ऐसा सेवा भाव कि ‘धरती के रब’ कहलाए भगत पूरन सिंह

अमृतसर में ‘पिंगलवाड़ा’ इंसानियत का ऐसा तीर्थ है, जिसकी कोई और मिसाल नहीं मिलती और न ही ‘पिंगलवाड़ा’ के संस्थापक भगत पूरन सिंह सरीखा ही दूसरा कोई हुआ. ‘पिंगलवाड़ा’ अपनी तरह का अकेला ऐसा ठिकाना है, जो बच्चे-बूढ़े, औरत-मर्द, बीमार-अपाहिज और बेसहारा लोगों का अपना घर है. और भगत पूरन सिंह की ज़िंदगी की कहानी भी किवदंती से कम नहीं लगती.
मानवता का यह घर बनाने वाले भगत पूरन सिंह लुधियाना की खन्ना तहसील के राजोवाल गांव में जन्मे थे – 4 जून सन् 1904 को. पिता छिब्बू मल और माता मेहताब कौर ने उन्हें रामजी दास नाम दिया था. बाद में रामजी दास, भगत बने, पूरन हुए और सिंह होकर लोक सेवा की गौरवशाली सिख रिवायत का अहम् हिस्सा बने. उनकी शुरुआती पढ़ाई गांव के स्कूल में हुई. दसवीं जमात में पढ़ रहे थे, जब उनके पिता का निधन हो गया. बदहाली के आलम में मां के साथ वह लाहौर चले गए. उनकी मां वहां लोगों के घरों में बर्तन मांजने का काम करने लगीं.
नौकरी के लिए वह गुरु अर्जुन देव की याद में बने लाहौर के गुरुद्वारे डेहरा साहिब चले गए. यहां उन्होंने 24 साल नौकरी की और ‘भगत पूरन सिंह’ का जन्म यहीं हुआ. बात 1934 की है, गुरुद्वारे के दरवाजे पर एक रोज़ उन्हें एक विकलांग और गूंगा-बहरा बच्चा लावारिस हाल में मिला. उस बच्चे को गोद में लेते ही जैसे रामजी दास के जीवन की दशा-दिशा बदल गई. इस बच्चे का नाम उन्होंने प्यारा सिंह रखा और पूरे 14 साल तक उसे अपनी गोद में और कंधों पर उठाकर घूमते रहे. मां और बाप का स्नेह दिया. तन-मन से उसकी परवरिश की. पिंगलवाड़ा सरीखी महान संस्था शुरू करने की प्रेरणा उन्हें प्यारा सिंह की देखरेख से ही मिली. उन्हीं प्यारा सिंह से 1948 के आसपास पिंगलवाड़ा की नींव रखाई गई. भगत ताउम्र प्यारा सिंह को रेहड़ी-रिक्शा ख़ुद चला कर घुमाते रहे. ऐसी विलक्षण ‘सेवा-यात्रा’ के गवाह अमृतसर के कितने ही बाशिंदे और तमाम सड़के हैं.
1947 के बंटवारे के बाद भगत जी लाहौर से जब अमृतसर आए, शहर भयावह दंगों की चपेट में था. उन्हें बेसहारा और विकलांग दंगा-पीड़ितों की हालत देखकर गहरा आघात लगा. उनकी सेवा संभाल के लिए पहले-पहल उन्होंने अमृतसर के खालसा कॉलेज के सामने तंबू लगाकर जो आश्रम बनाया, उसे ‘पिंगलवाड़ा’ का नाम दिया. यहां हर घायल और मजलूम की दवा-पट्टी वह ख़ुद किया करते थे. यहां तक कि कुष्ठ रोगियों की भी. बाद में जी.टी.रोड पर तहसील के पास ‘पिंगलवाड़ा’ की स्थापना की गई. इस पिंगलवाड़ा से रोज सुबह भगत पूरन सिंह, प्यारा सिंह को रेहड़ी पर लिटाकर निकलते. शाम को लौटते तो तीन-चार विकलांग और लावारिस बच्चे उनके साथ होते. यह उनका रोज का नियम रहा. सबसे पहले श्री हरमंदिर साहिब में मत्था टेकना और फिर वंचितों की तलाश करना. बीच रास्तों में वह लोगों को पर्यावरण, बढ़ती आबादी, गरीबी, साक्षरता, सड़क-रेल हादसों और बेरोजगारी से संबंधित पर्चे तथा पुस्तिकाएं बांटते जाते – जिन्हें बहुधा वह ख़ुद लिखते थे. कई बार हस्तलिखित प्रतियां बांटी जातीं और लोग मिल-जुल कर उन्हें पढ़ते. अमृतसर के बहुतेरे लोगों के लिए वह मसीहा और ‘धरती का रब्ब’ थे! पिंगलवाड़ा में रह रहे बच्चों, बुजुर्गों, महिलाओं और औरतों के लिए तो ख़ैर थे ही. और बेवजह नहीं थे.
वह सारी जिंदगी ब्रह्मचारी रहे. अपाहिजों, रोगियों और वंचितों की सेवा में ही उनका पूरा जीवन बीता और यही उनका परिवार थे. 1981 में उन्हें पद्मश्री दिया गया. इसके अलावा उन्हें कई राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिलते रहे. सही मायनों में वह मानव सेवा के सच्चे पैरोकार तथा पर्यावरण प्रेमी थे. जनसेवा के इस नायक का निधन 5 अगस्त, 1992 को हुआ. उनका बनाया मानवसेवा का मंदिर ‘पिंगलवाड़ा’ आज भी उनके सेवाभाव की अभिव्यक्ति बना हुआ है.
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