ए.के. राय के बहाने झारखंडी पहचान की बात

झारखंड आंदोलन के एक प्रमुख स्तम्भ ए.के.राय को गुज़रे एक साल बीत गया. उनके जीवन को समझने से न केवल झारखंड आंदोलन के एक महत्वपूर्ण पड़ाव बल्कि वर्तमान झारखंड की राजनीति को भी सही परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है.

हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाले झारखंड मुक्ति मोर्चा के उद्गम को समझने के लिए भी ए.के.राय के लेखन और झारखंड आंदोलन में उनकी भूमिका को समझना होगा. इससे हम यह भी समझ सकेंगे कि झारखंड मुक्ति मोर्चा सिर्फ एक राजनीतिक दल विशेष न होकर एक व्यापक राजनीतिक-सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन का हिस्सा था. फरवरी 1972 में जब धनबाद के गोल्फ ग्राउंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना हुई तब मोर्चा के निर्माण, इसके सैद्धांतिक पक्ष और ज़मीनी स्तर पर इसका क्रियान्वयन जिन तीन लोगों ने मिल कर किया वे ए.के. राय, बिनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन थे. ये तीनों ही लंबे समय से झारखंड क्षेत्र के वंचित आबादी के उत्थान के लिए प्रयत्नशील थे.

याद रखने लायक़ एक ज़रूरी बात यह भी है कि झारखंड मुक्ति मोर्चा का नामकरण फ़्रांसीसी उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ वियतनाम में बने राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा (जिसे विएत काँग कहा जाता था) की तर्ज पर किया गया था. इस विषय में ए.के.राय ने 1974 में पटना की बाँकीपुर सेंट्रल जेल में लिखी अपनी अप्रकाशित डायरी में कहा है कि मोर्चा का बनना दुनिया भर में हो रहे जन आंदोलनों से प्रेरित था और विशेष तौर पर वियतनाम के लोगों के संघर्ष के जज़्बे को देख कर झारखंड के वंचित तबकों के लिए उसी तर्ज़ पर एक संघटन को बनाने की आवश्यकता की उपज थी – झारखंड मुक्ति मोर्चा का निर्माण. (उस वर्ष ए.के. राय कुछ समय के लिए जेल में बंद थे, जहां उन्होंने ‘राजनीति के संकट’ के नाम से तत्कालीन मुद्दों पर टिप्पणी लिखी थी).

ज़ाहिर है कि उन्होंने झारखंड को अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में चलने वाले जन आंदोलनों के संदर्भ में समझने की कोशिश की. इस पूरे प्रकरण में ए.के. राय को एक बात उनके दूसरे साथियों से अलग बनाती है, वह है उनका व्यापक दृष्टिकोण जो उन्होंने अपने विस्तृत लेखन में व्यक्त किया है. इतालवी दार्शनिक एन्टोनीओ ग्रामसी के हवाले से कहें तो एक ज़मीनी कार्यकर्ता के रूप में ए.के. राय एक ऑर्गनिक इंटेलेक्चुअल थे और किसी आम अकादमिक व्यक्ति की तरह अनजान भाषा में लिखकर आम जनता से कट कर सिद्धांत बनाने में माहिर नहीं थे. बल्कि आम जनता की भाषा में कठिन सिद्धांतों को आसान बनाकर जनता की चेतना को जगाने का काम कर रहे थे. ज़मीन से जुड़ाव, आम लोगों से नज़दीकी और उनकी नब्ज़ को अच्छी तरह समझने की वजह से ए.के. राय झारखंडी पहचान को एक अलग तरीके से परिभाषित करने में सफल हुए.

झारखंडी पहचान की राजनीति जयपाल मुंडा के काल से तमाम पड़ावों से गुजरती हुई दक्षिण झारखंड के आदिवासी बहुल इलाकों से उत्तर छोटानागपुर के ग़ैर आदिवासी कोयला खनन क्षेत्रों में पहुंची थी. झारखंड आंदोलन के शुरुआती चरण में ‘भीतरी बनाम बाहरी’ का मुद्दा आंदोलन में हावी था – यानी झारखंड केवल आदिवासियों के लिए. लेकिन झारखंड क्षेत्र में खनन कार्य के शुरू होने के बहुत पहले से ही बिहार, उत्तर प्रदेश और बंगाल के मैदानी इलाक़ों से लोग आते रहे हैं, और बसते रहे है. इन लोगों को झारखंड की साझा सांस्कृतिक विरासत से अलग करके देखना मुश्किल था और यह नज़रिया वृहत्तर झारखंडी पहचान की राजनीति को जटिल बना रहा था.

धनबाद उन दिनों खनन क्षेत्र का केंद्र तो था ही, साथ ही इसकी भौगोलिक स्थिति ने धनबाद को एक अलग पहचान दी थी. जहां जिले के एक ओर टुंडी में आदिवासी समुदाय के लोग थे, वहीं दूसरे हिस्सों जैसे बघमारा, सिजुआ जैसे इलाकों में पिछड़ी जातियों के लोगों का बाहुल्य था. सिंदरी जैसे नए औद्योगिक नगर और अन्य खनन क्षेत्रों में आदिवासी, पिछड़ी जातियों के साथ झारखंड के बाहर से आने वाले दलित जातियों की प्रधानता थी. जर्मन इतिहासकार रोडरमुंड के अनुसार गंगा के मैदानी इलाकों के सामंती शोषण से बचने के लिए दलित जातियों का पलायन धनबाद के कोयला क्षेत्र में हुआ था, लेकिन यहाँ आकर ये लोग सूदखोर और माफिया तंत्र के शोषण का शिकार हो गएय यों इनकी स्थिति में बदलाव नहीं आया. मैदानी इलाक़ों के पुराने सामंती उच्च वर्ण के लोग रोजगार की खोज में कोयला क्षेत्र में आकर बसे और अपने जातिगत तंत्र के द्वारा तत्कालीन मैनेजमेंट और प्रशासनिक तबकों के साथ साँठ-गाँठ बनाकर शोषण का एक मिश्रित और नया तंत्र बनाया, जिसमें पुराने सामंती जाति-तंत्र और आधुनिक पूंजी का घालमेल था.

झारखंड के बाहर से आए इन लोगों को ‘पछिमा’ कहा जाता था और इनके साथ स्थानीय ‘देहाती’ मजदूरों के टकराव की स्थिति बनती रहती थी. जनसंख्या की दृष्टि से भले ही धनबाद भिन्न जातियों और समुदायों का निवास था लेकिन इन सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से अलग समुदायों में एक विशेष समानता थी. और उस समानता को पहली बार ए.के. राय ने समझा और सैद्धांतिक रूप दिया. इन तबकों में ये समानता ही झारखंडी पहचान की राजनीति में एक नया मोड़ साबित हुई, और झारखंड मुक्ति मोर्चा का बनना इस पहचान को सामाजिक राजनीतिक आंदोलन से और पुख़्ता बनाने की एक कोशिश थी.

ए.के. राय ने आदिवासी, पिछड़े वर्ग और ‘पछिमा’ मजदूरों के बीच जिस समानता को समझा, वह था इन तीनों का शोषित होना. शोषक वर्ग (सूदखोर, खदान मैनेजमेंट और ठेकेदार/ माफिया) में जातिगत और भाषाई समानता थी, वहीं शोषित वर्गों में भाषाई और सांस्कृतिक विविधता होते हुए भी शोषित होने का अनुभव समान था. राय ने इसे समझा और अपने दूसरे साथियों बिनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन के साथ झारखंड मुक्ति मोर्चा को इन शोषित समूहों के मुक्ति का साझा प्लेटफ़ॉर्म बनाया. ए.के. राय के लिए झारखंड शोषित और वंचित तबकों की मुक्ति का वह स्थान है जहां सामंती और पूंजीवादी शोषण के लिए कोई स्थान नहीं है. वंचित और दलित वर्गों में चेतना के उत्थान को राय ‘नई दलित क्रांति’ का नाम देते है. यहाँ दलित शब्द जाति, पूंजी और राज्य से शोषित वर्गों का प्रतिनिधित्व करता है. यही झारखंडी पहचान का आधार है.

अगर ग़ौर से देखे तो इस पहचान में भाषाई, प्रांतीय या सांस्कृतिक भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं है. तत्कालीन समय में देहाती और पछिमा लोगों के बीच टकराव को ए.के. राय ने इस वृहत्तर झारखंडी पहचान की परिभाषा से काफी हद तक ख़त्म किया. यही कारण था कि पछिमा मजदूरों और कोयला माफियाओं में प्रांतीय और भाषाई समानता होते हुए भी 1970 और 80 के दौरान जन-आंदोलनों में पछिमा मजदूर देहाती मजदूरों के साथ मिलकर कोयला माफियाओं का सामना करते हैं.

उन दिनों मीडिया में ये आंदोलन और टकराव चर्चा का विषय बने हुए थे. आदिवासी झारखंड की पहचान से ए.के. राय ने झारखंडी पहचान को व्यापक बनाते हुए कहा कि हर वो व्यक्ति जो झारखंड की उन्नति, इसके संसाधनों की लूट के ख़िलाफ़ और इसके निवासियों के उत्थान के लिए काम करता है, वो झारखंडी है. ए.के. राय जिस झारखंडी पहचान की बात करते है, उसमें भगवान बिरसा की चेतना, लेनिन के विचार, गांधी की सादगी, सुभाषचंद्र बोस की कर्तव्यपरायणता और सदानंद झा, शक्तिनाथ महतो तथा गुरुदास चटर्जी के बलिदान की गाथा का अभूतपूर्व सम्मिश्रण है. ए.के. राय ने बदलाव की इस राजनीतिक-सामाजिक चेतना को झारखंडी पहचान का आधार बताया है.

राय अब नहीं है, लेकिन किसी भी लेखक या कार्यकर्ता की मृत्यु नहीं होती, अपने लेखन और काम से वह जब तक किसी भी एक व्यक्ति को सोचने पर मजबूर करता रहेगा, तब तक वह जिंदा रहेगा. आज ज़रूरत है कि ए.के. राय को साल में सिर्फ़ एक बार याद नहीं किया जाए बल्कि झारखंड के लोगों को, वहाँ के विद्यार्थियों को इस राज्य के बनने के इतिहास और इसके निर्माताओं के बारे में जानकारी दी जाए. झारखंड राज्य को सिर्फ़ वासेपुर फ़िल्म और 70 के दशक के बाहुबली माफ़ियाओं की वजह से नहीं बल्कि इसके कर्मठ, जुझारू, अलग राज्य निर्माण के सिपाहियों की वजह से जानना होगा.

जिस दल की सरकार आज जनता ने चुनी है, उसका जन्म ही झारखंडी पहचान के नाम पर हुआ था और उसके बनने में सभी समुदायों, वर्गों और भाषाइं लोगों की हिस्सेदारी थी. इस पूरे प्रकरण में ए.के. राय की भूमिका को बिना किसी पूर्वाग्रह के सामने लाना समय की ज़रूरत है. हम जानते है कि मौजूदा वैश्विक संकट ने विकास के इस तथाकथित मॉडेल की पोल खोल दी है और ए.के. राय के साहित्य को पढ़ने वाले अच्छी तरह से समझते हैं कि उन्होनें व्यवस्था के इन संकटों के विषय में काफी पहले लिख दिया था, उनको जानना और पढ़ना, पढ़ कर समझना वक़्त की मांग है. हाल के दिनों में कुछ साथियों ने धनबाद के पीएमसीएच का नामकरण ए.के. राय के नाम पर करने की मुहिम शुरू की है, सरकार को इस बात पर जल्दी निर्णय लेना चाहिए. क्योंकि यह बात सिर्फ़ नाम बदलने की नहीं बल्कि झारखंड के एक सिपाही के नाम को ज़िंदा रखने की कोशिश का हिस्सा है.

(लेखक सत्यवती कॉलेज, दिल्ली के इतिहास विभाग मं असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं.)


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