जब जोश को झूठा कहने वाले नक़्क़ादों को जमकर धोया क़ाज़ी अब्दुल सत्तार ने

  • 2:34 pm
  • 2 August 2020

मैं चुप रहा आता तो वे न जाने कब तक सुनाते जाते. यूँ सृजन के सुख में आकंठ डूबे एक रचनाकार की मुद्रा-भंगिमाएँ देखने का आनंद भी तो कम ख़ास नहीं होता पर…. तब मैं काज़ी साहब के लेखन में उपमाओं, रूपकों, कल्पनाओं और अतिश्योक्तियों के प्रयोगों को लेकर उठाए गए कुछ सवालों और आपत्तियों के बारे में सोच रहा था. मौक़ा पाते ही मैंने जानना चाहा कि कल्पना की उड़ान उनके लेखन में सच और झूठ के संदर्भ में क्या और कितनी भूमिका निभाती रही है? थोड़ी देर चुप रहे. फिर ज़रा पहले वाला उत्साह जैसे रूप बदलने के लिए आवेश का बाना धारण करने लगा था – जोश ने ‘यादों की बारात’ लिखी. शोर मचा – झूठ! झूठ! झूठ !! पाकिस्तान में हमने ऐसा कहने वाले एक मशहूर नक़्क़ाद को फेडरल गेस्ट हाउस – जहाँ हम रुके थे – बुलाया. वो एक और नक़्क़ाद के साथ आया. पूछा – भाई साहब आपके वालिद क्या करते है?’ बोला- ‘डाकख़ाने में हैं.’ ‘तो आख़िरी ज़माने में पोस्ट मास्टर हो गए होंगे?’ ‘जी’ ‘कितने भाई बहन हैं आप?’ ‘पाँच !’

‘तो अगर रात में भैंसे के क़बाब पकते होंगे तो सुबह नाश्ते में एक-एक क़बाब और रात को दो-रोटियाँ मिल जाती होंगी? और अगर क़बाब नहीं पकते तो अम्मा जान रोटियों में वनस्पति घी की फुरेरी लगा देती होंगी और चोंगा बना देती होंगी? और आप गुड़ की चाय से डुबो-डुबोकर खा लेते होंगे!’ दूसरे से पूछा, ‘भाई साहब, आप? आपके वालिद?’ – ‘जी वो फोरमैन थे.’ – ‘आख़िरी वक़्त में हुए होंगे?’ ‘जी.’ – ‘आप कितने भाई-बहन है?’ ‘ सात’ ‘तो आपका हाल इनसे भी ख़राब होगा? बकरे का गोश्त महीने में दो-चार मर्तबा, मुर्ग़े साल – दो बरस में एक, दूध दसवें-पंद्रहवें दिन, घी-मक्खन जब कभी अल्लाह दे दे ग़लती से!’ ख़फा हो गए. बड़ी गर्मी से कहा – ‘आप कहना क्या चाहते है?’

मैंने कहा – ‘जोश के बाप मलीहाबाद के तालुकेदार थे. एक लाख सत्तर हज़ार की निकासी थी. दरवाज़े पर हाथी तीन-तीन थे. घोडों से अस्तबल भरा था. घर में जो अस्तबल था उसमें जवान औरतें भरी थीं – काली भी, गंदुमी भी और सफ़ेद भी. नाश्ते में हलुवे, पराँठे, मुर्ग़े, अंडे, बालाई, मक्खन, दूध! ये रोज़ होता था. जोश बाहर निकलते तो नौकरानियाँ उनकी जेबों में मेवे भर देती थीं. जोश नौकरों के बच्चों को बाँट-बाँटकर खाते. कलमी आमों की गाड़ियाँ उतरती थीं. फुलवारियों से अमरूद, अंगूर, केले, संतरे – ढेर लग जाते थे. ख़ुशामदें की जाती थीं – ‘भैया तनी खाए लेओ.’ जोश गालियाँ बकते हुए भाग जाते थे. इलाक़े की लड़कियाँ इंतज़ार करती थीं कि मंझले भैया बस हमारी तरफ़ मुस्कराकर देख तो लें. उन जोश की हर बात आपको झूठ मालूम होती है. यक़ीनन मालूम होती होगी. आपने गीलानी ख़ुश्के का नाम सुना है? मुजाफ़र जानते हैं…मोती पुलाव सुना है? सबदेग़ मालूम है? हरीरे का नाम सुना है? यख़्नी जानते हैं? ये समनक का हलुवा कभी देखा है? एक सेर सिंवइयों में आठ सेर खपी हुई शक्कर की सिवइयाँ कभी खाई हैं? लखनऊ में चौक की वे मिठाइयाँ, जो दस रुपए सेर उस वक़्त मिलती थीं जब सोना बारह रुपए तोला था, कभी चखी हैं? जखफ़्त, अतलस, काकम, संजाब, जामेवार, शालतूस, जरीपोत – इन कपड़ों के नाम सुने हैं? अवध की बेग़में यही खाती थीं, यही पहनती थीं.

दस्तपोश क्या होते हैं? जोशन और नौनगे मेँ क्या फ़र्क़ है? उदराज और करनफूल में क्या फ़र्क़ है? तौक, चंदनहार, निकलस में क्या फ़र्क है? पाजेब, टोड़े में क्या फ़र्क़ है? सोने और कुंदन में क्या फ़र्क़ है? पुखराज कितने रंग का होता है? याकूत की पहचान क्या है? सियाह हीरा कभी देखा है? सियाह मोती कभी सुने हैं? जवाहरपोश करधनी का नाम कभी सुना है? सलीमशाही नागरा जूती, इटैलियन सैंडिल, स्पेनिश चप्पल, ज़री के जूते देखे हैं? ये जोश की बाँदियाँ भी पहनती थीं. अवध का कोई तालुकदार नहीं था जिसके घर में ये सब कुछ न हो. आपको पता है कि अवध का तालुकदार कितने सेर की चाँदी रोज़ इस्तेमाल करता था पलंग, तख़्त, पीकदान, पानदान, आफ़ताबा, शमादान, गिलास, कटोरे वगैरह में? आपने मगरदान का नाम सुना है? क्या होता है यह ? सोने की वर्क़ लगी गिलौर कभी खाई है? जाली के ख़ासदान कभी देखे हैं? अदकचा, गलीचा, कालीन, फर्शीकालीन, मसनद, तकिए, अस्तमतोली, मिसरी, ईरानी, कश्मीरी, कालीन देखे हैं? इनका फ़र्क़ मालूम है? नहीं मालूम! इसीलिए जोश झूठ बोलता है.

कभी सुना है बैलों के सींगों पर सोना मढ़ा है, खुरों पर चाँदी मढ़ी है, पालकी पर हाथी दाँत का काम है? आपको पता है, जब उतने ही वज़न का सोना सेफ़ में होता है, तब वो चाँदी इस्तेमाल होती है? ताकि कोई ठोकर लगे तो सुनार के यहाँ सोना जाए, सामान न जाए! सचमुच जोश साला झूठ बोलता है ! हाथियों के कितने जेवर होते थे ? झूल, पाखर में क्या फ़र्क है? मखमल, शिनील में क्या फ़र्क़ है? बहुत झूठा है साला जोश ! कोई शक नहीं ! सोलह सिंगार के ज़रा नाम लीजिए ! चलिए चार – छह के ही ले लीजिए, सोलह के क्या लेंगे आप ! इधर देखिए, अभी मैं आठ-दस दिन आपके पाकिस्तान में हूँ. मशविरे करके भी अगर कुछ मालूम हो जाए तो आ जाइएगा.

हाँ, तो प्रेमकुमार साहब, हम पर मुबालगे का इल्ज़ाम है ! सच है, इसलिए कि हम हिंदोस्तान के आर्टिस्ट हैं और मुबालगा – अतिशयोक्ति, एशियाई साहित्य में सनत-कारीगरी है. हम अगर झूठ बोलते हैं तो आज तक आपने उस झूठ की निशानदेही क्यों नहीं की? साहित्य अकादमी ने जब हम पर फ़िल्म बनाई – दूरदर्शन बयासी में पहले ही बना चुका था, तो शहरयार ने अपने इंटरव्यू में कहा था कि क़ाज़ी साहब को पहले दिन पहला रजिस्टर एम.ए. का मिला था. क़ाज़ी साहब जब महफ़िलों में खड़े होते हैं तो ऐसे जुमले बोलते हैं, और फ़ौरन बोलते हैं, बग़ैर तैयारी के बोलते हैं, उस पर इस तरह तारीफ़ मिलती है जिस तरह शायर को उसके शेर पर मिलती है. आपके ख़्याल में शहरयार झूठ बोलते है?

कहने वालों को पहला रजिस्टर प्री-यूनिवर्सिटी का मिला होगा ! ये जब बोलने खड़े होते है तो ऐसा लगता है जैसे हुक़्क़े से पानी गिर रहा हो. हक्क, हक्क, हुक्क, जैसे तुतले बोलते हैं, जैसे लंगड़े चलते हैं, जैसे टुरहे लड़ते हैं, जैसे बहरे पूछते हैं. ऐसों के लिए तो मैं झूठ बोलता ही हूँ. इनका हाल तो वो है जैसे लंगड़ा हॉकी लेकर ध्यानचंद से बुली करने लगे, जैसे कनसुरा फ़ैयाज़ ख़ाँ के लिए लयकारी करने लगे, टुटुआ आमदजान थिरकुवा को तबला बजाने का सबक पढ़ाने लगे, जैसे दमे का मरीज़ बिस्मिल्ला ख़ाँ को शहनाई सुना रहा हो, जैसे गिरी हुई उँगलियाँ रविशंकर को सितार बजाना सिखा रही हों, जैसे झुकी हुई बूढ़ियाँ सितारा देवी को नाचना सिखाती हों. . .

हाँ, मैं – झूठ बोलता हूँ. झूठ पर पहला नॉविल लिखकर फख़रूद्दीन अली अहमद और उनकी बहिन हमीदा सुल्तान और दूसरी बहिन अख़्तर आरा से तारीफ़ हासिल करना झूठ नहीं तो और क्या है? उर्दू के एक बहुत बड़े नक़्क़ाद क़लीमुद्दीन के पास गए थे. दो घंटे में तीन जुमले वसूल हुए – मैं अच्छा हूँ. आप कब तक रहेंगे? अच्छा, ख़ुदा हाफ़िज़. पटना में उस वक़्त के जो लोग ज़िंदा हैं उनको मालूम है कि प्रो. क़लीमुद्दीन ने जब मुझको चाय पर बुलाया तो पैंतीस-चालीस आदमी उस वक़्त मौजूद थे. जब मैं चलने लगा तो मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा था – ‘अबकी आइएगा तो हमारे मेहमान होइएगा. हम भी आपको चाहते हैं.’ अब्दुल वदूद ने जब खाने पर बुलाया तो दर्ज़न भर आदमी बुलाए गए थे. एक कमरे में सूप पिलाया था, दूसरे कमरे में खाना खिलाया था, तीसरे कमरे में कॉफ़ी सर्व हुई थी. फ़रमाया था कि क़ाज़ी साहब हम भी क़ाज़ी हैं. इसी रिश्ते से हमारे यहाँ ठहरा कीजिए.’ आज याद करता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं. इसलिए कि मैं झूठा हूं.

हैदराबाद एक होटल में ठहरा था. एक नवाब आए – ‘मैं आपको अपने महल नहीं ले जाऊंगा इसलिए कि आपकी आज़ादियों में ख़लल पड़ेगा. लेकिन कल रात का खाना मेरे साथ खाइए.’ और जब हम खाने की मेज़ पर बैठे थे तो मेज़ और कुर्सियों की नक़्क़ाशी देख रहे थे, छत के फ़ानूसों का तमाशा देख रहे थे. क़ालीनों और बर्तनों की दाद दे रहे थे कि बिजली चली गई. चौबीस कुर्सों की मेज़ पर बेल्जियम शीशे के चार बड़े-बड़े वैज़-से रखे थे, उनमें शराब भरी हुई थी. चार ख़ादिमाओं ने मोमबत्ती से उनको रोशन किया था. हमने उनकी रोशनी में खाना खाया था. जब खाना ख़त्म हुआ तो कमरे में बिजली रोशन हो गई. जब हम होटल से चलने लगे तो मैनेजर आया और बोला कि मुझे नवाब साहब का हुक़्म है कि अगर आप एक महीना भी रहें तो उसका हिसाब नवाब साहब करेंगे.

यह वाकया हमने हाशिम अली साहब को सुनाया था. उनकी आँखें भीग गई थीं. उन्होंने फ़रमाया था – ‘ हाँ काज़ी साहब, हमारे हैदराबाद में भी भी ऐसे अदबनवाज़ पड़े हुए हैं.’ हाँ, मैं झूठ बोल रहा हूँ. क्या-क्या बताऊँ? और क्या बताऊँ? मैं तो पैदाइशी झूठा हूँ. सच्चो तो वो लोग हैं जो किसी बड़े आदमी के यहाँ जाते हैं और मुलाज़िम कह देता है कि साहब घर पर नहीं है. सबसे बड़ा सच यह है. हम जाते हैं – चाहे वो बिहार का मुजफ़्फ़रपुर हो, जलंधर या बंबई या हैदराबाद या मैसूर – हमसे लोग मेहमान बनाने के बाद गुज़ारिश करते हैं कि मेहमान तीन दिन से पहले नहीं जाना चाहिए या आप हमारी तौहीन कर रहे हैं. और हम आँख बचाकर चले आते हैं. हम बेशक झूठे हैं. छोड़िए प्रेम जी छोड़िए. उनको अपने सच में ज़िंदा रहने दीजिए, हमको अपने झूठ में मर जाने की इजाज़त दीजिए.

क़ाज़ी साहब को कुछ ज़्यादा ही प्रिय गालियाँ बीच में कई बार सुनाई दी थीं. पर जब इस बीच उनका बेटा कहीं जाने के लिए कुछ पूछने आ गया तो एकदम बिगड़ उठे – ‘आपको मालूम है कि मैं डिस्टर्ब हो जाता हूँ. चीज़ें भूल जाता हूँ.’ बेटे के जाने के बाद कई चुनींदा गालियों के साथ नई पीढ़ी की करतूतों और कारनामों को बखाना जाता रहा था. गालियों की उस भीड़ से बचने की कोशिश में ध्यान आया कि लेखन में पिछले दिनों गालियों के प्रयोग के औचित्य और अनौचित्य पर तरह-तरह के तर्क दिए जाते रहे हैं, क्यों न क़ाज़ी साहब की इस आदत और गालियों के लेखन में प्रयोग पर ही बात की जाए. मेरे प्रश्न के उत्तर की शुरुआत उन्होंने अवध और तालुकेदारी के उल्लेख से की थी – ‘प्रेमकुमार जी, अवध के तालुकेदारों में एक कहावत है – गुड़गुड़ी, तुड़तुड़ी, हाथी, पतुरिया, कर्ज़ा, घंटा, अदालत – जब तक ये सात चीजें न हों, तालुकदार-तालुकदार नहीं कहा जाता. गुड़गुड़ी के मायने हुक़्क़ा, तुड़तुड़ी मायने गाली! तालुकदार की उम्र अस्सी बरस है, मगर सोलह साल की पतुरिया नौकर रहेगी. बाक़ी चीजें तो आप जानते ही हैं.

हाँ, कर्ज़े के बारे में बता दूँ. जब मेरी शादी हुई थी तो मैंने अपने ससुर चौधरी महमूद तालुकदार दीन पनाह से पूछा कि कर्ज़े में क्या शान होती है? मुस्कराए, कल बता दूँगा. अगले दिन सिल्वर व्हाइट डॉज़ पर हमको बिठाया, खुनखुन जी की दुकान के सामने गाड़ी रुकी. ड्राइवर ने हॉर्न दिया. उनका पोता दौड़ता हुआ आया. चौधरी साहब के पैर छुए. हाथ जोड़कर खड़ा हो गया. ‘अरे भाई, आपकी चचीजान ने कुछ अंगुठियाँ मंगवाई हैं!’ वो दौड़ गया. एक बक्स ले आया जिसमें अँगूठियाँ सजी थीं. सारा बक्स तमाम जवाहिर की अँगूठियों से भरा था. उन्होंने चार अँगूठियाँ निकालकर जेब में रख लीं. वो कहता रहा – गर्म पी लीजिए, ठंडा पी लीजिए! ‘नहीं बेटा, मैं जल्दी में हूँ’ कहा और गाड़ी बढ़ गई. एक जगह गाड़ी रुकवाई और हमसे कहा गया ‘बेटे, इन चारों अँगूठियों की क़ीमत कम से कम एक लाख है. उसने मुझसे कुछ कहा? नहीं! आप सौ रुपए की चीज़ किसी दुकान से ले लीजिए – इसी तरह जैसे हमने ली है. ये है कर्ज़ा! ये है शाने रियासत!’

ये वाक़या मैंने हिन्दी के साहित्यकार विभूतिनारायण राय को सुनाया था. उन्होंने कुछ चीज़ें लिखी थीं. मशहूर फ़िक्शननिगार हयातुल्ला अंसारी से, जब वो राज्य सभा मेंबर थे और वेस्टर्न कोर्ट में रहते थे, मैं मिलने गया था. देखते ही बोले, ‘आइए, आइए! जी ख़ुश हो गया! बैठिए! पहले एक बात बता दीजिए! आपने अवध पर जो लिखा है वो मैंने लफ़्ज़-लफ़्ज़ पढ़ा है. लेकिन जी चाहता है आप और लिखिए. अभी अवध का कर्ज़ आप पर बाक़ी है.’ बातों के दरम्यान मैंने अंसारी साहब से पूछा – ये अवध के हिंदू-मुसलमान तालुकेदार भरी गर्मियों में शादी क्यों करते थे?’ बोले – ‘मियाँ, मैने सोचा नहीं, आप बताइए!’ नौकर को आवाज़ लगाई – ‘टेप लगा दे !’ मेरी तरफ़ मुख़ातिब हुए – ‘हाँ, अब सुनाइए !’ मैं बताने लगा – ‘ सर, वो इसलिए ये करते थे कि पचमेल खाना उनकी रियाया के सैकड़ों आदमियों ने कभी नहीं खाया होगा. इसलिए हज़ार आदमियों की बारात का खाना पाँच-छह हज़ार के लिए पकाया जाता. सब खा चुके तो हुक़्म हुआ कि बँटवा दो ! कि अगर दिल में लालच आ जाए, सुबह खाने का ख़्याल भी आ जाए तो खाना ख़राब हो जाएगा. इसलिए भी बँटवाना ज़रूरी था. इसलिए भी गर्मियों में शादी होती थी कि हर ख़ानदान में ग़रीब अज़ीज़ थे. उन ग़रीबों ने कहीं से पाँच रुपए – सस्ते के ज़माने में – हासिल किए. दो रुपए में उम्दा कुर्ता-पायजामा बनवाया, एक रुपए का जूता ख़रीदा, एक रुपया सफ़र का रखा, एक रुपया न्यौता दिया, तीन दिन मुर्गी-बिरयानी झड़की और ख़ुश-ख़ुश चले आए.

अगर यही शादी जाड़ों में होती तो जड़ावल कहाँ से लाते? शेरवानी है भी तो जूता नहीं है, जूता है तो मोज़ा नहीं है. दिल मारकर रह जाते, शिरकत नहीं करते.’ अंसारी साहब बोले – ‘ख़ूब कहा ! कोई शादी याद है ऐसी ? सुनाइए !’ हम सुनाने लगे – ‘हम बहुत छोटे थे. हमारी फूफी को शादी हुई थी. मियाँ का हुक़्म था कि कम से कम एक हज़ार की बारात आए! बारात लाने वाला भी तालुकदार ! चार हज़ार आदमी लेकर उतर पड़ा. मियाँ बदहवास हो गए! खाने के इंतज़ाम वाले को बुलाया. उसने कहा, तो फ़िकर क्या है? आप बोलिए जाकर ! और उनसे कहिए कि चार हज़ार और ले आएँ! बावर्चियों से उसने कहा – हर देग में पाँच-पाँच सेर घी और डाल दो!

दस-बारह बक़रे पकड़कर ज़िबह करो, चढ़ाओ ! तंदूर लगाओ ! और देखो हर लुक़्मे से घी टपके ! खाएँ साले. लाला सद्गुरु हिंदुओं के खाने के इंचार्ज थे. मुस्कराते आए – भैया, हज़ार-पाँच सौ और बुलवाय लो ! हिंदुजनों का खाना बहुत बचा है. दुई-दुई पूरी साले खाय ना पाए ! निवाला तोड़े, तो कपड़े बचावें कि खाना खाएँ. देगों की देग बच गई. सुबह तक तक़सीम होती रही…’

अंसारी साहब ने पूछा – ‘ये किस सन् वाक़या है? ‘ ‘उन्नीस सौ सैंतीस.’ ‘किन फूफी की शादी थी? ‘ ‘वसीदुन्निसा, सबसे छोटी फूफी ! मर गई.’ ‘बारात कहाँ से आई थी? ‘ – ” कबरा से.’ मैँने मुलाज़िम से टेप बंद कर देने को कहा. अंसारी साहब ने रोक दिया – ‘नहीं, अभी टेप बंद नहीं होगा. ये आपने क्यों नहीं लिखा? ‘ हम चुप रहे. ’कौन लिखेगा, नाम बताइए! क़ब्र में ले जाइएगा? लिखिए ! ये आप ही लिख सकते हैं. ‘ मैं बोला – ‘एक बात और अंसारी साहब ! पूरे हिंदोस्तान में सिर्फ़ अवध वो सरज़मीन थी जहाँ का मुसलमान रईस राजा कहलाता था. वरना सारे हिंदोस्तान में उन्हें नवाब कहा जाता था. एक बात और – अगर रईस मुसलमान है तो मुख़्तारे आम हिंदू, अगर रईस हिंदू है तो मुंतज़िमेआला मुसलमान. नाम लूँ तालुकों के?’ ‘ नहीं-नहीं! आप सही कह रहे हैं.’

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