जन्मदिन | खालसा राज के दिलेर योद्धा हरि सिंह नलवा
इतिहास में जहां भी महाराजा रंजीत सिंह के ‘खालसाराज’ का ज़िक्र होता है, हरि सिंह नलवा के बग़ैर पूरा नहीं होता. पंजाब की सरज़मीं को अफ़गानों के क़ब्ज़े से छुड़ाने के सैन्य अभियानों की सफलता का सेहरा इसी बहादुर योद्धा के सिर बंधता रहा. उनके कौशल के क़िस्से उन्हें मिथक कथाओं के नायक सा दर्जा देते हैं. पीढ़ियां उनकी मिसालें और बहादुरी के क़िस्से सुनते हुए जवान होती हैं. मगर सिख साम्राज्य की इस बेमिसाल शख़्सियत की आख़िरी निशानी भी अब हिंदुस्तान में नहीं, पाकिस्तान में है.
गुजरांवाला में सरदार गुरदयाल सिंह और धर्म कौर के घर हरि सिंह का जन्म 28 अप्रैल 1791 को हुआ था. सात बरस के थे, जब पिता का साया सिर से उठ गया. दस साल की उम्र में उन्होंने सिख रिवायत के मुताबिक अमृतपान किया. दशम गुरु गोविंद सिंह के परिवार की कुर्बानी की गाथाएं उनकी रगों में दौड़ती थीं. खेलने-खाने की उम्र में ही उन्होंने अस्त्र-शस्त्र चलाने के साथ ही मार्शल आर्ट और घुड़सवारी में भी महारत हासिल कर ली.
बसंत के मौक़े पर महाराजा रंजीत सिंह के राज में हफ़्ते भर तक उत्सव होते और इस दौरान महाराजा खुला दरबार लगाते. सन् 1805 के बसंत उत्सव में हरि सिंह महाराजा के दरबार में पेश हुए. युद्ध कौशल के उनके प्रदर्शन से महाराजा रंजीत सिंह इतने प्रभावित हुए कि उनको दरबार में अपने सहायक का ओहदा दे दिया. साल भर में ही उन्हें आठ सौ फौजियों की एक टुकड़ी का सरदार बना दिया गया. अगले तीस सालों तक मैदाने-जंग में फ़ौजों की अगुवाई करने वाले हरि सिंह की ज़िंदगी का यह पहला ऐतिहासिक क़दम था. उनकी अगुवाई में सिख साम्राज्य ने 1813 में अटक, 1814 में कश्मीर, 1816 में महमूदकोट, 1818 में मुल्तान, 1822 में मनकेरा, 1823 में नौशहरा समेत बीस से ज्यादा युद्धों में दुश्मनों को हराकर विजय हासिल की.
उप्पल कुलनाम वाले हरि सिंह के नाम के साथ नलवा जुड़ने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है. महाराजा रंजीत सिंह एक बार हरि सिंह के साथ शिकार पर गए तो जंगल में एक खूंखार बाघ ने अचानक हमला कर दिया. हमले की जद में पहले हरि सिंह आए. उनका घोड़ा ठौर मारा गया. हमला इतना अप्रत्याशित था कि हरि सिंह को तलवार निकालने का मौका भी नहीं मिला. दहाड़ते बाघ से वह खाली हाथ मुकाबिल थे. उन्होंने फुर्ती से बाघ का जबड़ा पकड़ लिया और अपनी भुजाओं की ताक़त से उसे पीछे धकेल दिया. बाघ फिर से उन पर हमला करता तब तक वह तलवार निकाल चुके थे. अबकि उन्होंने बाघ का काम-तमाम कर दिया. यह देखकर महाराजा रंजीत सिंह ने उनसे कहा कि तुम राजा नल की तरह वीर हो. तभी से हरि सिंह के नाम के साथ ‘नलवा’ जुड़ गया. उन्हें ‘बाघ मार’ भी कहा जाने लगा.
सन् 1836 में हरि सिंह नलवा ने जमरूद से अफ़गानियों को खदेड़कर अपने क़ब्ज़े में कर लिया था. 1838 में महाराजा रंजीत सिंह के पोते नौनिहाल सिंह की शादी का उत्सव था. ब्रिटिश कमांडर इन चीफ भी आमंत्रित थे. उनकी सलामी के लिए समूचे पंजाब से सैनिक बुलाए गए. इसका फ़ायदा उठाकर और यह अंदाज़ा लगाकर कि हरि सिंह भी शादी में शिरकत के लिए अमृतसर चले गए हैं, दुश्मन ने हल्ला बोलने की रणनीति बनाई. हरि सिंह को इसकी भनक लग गई. वह पेशावर में ही रुक गए. जमरूद पर हमला हुआ. दुश्मन से मुक़ाबले के लिए वह पेशावर से जमरूद पहुंच गए तो अफ़गानी फौज में खलबली मच गई. हरि सिंह उन दिनों बीमार थे लेकिन उन्होंने डटकर मुक़ाबला किया. 11,000 अफ़गान सैनिक खेत रहे. अफ़गानियों के पास सिखों के मुकाबले ज्यादा बड़ी फौज थी और हर फौजी को हुक्म था कि हरि सिंह को हर हाल में मार गिराना है. आख़िरकार पीठ पर तीरों, भालों और बंदूक की गोलियों से हुए वार के चलते वह गंभीर जख्मी हो गए. उन्हें किले में ले जाया गया. अंतिम क्षणों में हरि सिंह ने अपने सैनिकों से कहा कि उनकी मौत की ख़बर हरगिज़ बाहर न जाने दें. ताकि दुश्मनों की सेना पर उनके खौफ का साया बरकरार रहे. यही हुआ और अफगान हमलावर हरि सिंह नलवा को जिंदा मानकर हफ्ता भर तक जंग के मैदान में नहीं आए. बाद में सिख साम्राज्य की फौज ने उन्हें खदेड़ा. अप्रैल में उनका जन्म हुआ था, 30 अप्रैल 1837 को वह वीरगति को प्राप्त हुए.
उधर, महाराजा रंजीत सिंह 80 हजार सैनिकों के साथ जमरूद के लिए चल पड़े. रास्ते में उन्हें हरि सिंह नलवा की शहादत की ख़बर दी गई. इतिहासकारों के मुताबिक मुश्किल से मुश्किल घड़ी में होश औऱ हौसला दुरुस्त रखने वाले महाराजा रंजीत सिंह एकबारगी इतना सकते-सदमे में आ गए कि हाथी पर बैठे-बैठे लगभग बेहोश हो गए. अपने सिरमौर योद्धा साथी का यह बिछोह उनकी बर्दाश्त से बाहर था. लेकिन जैसा कि खुद हरि सिंह नलवा मानते थे, “फौजी का दूसरा नाम शहादत है!” शहादत हो चुकी थी. इस गम ने बाक़ी जिंदगी में महाराजा रंजीत सिंह का पीछा नहीं छोड़ा. उनके बाद वह कोई बड़ी लड़ाई जीत नहीं पाए. नलवा की शहादत का घुन उन्हें लग गया.
हरि सिंह की अंत्येष्टि ख़ैबर पख़्तूनख्वा के जमरूद क़िले में की गई. सन् 1892 में पेशावर के बाबू गज्जू मल कपूर ने उनकी याद में वहां एक स्मारक बनवाया. ख़ैबर पख्तूनख्वा के हरिपुर ज़िले में हरि सिंह ने 1822 में 35,420 वर्ग फुट किले बनवाया था, जिसे सुरक्षा के लिहाज़ से अभेद्य माना जाता था. उनकी दिलेरी का दुश्मनों में इस क़दर ख़ौफ़ था कि उस इलाक़े में शरारती बच्चों को यह कहकर चुप कराया जाता कि ‘सा बच्चे हरिया रागले’ यानी सो जा बच्चे नहीं तो हरि सिंह नलवा आ जाएगा! हरि सिंह के अद्भुत रणकौशल की वजह से ही सर हेनरी ग्रिफिन ने उन्हें ‘खालसा राज का चैंपियन’ का ख़िताब दिया.
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