अफ़सानानिगारों के अफ़सानों का तर्जुमा किया. उनकी पहली मजाहिया नज़्म ‘अदबी दुनिया’ में छपी. लोगों ने पसंद की तो फिर वे पाबंदगी से मज़ाहिया शायरी करने लगे.

1942 में वह दिल्ली चले आए और ऑल इंडिया रेडियो में स्टाफ़ आर्टिस्ट के तौर पर जुड़ गए. वहीं उनकी मुलाक़ात मंटो से हुई और फिर गहरी दोस्ती. रेडियो की नौकरी में न तो मंटो ज्यादा दिन तक टिके और न ही राजा मेहदी अली ख़ान. मंटो नौकरी और शहर छोड़कर बंबई चले गए, और फिर उन्होंने राजा मेहदी अली ख़ान को भी वहीं बुला लिया. मंटो फ़िल्मिस्तान स्टूडियो से जुड़े हुए थे. अशोक कुमार से बढ़िया छनती थी तो उन्हीं से कहकर राजा मेहदी अली ख़ान को भी काम दिला दिया.

राजा मेहदी अली ख़ान की शुरूआत ‘आठ दिन’ फ़िल्म से हुई. इसकी स्क्रिप्ट लिखने के साथ ही उन्होंने और मंटो ने इस फ़िल्म में अदाकारी भी की. राजा मेहदी अली ख़ान बुनियादी तौर पर शायर थे और जल्दी ही उन्हें मनचाहा काम मिल गया. फ़िल्मिस्तान स्टुडियो के मालिक एस. मुखर्जी ने जब ‘दो भाई’ बनाना शुरू की, तो इसके गीत लिखने के लिए उन्हें साइन कर लिया. इस तरह फ़िल्मों में गीतकार के तौर पर उनकी नई शुरूआत हुई. ‘दो भाई’ 1946 में आई, जिसमें उनके लिखे दो गाने ’मेरा सुंदर सपना बीत गया’ और ‘याद करोगे, याद करोगे इक दिन हमको..’ गीता राय (दत्त) ने गाए. दोनों ही गाने सुपर हिट हुए.

साल भर बाद ही आज़ादी के साथ मुल्क का बंटवारा हुआ. राजा मेहदी अली ख़ान का पुश्तैनी घर, रिश्तेदार-नातेदार, दोस्त अहबाब सब पाकिस्तान में थे. लेकिन उन्होंने हिन्दुस्तान में ही रहने का फ़ैसला किया. 1948 में फ़िल्मिस्तान की ही एक और फ़िल्म ‘शहीद’ में उन्हें गीत लिखने का मौक़ा मिला. उन्होंने चार गीत लिखे. जिसमें ‘वतन की राह में, वतन के नौजवान..’ और ‘आ जा बेदर्दी बालमा..’ की ख़ूब धूम रही. ‘वतन की राह में..’ ऐसा गीत है, जो राष्ट्रीय पर्व के मौक़ों पर अभी बजता सुनाई देता है.

उस दौर का शायद ही कोई बड़ा मौसिकार और सिंगर था, जिसके साथ उन्होंने काम नहीं किया. लेकिन उनकी सबसे अच्छी जोड़ी मदन मोहन और ओ.पी. नैयर के साथ बनी. 1951 में आई ‘मदहोश’ से मदन मोहन ने अपने कॅरिअर की शुरूआत की. इस फ़िल्म के सारे गीत राजा मेहदी अली ख़ान ने लिखे. ‘मेरी याद में तुम न आंसू बहाना..’, ‘हमें हो गया तुमसे प्यार…’, ‘मेरी आंखों की नींद ले गया..’ ख़ूब लोकप्रिय हुए. मदन मोहन उम्दा शायरी के शैदाई थे और राजा मेहदी अली ख़ान के शायराना नग़मों को उन्होंने अपनी खास धुन में ढालकर अमर कर दिया.

1951 से लेकर 1966 तक उन्होंने भी मदन मोहन के लिए एक से बढ़कर एक गीत लिखे. इस जोड़ी के सदाबहार गानों की लंबी फ़ेहरिस्त है मगर कुछ हैं जो आज भी ख़ूब सुने जाते हैं. ‘आपकी नज़रों ने समझा प्यार के क़ाबिल मुझे’, ‘है इसी में प्यार की आबरू वह जफ़ा करें मैं वफ़ा करूं’, ‘वो देखो जला घर किसी का’ (अनपढ़, 1962), ‘मैं निगाहें तेरे चेहरे से हटाऊं कैसे..’, ‘अगर मुझसे मुहब्बत है मुझे सब अपने ग़म दे दो’ (आपकी परछाईयां, 1964), ‘जो हमने दास्तां अपनी सुनाई, आप क्यों रोए..’, ‘लग जा गले कि फिर ये हंसी रात हो..’, ‘नैना बरसे….’ (वो कौन थी, 1964), ‘आख़िरी गीत मुहब्बत का सुना लूं…’, ‘तेरे पास आकर मेरा वक़्त गुज़र जाता…’ (नीला आकाश, 1965), ‘एक हसीन शाम को दिल मेरा खो गया..’ (दुल्हन एक रात की, 1966) ‘तू जहां-जहां चलेगा, मेरा साया साथ होगा’, ‘नैनो में बदरा छाए, बिजली-सी चमकी हाय’, ‘आप के पहलू में आकर रो दिए…’ ‘झुमका गिरा रे, बरेली के बाज़ार में…’ (मेरा साया, 1966).

इसी तरह ओ.पी. नैयर के साथ मिलकर भी उन्होंने अपने चाहने वालों को कई बेहतरीन नग़मे दिए. 1960 से लेकर 1966 तक का दौर उनका सुनहरा दौर था. ‘मेरा साया’ उनकी आख़िरी फ़िल्म थी, जिसके सारे गाने सुपर हिट साबित हुए.

लखनऊ से हालांकि उनका कोई तआल्लुक नहीं रहा, मगर उनके कई नग़मों में वहाँ की तहज़ीब और नज़ाकत की झलक ज़रूर दिखाई देती हैं. मुराद, गीतों में ‘आप’ लफ़्ज़ के इस्तेमाल से है, जो उन्होंने कई गीतों में इस हुनरमंदी से बरता है कि ये गीत अलग से ही पहचाने जाते हैं. इनमें राजा मेहदी अली ख़ान की छाप नज़र आती है. मिसाल के तौर पर ‘आपके पहलू में आकर रो दिए’, ‘आपको प्यार छुपाने की बुरी आदत है’, ‘आपकी नज़रों ने समझा..’, ‘आप यूं ही अगर हमसे मिलते रहे’, ‘जो हमने दास्तां अपनी सुनाई, आप क्यों रोए’, ‘आपने अपना बनाया, मेहरबानी आपकी’ वगैरह. ऐसा नहीं कि अपने महबूब से गुफ़्तगू के लिए हमेशा इतनी तहज़ीब की ज़रूरत रहती हो, बेतकल्लफ़ी के बाद तो ‘आप’ से ‘तुम’ पर आ ही जाते हैं. ऐसे ही कुछ गीत देखिए, ‘तुम बिन जीवन कैसे बीता..’, ‘मेरी याद में तुम ना आंसू बहाना..’ ‘तेरे पास आकर मेरा वक्त गुजर जाता है…’, ‘तू जहां-जहां चलेगा, मेरा साया साथ होगा’. अपने नगमों से वह न सिर्फ़ उम्दा शायरी चलन में लाए, बल्कि जब ज़रूरत पड़ी तो लोक और शास्त्रीय धुनों पर भी ख़ूबसूरत गीत रचे. ‘झुमका गिरा रे..’, ‘जिया ले गयो जी मोरा सांवरिया..’, ‘कहीं दूर कोई कोयलिया गाए रे’ ऐसे ही गीत हैं.

वह हरफ़नमौला अदीब थे. ‘ज़मींदार’ में लगातार छपने वाली उनकी मज़ाहिया नज़्में इतनी दिलचस्प होतीं कि बच्चों से लेकर बड़ों तक सभी को उनमें लुत्फ़ आता है. मिसाल के तौर यह नज़्म देखें, ‘हँसी कल से मुझे इस बात पर है आ रही ख़ालू/ कि ख़ाला कह रही थीं आप का है क़ाफ़िया आलू/ उसी दिन से बहुत डरने लगा हूँ आप से ख़ाला/ जब अम्मी ने बताया आप का है क़ाफ़िया भाला.’ या ऐ चचा ख़र्रू शिचोफ़ ऐ मामूँ केंडी अस्सलाम/ एक ही ख़त है ये मामूँ और चचा दोनों के नाम/ इक तरफ़ नफ़रत खड़ी है दूसरी जानिब ग़ुरूर/ क़हर की चक्की में पिस जाएँ न बच्चे बे-क़ुसूर/…ले चुके हैं आप तो जी भर के दुनिया के मज़े/ हम को इन से दूर रखना चाहते हैं किस लिए.’

मज़ाहिया नज़्मों में वह कमाल करते थे. उनमें हास्य बोध गज़ब का था. अपनी इन नज़्मों में वे ऐसी—ऐसी तुकबंदियां लड़ाते कि मज़ा आ जाता. अदबी एतबार से भी वे इन नज़्मों का मैयार गिरने न देते. उर्दू अदब के तमाम बड़े अदीबों के नाम का इस्तेमाल कर एक ऐसी नज़्म लिखी कि वो लोग भी इसे पढ़कर मुस्कराए बिना नहीं रहे – ‘तुम्हारी उल्फ़त में हारमोनियम पे ‘मीर’ की ग़ज़लें गा रहा हूँ/ बहत्तर इन में छुपे हैं नश्तर जो सब के सब आज़मा रहा हूँ/…लिहाफ़ ‘इस्मत’ का ओढ़ कर तुम फ़साने ‘मंटो’ के पढ़ रही हो/ पहन के ‘बेदी’ का गर्म कोट आज तुम से आँखें मिला रहा हूँ/….फ़साना-ए-इश्क़ मुख़्तसर है क़सम ख़ुदा की न बोर होना/ ‘फ़िराक़-गोरखपुरी’ की ग़ज़लें नहीं मैं तुम को सुना रहा हूँ/…मिरी मोहब्बत की दास्ताँ को गधे की मत सरगुज़िश्त समझो/ मैं ‘कृष्ण-चंद्र’ नहीं हूँ ज़ालिम यक़ीन तुम को दिला रहा हूँ.’

उनका पहला शेरी मजमुआ ‘मिजराब’ था. 1962 में उनकी मज़ाहिया शायरी की दूसरी और आख़िरी किताब ‘अंदाज़—ए—बयां और’ छपी. ‘चांद का गुनाह’ उनकी एक दीगर किताब है. उन्होंने अफ़साने भी लिखे, जो उस दौर के मशहूर रिसालों ‘बीसवीं सदी’, ‘खिलौना’ और ‘शमा’ में शाया हुए. बच्चों के लिए कहानियां भी लिखते रहे. उनकी ये कहानियां ‘राजकुमारी चंपा’ में संकलित हैं. उन्होंने एक उपन्यास ‘कमला’ भी लिखा. उनकी नज़्मों में तंज़ो-मिज़ाह तो था ही, उन्होंने तंज़ो-मिज़ाह के मज़ामीन भी लिखे, जो ‘बीसवीं सदी’ पत्रिका में नियमित छपते. अपने दोस्तों को उन्होंने जो ख़त लिखे, वे भी तंज़ो-मिज़ाह के शानदार नमूने हैं. इन ख़तों में भी उनका हास्य और व्यंग्य देखते ही बनता है. जिस तरह की मज़ाहिया नज़्में वे लिखते, फ़िल्मों में उस तरह के उनके गीत इक्का-दुक्का ही नज़र आते हैं. अनपढ़ फ़िल्में में ऐसा एक गीत, ‘सिकंदर ने पोरस से की थी लड़ाई…’ ज़रूर है.

उन्होंने क़रीब 72 फिल्मों के लिए 300 से ज़्यादा गीत लिखे. जिसमें ज्यादातर गीत अपनी बेहतरीन शायरी की बदौलत देश-दुनिया में मक़बूल हुए. उन्हें बहुत छोटी उम्र मिली – सिर्फ़ 38 साल. फ़िल्मी दुनिया में जब वे अपने उरूज पर थे, तभी क़ुदरत ने उन्हें हमसे छीन लिया.

अफ़सानानिगार कृश्न चंदर ने उनकी मौत पर उन्हें याद करते हुए लिखा था,‘‘राजा मेहदी अली ख़ान एक बच्चा था और जब भी किसी बच्चे को मौत हमारे बीच से उठाकर ले जाती है, तो इस क़ायनात की मासूमियत में कहीं न कहीं कोई कमी ज़रूर रह जाती है.’’

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