अमर शेख | एक आंदोलनकारी लोक शाहीर

  • 10:15 pm
  • 29 August 2020

मेहबूब हुसेन पटेल यानी अमर शेख ऐसे लोक शाहीर थे, जो जन आंदोलनों की उपज थे. देश की आज़ादी के साथ-साथ ‘संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन’ और ‘गोवा मुक्ति आंदोलन’ में सक्रिय रहे अमर शेख, अन्ना भाऊ साठे और दत्ता गाव्हनकर के साथ शुरुआत से ही बंबई इप्टा में शामिल हो गए थे. ज़मीन से जुड़े इन कलाकारों ने ‘तमाशा’, लावणी और ‘पवाड़ा’ जैसी लोक कलाओं को एक नई ज़िंदगी दी. उनमें नए रंग भरे, नए प्रयोग किए.

सोलापुर के वारसी तालुके में एक ग़रीब परिवार में जन्मे अमर शेख बमुश्किल सातवी जमात तक पढ़ पाए. संघर्ष ही उनके गुरू थे. गुज़ारे के लिए उन्होंने अख़बार बांटने, मिल की नौकरी और यहां तक कि ट्रकों पर क्लीनर के तौर पर भी काम किया. 1930 में वह चौहदह साल के थे, जब पहली बार आजादी की तहरीक में हिस्सा लिया. उनकी मां को लोक गीत गाने का बड़ा शौक था. गाते-गाते वह घर का काम करतीं. अमर शेख के बाल मन पर भी इसका असर पड़ा. पन्द्रह-सोलह साल की उम्र से ही उन्होंने कविता-गीत लिखने शुरू कर दिए.

वह जिस मिल में काम करते थे, मंदी की वजह से वह बंद हो गई. इस पर साथी कामगारों के साथ उन्होंने मिल प्रबंधन के ख़िलाफ़ हड़ताल कर दी. इसका नतीजा यह हुआ कि हड़ताली कामगारों को गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया गया. अमर शेख को बीसापुर की जिस जेल में रखा गया, वहां कॉमरेड कराड़कर भी थे. इस तरह जेल में ही उन्होंने मार्क्सवाद का ककहरा सीखा. यह वह दौर था, जब महाराष्ट्र में कम्युनिस्ट पार्टी का बड़ा बोलबाला था. कामगारों और किसानों में पार्टी काफी लोकप्रिय थी. सर्वहारा को यह लगता था कि यही पार्टी उनके विचारों की सही नुमाइंदगी करती है. अमर शेख भी पार्टी और इसकी विचारधारा से काफी प्रभावित हुए और 1938 मे कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता हो गए. पार्टी से जुड़ने के बाद, उनकी विचारधारा में और निखार आया. उनकी ख़ुद की यह सोच बनी कि ‘‘समाजवाद ही आज का युगधर्म है. समाज में यदि आर्थिक विषमता को ख़त्म करना है, तो वह समाजवाद से ही मुमकिन है.’’

उन्होंने पार्टी के कल्चरल फ्रंट पर ही काम किया. अन्ना भाऊ साठे और दत्ता गाव्हनकर के साथ मिलकर सांस्कृतिक ग्रुप ‘अमर कला पथक’ बनाया, जिसका काम जागरूकता फैलाना था. इस ग्रुप के ज़रिये वह किसानों, कामगारों के शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते. लोगों को आज़ादी की अहमियत समझाते. हक़ के लिए संघर्ष को आवाज़ देते. किसानों और कामगारों के लिए वह ‘लोकशाहीर अमर शेख’ हो गए. ‘अमर कला पथक’ के अलावा जब एक और सांस्कृतिक ग्रुप ‘लाल बावटा कलापथक’ (लाल क्रांति कलामंच) बना तो वह भी इसमें शामिल हो गए. कम्युनिस्ट पार्टी पर जब देश में पाबंदी लगी, तो अमर शेख कुछ समय तक अंडरग्राउंड भी रहे.

अमर शेख के सम्पूर्ण साहित्य में सामाजिक विसंगतियों, असमानताओं और वर्गभेद का मुखर विरोध मिलता है. अंग्रेज़ी हुकूमत में किसानों-कामगारों की बदहाल स्थिति का चित्रण उनकी रचनाओं में ख़ूब मिलता है. देश और देशवासियों की इस हालत पर वे ख़ामोश तमाशाई नहीं बने रहते, बल्कि गीतों, कविताओं, लावणी और पोवाड़े में जबर्दस्त प्रतिरोध दर्ज करते हैं. उनका ज्यादातर लेखन साम्राज्यवाद और सरमाएदारी के ख़िलाफ है. शायरी उनके लिए मन बहलाव नहीं थी, वह इसे एक आंदोलन के तौर पर लेते थे. अपनी शायरी से अवाम में बेदारी लाना ही उनका अकेला मकसद था.

आज़ादी के बाद 1957 में ‘संयुक्त महाराष्ट्र’ की मांग उठी, तो वह इस आंदोलन में शामिल हो गए. कम्युनिस्ट पार्टी की रहनुमाई में हुए इस आंदोलन का नेतृत्व आचार्य अत्रे, डांगे, विश्वास राव पाटिल, एस.एम. ज्योति, उद्धव राव पाटिल, ए. के. हंगल जैसे नेता कर रहे थे. ‘अमर कला पथक’ और ‘लाल बापटा’ के कलाकारों ने इसमें महत्वपूर्ण योगदान किया. ढपली की थाप पर अमर शेख जब अपनी बुलंद आवाज में गीत, पोवाड़े गाते तो जनता पर जबर्दस्त असर होता. शायरी के साथ ही ख़ुद अमर शेख की शख़्सियत भी गजब थी. लंबे बाल, तीक्ष्ण आंखें और बुलंद आवाज़. धोती और कुर्ता उनकी पसंदीदा पोशाक थी.

महाराष्ट्र से दिल्ली तक जो मार्च निकला, उसकी अगुवाई करने वाले लीडरों में वह भी थे. संसद के सामने धरने पर ढपली बजाते हुए उन्होंने लगातार सात घंटे तक गीत गाए. धरने के साक्षी बताते कि उनका अंदाज़ कुछ ऐसा था कि जैसे मुंह से आग निकल रही हो. इस मोर्चे की मांग के आगे सरकार झुकी और खुद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू मोर्चे के लीडरों से मिलने आए. 1 मई 1960 को महाराष्ट्र का गठन इस आंदोलन का ही नतीजा था. बाद में  जब गोवा मुक्ति आंदोलन शुरू हुआ, तो उसमें भी उन्होंने शिरकत की.

भारत-चीन युद्ध के समय कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों से मतभेद के चलते वह कुछ समय तक पार्टी से दूर भी हुए, लेकिन बाद में लौट आए. आज़ादी के बाद भी वह अपने दल ‘अमर कथा पथक’ के मार्फत अवाम में सामाजिक, सियासी चेतना फैलाने का काम करते रहे. यहीं नहीं जब भी समाज और देश को ज़रूरत पड़ी, चाहे स्कूल बनवाने के वास्ते हो या फिर चीन, पाकिस्तान से युद्ध के समय युद्ध कोष में मदद की बात हो,  सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए उन्होंने हमेशा चंदा इकट्ठा किया. और मदद की.

उनका कार्य क्षेत्र महाराष्ट्र ही रहा. शहीद ऊधम सिंह, छत्रपति शिवाजी महाराज और मल्हार राव होल्कर पर उनके लंबे पोवाड़े हैं. उन्होंने एक मासिक पत्रिका ‘युगदीप’ और गीतों की एक किताब ‘वक्त की आवाज़’ का संपादन भी किया. मराठी नाटक ‘झगड़ा’ और कुछ फ़िल्मों ‘प्रपंच’, ‘ज्योतिबा फुले’ में अभिनय किया. ‘प्रपंच’ के लिए उन्हें राष्ट्रपति अवार्ड भी मिला. ‘धरती के लाल’ के गीत उनके ही लिखे हुए हैं. मराठी सिनेमा के मशहूर निर्देशक मास्टर विनायक ने जब उन्हें अपनी फ़िल्म में अदाकारी के लिए लिया, तो उनका नाम अमर शेख रख दिया और बाद में  यही नाम उनकी पहचान बन गया.

उनके गीत-कविताओं की तीन किताबे हैं. ‘अमर गीत’ आज़ादी से पहले आई और अंग्रेज़ हुकूमत ने इसे जब्त कर लिया था. बाद में 1951 में यह दोबारा छपी. दूसरी किताब ‘कलश’ है, जिसमें ज्यादातर कविताएं और कुछ पोवाड़े हैं. 1963 में आई ‘धरती माता’ उनकी तीसरी किताब है, जिसमें लावड़ी, पोवाड़ा और कविताएं शामिल हैं. उन्होंने दो नाटक ‘पहला बलि’ और ‘झगड़ा’ भी लिखे. ‘झगड़ा’ के लिए उन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार मिला. ‘पाथरवड’, ‘ढोंगी’, ‘मोरीवाली’, ‘जलधारा नो’, ‘बेड़ी आई’, ‘कोकिले’ और ‘प्रथ्वी से प्रेमगीत’ अमर शेख की चर्चित कविताएं हैं. उनकी कविताओं में स्त्री का सम्मान और प्रकृति का शानदार चित्रण भी मिलता है.

अमर शेख के गांव वारसी में लगी उनकी प्रतिमा और मुम्बई यूनीवर्सिटी में उनके नाम पर एक कक्ष उनकी निशानी है. सत्ता और सियासी पार्टियों ने उन्हें भुला दिया मगर सर्वहारा के बीच उनका नाम पूरे अक़ीदे से लिया जाता है.  आचार्य अत्रे ने अमर शेख के साहित्य पर लिखा है,‘‘अमर शेख की कविताओं में सामाजिक चेतना और वर्ग चेतना का दर्शन होता है.’’ आचार्य माधव पोतदार की राय है,‘‘अमर शेख का मानवता पर अमिट प्रेम था, लेकिन उनके साहित्य में क्रांति की आवाज़ भी है.’’ ‘संग्राम कवि अमर शेख’ के लेखक डॉ. अकरम हबीब खान पठान कहते हैं, ‘‘अमर शेख एक क्रांतिकारी शख्सियत थे. उन्होंने अपनी शायरी से समाज में चेतना पैदा करने का काम किया और शोषण करने वालों के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की.’’ हिन्दी में उन पर कोई किताब नहीं है, लेकिन मराठी में उन पर काफी काम हुआ है.

(जन्म |  20 अक्टूबर, 1916 –  निधन | 29 अगस्त, 1969)

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