रुदादे सफ़र | रिश्तों का सफ़रनामा

  • 10:43 am
  • 18 June 2023

ज़िंदगी के तवील सफ़र की एक ख़ूबसूरत दास्तान, जो गाँधी मेडिकल कॉलेज के एनाटॉमी विभाग से शुरू होकर वहीं पर ख़त्म हो जाती है.

यह कहानी है एक परिवार की, माँ पुष्पा भार्गव, बेटी अर्चना भार्गव और पिता डॉ.राम भार्गव की.

यह कहानी है, पिता और पुत्री के उस रिश्ते की, जहाँ “बेटियाँ पिता की दिनचर्या में आदत-सी घुली रहती हैं. वे समझ ही नहीं पाते, कि उनके रोज़मर्रा के काम कैसे अपने आप हो जाते हैं. मानो कोई जिन्न उनकी ज़रूरतें, ख़्वाहिशें, बिना कहे पूरी करता जाता है, जिसका अहसास उन्हें तब होता है, जब वे दूर चली जाती हैं.” बेटी के जाने के बाद यही आदत पिता के लिए कष्टप्रद हो जाती है.

बेटी का यह प्रश्न, “जब मैं चली जाऊँगी तो आप बहुत अकेले हो जाएँगे न पापा” न जाने कितनी बार दोहराया जा चुका है, जो बक़ौल पंकज सुबीर, “अश्वत्थामा की तरह अबूझ, अनुत्तरित और अमर होने का वरदान लेकर न जाने कितनी सदियों से भटक रहा है और आगे भी जाने कितनी सदियों तक यूँ ही भटकता रहेगा.”

यह सफ़रनामा है डॉ. राम भार्गव का.
एक डॉक्टर जिसके लिए अपने मरीज़ का हित सर्वोपरि है. जिन्हें पैसों का लालच नहीं. वे दवाई की कंपनियों के प्रस्ताव इसीलिए ठुकरा देते हैं, कि उनकी महंगी दवाइयाँ लिखकर अपने मरीजों से विश्वासघात नहीं करना चाहते. फ़िजूल की जाँचों से उगा धन, कमीशन या कट, जिन्हें नहीं चाहिए. अपने कर्मों के प्रति सजग निष्ठावान व्यक्ति, जो हर हाल में ख़ुश है. एक ऐसा पिता, बेटी ही जिसके जीवन की धुरी है. एक बहुत ही सुरीला संबंध है दोनों के बीच. जीवन की हर सिचुएशन के लिए एक गीत तैयार, जो दोनों मिलकर गाते हैं. यह संगीत हर बाधा, हर दुविधा के बीच से उन्हें खेकर पार लगा देता है.

यह सफ़रनामा है पुष्पा भार्गव का, जो सारी उम्र अभाव में जीती रही. पहले मायके में और फिर विवाह पश्चात भी. जीवन के कटु अनुभव, दुश्चिंताएँ, पति की सिधाई की फ़िक्र, ताने और उलाहने बनकर जिसकी जिह्वा पर दिन-रात विराजमान रहते हैं, जिनसे अर्चना अक्सर खिसिया भी जाती है, पर डॉ॰ भार्गव, उन तानों की नुकीली तेज़ धार को अपने विनोद से भोथरा कर, सदा पत्नी का पक्ष लेते हैं. सर्वथा विपरीत स्वभाव के होते हुए भी, अनूठे प्रेम पाश में बंधे हैं दोनों.

यह सफ़रनामा है अर्चना का, जो गाँधी मेडिकल कॉलेज में एनाटॉमी की विभागाध्यक्ष है. जहाँ देह की संरचना का ज्ञान, कैडेवर यानी मृतदेह को डिसेक्ट कर, मिलता है.

“जहाँ मृत जीवितों को पढ़ाते हैं.”

पर इसके लिए एनाटॉमी डिपार्टमेंट को कैडेवर चाहिए, जो तभी संभव हैं, जब लोग देहदान का संकल्प करें. लोग करते भी हैं, पर ऐन वक़्त पर कभी धर्म आड़े आ जाता है, तो कभी परिजनों का मोह, और रिश्तेदार मुकर जाते हैं.

देहदान, एनाटॉमी डिपार्टमेंट की सबसे बड़ी ज़रूरत, इस उपन्यास का आधार तत्व है, जिसके निवारण के लिए अर्चना ने स्वयं को पूर्णत: झोंक दिया है.

हम अक्सर संगीत, या गीतों के बोलों में, सम्वेदनाओं का निकास खोजते हैं. तब गीत हमारी मन:स्थितियों का सीधा प्रक्षेपण होते हैं. सुबीर मानते हैं कि, “कभी-कभी कोई गीत हमारे जीवन से इतना गहरे जुड़ जाता है कि वह हमारे जीवन का एक अंतरंग हिस्सा बन जाता है.” उन्होंने इस उपन्यास में गीतों के माध्यम से पात्रों की मनःस्थिति संप्रेषित की है. गीतों का यह अनुपम प्रयोग, उपन्यास में एक लय, एक ताज़गी भरते हुए, पाठक का, पात्रों की मनोदशा से एक तादात्म्य स्थापित करता चलता है.

जब समर्पण में पढ़ा कि सुबीर जी ने यह उपन्यास अपनी तीनों बेटियों को समर्पित किया है, तो एक छोटे से प्रश्न ने सिर उठाया था, जिसका उत्तर शुरू के पन्नों में ही मिल गया. पिता पुत्री के रिश्ते को नए आयाम देता यह उपन्यास, केवल और केवल बेटियों को ही समर्पित हो सकता था, क्योंकि “बेटियाँ माँ के शरीर से गर्भनाल द्वारा जुड़ी रहती हैं, जो जन्म लेते ही काट दी जाती है. पर उनकी आत्मा की गर्भनाल, भावनात्मक रूप से उन्हें अपने माता-पिता और अपने घर से सदा, बहुत गहरे जोड़े रखती हैं.”

कहानी एक अप्रत्याशित मोड़ पर आकर रुकती है, मानों शांत लहरों पर तैरती नौका, अचानक किसी पत्थर से जा टकराई हो.
सब छिन्न भिन्न….!
हर कोई स्तब्ध ….!

लेखक शब्दों के जादूगर तो हैं ही, उन्होंने उपन्यास में सम्वेदनाओं के तारों को छेड़ती ग़ज़लों और गीतों का इतना सुंदर तालमेल रचा है, कि यह पूरा उपन्यास संगीत की स्वर लहरियों पर, ख़िरामाँ-ख़िरामाँ बहते जज़ीरे-सा प्रतीत होता है.

पिता और बेटी के बीच के संवाद, उनकी कैमिस्ट्री, इस उपन्यास का सबसे सशक्त पक्ष है, जो उपन्यास में एक ताजगी, सुर और माधुर्य भर देते है.
और हाँ, भोपाल को जानना है, तो पंकज सुबीर की नज़र से देखिये.
इस शहर से प्यार हो जाएगा…!

किताबः रूदादे सफ़र
प्रकाशकः शिवना प्रकाशन, सीहोर
कीमतः 300 रुपए


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