विजय तेंदुलकर | भारतीय रंगमंच में यथार्थ का चितेरा

  • 12:02 am
  • 19 May 2020

हिन्दुस्तानी थिएटर को दुनिया भर में नई पहचान दिलाने वाले का श्रेय जिन नाटककारों को है, विजय तेंदुलकर उनमें अगली क़तार के नाटककार रहे. जोखिम उठाकर उन्होंने अपने नाटकों में हमेशा नए विचारों को तरजीह दी. थिएटर में वर्जित समझे जाने वाले विषयों को अपने नाटकों की विषयवस्तु बनाने और लोगों के बीच उसे सही साबित कर देने की उनकी प्रतिभा अनूठी थी. अपने दौर की कड़वी सच्चाइयां बयान करने का माद्दा, उनमें औरों से कहीं ज्यादा था. अपने लेखन पर विजय तेंदुलकर का कहना था, ‘‘मैं आदर्शों में यक़ीन करने वाला लेखक नहीं हूं. मैं अपने खुरदरे यथार्थ के साथ ही ठीक हूं. लोग कहते हैं कि मेरे लेखन में पत्रकारिता की छाप है. पर मैं इसमें कोई बुराई नहीं देखता.’’

‘घासीराम कोतवाल’ को छोड़ दें तो विजय तेंदुलकर के सारे नाटक ऐसे ही बोल्ड विषयों के इर्द-गिर्द घूमते हैं. नाटक में नैतिकता-अनैतिकता, श्लीलता-अश्लीलता के सवालों से वे लगातार जूझते रहे, मगर इन सवालों से घबराकर उन्होंने कभी अपना रास्ता नहीं बदला, बल्कि हर बार उनका इरादा और भी मज़बूत होता गया. इस बात का बहुत कम लोगों को इल्म होगा कि शाब्दिक हिंसा और अश्लील संवाद के इस्तेमाल के आरोप झेलने वाला उनका नाटक ‘गिद्ध’, लंबे अरसे तक रंगमंच पर खेले जाने की बाट जोहता रहा. फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. आख़िरकार ‘गिद्ध’ खेला गया और उसे जबर्दस्त कामयाबी मिली. कमोबेश यही हालात उनके नाटक ‘सखाराम बाइंडर’, ‘मच्छिंद मोरे के जानेमन’ और ‘बेबी’ के प्रदर्शन के वक्त भी बने. इन नाटकों में कथित अश्लील दृश्यों एवं हिंसक शब्दावली के प्रयोग पर शुद्धतावादियों ने कड़े एतराज उठाए. लेकिन उन्हें हर बार मुंह की खानी पड़ी.
विजय तेंदुलकर ने अपने नाटकों में अश्लील दृश्यों और अश्लील-हिंसक शब्दावली का प्रयोग सनसनी फैलाने और चर्चित होने के लिए कभी नहीं किया, बल्कि कथ्य की मांग और प्रस्तुति की गुणवत्ता को ध्यान में रखकर ही उन्होंने ऐसा किया. लिहाजा उनके नाटक दर्शकों में उत्तेजना या जुगुप्सा पैदा नहीं करते.

नाटक ‘सखाराम बाइंडर’, ‘गिद्ध’, ‘मच्छिंद मोरे के जानेमन’ और ‘बेबी’ आदि की निष्पक्ष विवेचना करें, तो मालूम चलेगा कि इन नाटकों में शाब्दिक हिंसा या अश्लील संवाद का इस्तेमाल क्यों हुआ है? इनके संदर्भ दरअसल क्या हैं? लेकिन इन बातों पर ग़ौर किए बिना ही वबाल खड़े होते रहे. ज़ाहिर है कि जब चीज़ों को संदर्भ से काटकर देखा जाता है, तो उसके मायने भी बदल जाते हैं. विजय तेंदुलकर के नाटक न सिर्फ बोल्ड हैं, बल्कि अपने समय से आगे के भी हैं. और इसका जिसका ख़ामियाजा उन्हें समय-समय पर भुगतना पड़ा. यूरोप में रंगमंच के अंदर यर्थाथवाद का एक लंबा इतिहास रहा है, लेकिन हमारे यहां यह शुरूआत काफी देरी से हुई. भारत में यथार्थवाद को अपने नाटकों की विषयवस्तु बनाने वालों में विजय तेंदुलकर का अव्वल स्थान है. सामाजिक- राजनीतिक विसंगतियां उनके नाटकों में अहमियत के साथ आती हैं. उनके नाटक एक ओर सामाजिक पाखंड को चुनौती देते हैं, तो दूसरी ओर राजनीतिक सत्ता को. ‘सखाराम बाइंडर’, ‘गिद्ध’ सरीखे नाटकों में जिस तरह से उन्होंने परंपरावादी और पुराने मूल्यों से जकड़े समाज पर कटाक्ष किए हैं, वह अद्भुत है. विजय तेंदुलकर के नाटकों पर इल्जाम लगाने वाले यह भूल जाते हैं कि तेंदुलकर के नाटकों से कहीं ज्यादा अनैतिकता, अश्लीलता, शाब्दिक हिंसा हमारे सार्वजनिक जीवन में है, जिसका सामना हम ख़ामोशी से आए दिन करते रहते हैं. इसका प्रतिवाद करने की कोई कोशिश नहीं होती. उन्होंने ऐसे ही समाज की वास्तविक अक़्क़ाशी अगर अपने नाटकों में की है, तो फिर क्या बुरा किया?

कोल्हापुर में जन्मे विजय धोंडोपंत तेंदुलकर ने बचपन से ही नाटकों में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी थी. पश्चिमी नाटकों का उन पर जबर्दस्त असर था. चौदह साल की उम्र में उन्होंने अपना पहला नाटक निर्देशित किया. इसके बाद यह सिलसिला चलता रहा. नाटक के अलावा वे अख़बारों में लेख लिखते, मगर उनका पहला शौक नाटक ही था. तेंदुलकर के शुरुआती नाटक मंच पर कोई कमाल नहीं दिखा पाए. आख़िरकार साल 1956 में उनका नाटक ‘श्रीमंत’ आया और इस नाटक को दर्शकों-आलोचकों दोनों ने ही काफी पसंद किया. इस नाटक के साथ ही मराठी रंगमंच पर उनकी पहचान एक नाटककार के तौर पर बन गई. फिर तो उनकी कलम से एक से बढ़कर एक शाहकार निकले. मसलन ‘शांतता ! कोर्ट चालू आहे’ (ख़ामोश अदालत जारी है), ‘जाति ही पूछो साधु की’, ‘गिद्ध’, ‘बेबी’, ‘कमला’, ‘मच्छिंद मोरे के जानेमन’, ‘सखाराम बाइंडर’ और इन सबसे ख़ास ‘घासीराम कोतवाल’. साल 1970 में लिखे गए ‘घासीराम कोतवाल’ ने तो भारतीय रंगमंच में हलचल मचा दी. नाटक ‘घासीराम कोतवाल’ में विजय तेंदुलकर ने मराठी लोक संगीत और पारंपरिक रंगकर्म को आधार बनाते हुए, जिस तरह उसमें आधुनिक रंगमंच की तकनीकी बारीकियों का इस्तेमाल किया, वह मराठी रंगमंच में पहला प्रयोग था. इस नाटक ने मराठी रंगमंच की पूरी तस्वीर ही बदल कर रख दी और आज वह अपने आप में एक इतिहास है. ख़ुद विजय तेंडुलकर अपने इस नाटक के बारे में कहते थे, ‘‘घासीराम कोतवाल’ एक किंवदंती है, एक दंतकथा है. दंतकथा का एक अपना रचना विधान होता है. झीने यथार्थ को जब हम अपनी नैतिकता से रंजित कर कल्पना की सहायता से फिर से जीवित करते हैं, तो एक दंतकथा बन जाती है. दंतकथा गप्प भी है, और देखने की दृष्टि हो, तो एक दाहक अनुभव भी. दाहक अनुभव ही रचनात्मक साहित्य बन पाता है, इसमें कोई शक़ नहीं है.’’

‘घासीराम कोतवाल’ की लोकप्रियता के नाते ही हिन्दुस्तान की तक़रीबन सभी ज़बानों में इसका अनुवाद किया गया और हर जगह इसे कामयाबी मिली. हिन्दुस्तानी रंगमंच के इतिहास में यह ऐसा नाटक है, जिसके सबसे ज्यादा प्रदर्शन हुए हैं. छह हज़ार से ज्यादा बार इस नाटक का मंचन हुआ है. आज भी यह नाटक देश के अलग-अलग हिस्सों में खेला जा रहा है. इसके अलावा साल 1972 में लिखे गए नाटक ‘सखाराम बाइंडर’ ने भी नाट्य जगत में नए आयाम स्थापित किए. अपने धृष्ट औऱ साहसिक कथानक की वजह से सेंसर बोर्ड ने इस नाटक पर पाबंदी लगा दी थी. मामला अदालत में गया, जहां से जीत मिलने के बाद ही इस नाटक के मंचन शुरू हो सके. नाटक का नाम भले ही ‘सखाराम बाइंडर’ हो मगर इसकी केन्द्रीय पात्र स्त्री है. औरत की ज़िंदगी और उसके संघर्षों को तेंदुलकर ने ‘सखाराम बाइंडर’ के धूर्त किरदार के मार्फत रचा है. पितृसत्ता के ख़िलाफ स्त्री-मुक्ति की कामना नाटक की मुख्य विषय-वस्तु है. घर की चहारदीवारी में क़ैद स्त्री के शोषण के निरूपण को, वह भी इतने यथार्थ रूप में, बहुत सराहना भी मिली. इसी तरह ‘जाति ही पूछो साधु की’ हिन्दुस्तानी समाज में फैले जातीय विद्वेष और इससे पनपी हिंसा को उभारता है.

विजय तेंदुलकर ने अपनी अस्सी साल की ज़िंदगी में जमकर लिखा. उन्होंने सत्ताईस नाटक, पच्चीस एकांकी और सोलह बाल नाटक लिखे. उन्होंने कहानियों और उपन्यासों में भी हाथ आजमाया. लेखन के अलावा तेंदुलकर ने अनुवाद का महत्वपूर्ण काम भी किया. मोहन राकेश के नाटक ‘आधे-अधूरे’ और गिरीश कर्नाड के मशहूर नाटक ‘तुगलक’ के मराठी में अनुवाद के साथ ही, उन्होंने कई किताबों का हिन्दी से मराठी में और मराठी से हिन्दी में अनुवाद किया. समानांतर सिनेमा से भी उनका जुड़ाव बना रहा. निर्देशक श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी की चर्चित फ़िल्मों मसलन ‘मंथन’, ‘अर्द्धसत्य’, ‘आक्रोश’ और ‘निशांत’ की पटकथायें लिखीं. श्याम बेनेगल की फ़िल्म ‘मंथन’ की पटकथा के लिए साल 1977 में उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. उनके टेलीविज़न धारावाहिक ‘स्वयंसिद्धा’ ने दूरदर्शन पर खूब लोकप्रियता बटोरी.

आधुनिक मराठी थियेटर के अगुआ विजय तेंदुलकर को उनकी उपलब्धियां के लिए कई पुरस्कार-सम्मानों से नवाजा गया. मराठी और हिन्दी में उनके लेखन के लिए ‘संगीत नाटक अकादमी अवार्ड’, साल 1974-75 में ‘जवाहरलाल नेहरु फैलोशिप’, ‘सरस्वती सम्मान’, ‘कालिदास सम्मान’ के अलावा साल 1980 और 1999 में फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड से भी सम्मानित किया गया. भारत सरकार ने उन्हें साल 1984 में ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया. भारतीय रंगमंच में अहम् भूमिका निबाहने वाला यह क़िरदार 19 मई, 2008 को मंच से अचानक नेपथ्य में चला गया. ज़िंदगी के कटु यथार्थ को अनूठे अंदाज में पेश करने वाले अपने नाटकों के लिए विजय तेंदुलकर हमेशा याद किए जाएंगे.

आवरण| एनएसडी का न्योता.


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