नामवर सिंह | हिन्दी की दुनिया के सबसे बड़े स्टेट्समैन

  • 12:43 pm
  • 28 July 2020

नामवर सिंह सरीखी शख़्सियत के बारे में सोचने या कहने की ज़रूरत पड़े तो जो बात सबसे पहले ज़ेहन में आएगी, वह यही कि सचमुच बहुत नामवर थे. उनके काम और काम के महत्व को समझने वाले जानते हैं कि अपनी प्रतिबद्धता, अध्ययनशीलता और मेधा के बूते ही हिन्दी साहित्य की दुनिया में उन्हें वह मुक़ाम हासिल हुआ, जो उनके नाम का पर्याय साबित हुआ. साहित्य, संस्कृति या समाज – कोई विषय हो, वे धारा प्रवाह बोलते और सुनने वाले मंत्रबिद्ध-से सुनते जाते.

ज़िंदगी भर नामवर सिंह के विचारों से असहमत और उनकी आलोचना करने वाले भी उनकी मेधा का लोहा मानते हैं. आलोचना, आरोप और विरोध की यों उन्होंने कभी परवाह नहीं की. श्रीनारायण पाण्डेय को लिखी चिट्ठी में नामवर सिंह ने लिखते हैं, ‘‘आरोप लगानों वालों को अपना काम करने दें, क्योंकि जिनके पास करने को कुछ नहीं होता, वही दूसरों पर आरोप करता है. अपनी ओर से आप अधिक से अधिक वही कर सकते हैं कि आरोपों को ओढ़ें नहीं. आरोप ओढ़ने की चीज़ नहीं, बिछाने की चीज़ है – वह चादर नहीं, दरी है. ठाठ से उस पर बैठिए और अचल रहिए.’’

तक़रीबन छह दशक तक हिन्दी साहित्य में आलोचना के पर्याय रहे. डॉ. रामविलास शर्मा के बाद हिन्दी में प्रगतिशील आलोचना के वह आधार स्तंभ थे. आलोचना की विधा को साधने के उद्यम में देश-विदेश का जितना साहित्य उन्होंने पढ़ा. उसमें मार्क्सवादी आलोचना ने बहुत प्रभावित किया. एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था,‘‘यदि हिन्दी में रामचंद शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा की आलोचना मेरे लिए एक परम्परा की अहमियत रखती है, तो दूसरी परम्परा पश्चिम की, लगभग एक सदी में विकसित होने वाली मार्क्सवादी आलोचना है, जो मेरा अमूल्य रिक्थ है. इसमें मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन के अलावा सबसे उल्लेखनीय नाम ग्राम्शी, लूकाच, वाल्टर बेंजामिन के हैं.’’

हिन्दी साहित्य में मार्क्सवादी आलोचना को स्थापित करने का श्रेय अगर किसी अकेले को जाता है, तो वे नामवर सिंह हैं. ‘वसुधा’ पत्रिका के नामवर सिंह पर केन्द्रित अंक में कथाकार भीष्म साहनी ने नामवर सिंह की अहमियत बयान करते हुए अपने एक लेख ‘दुश्मन के बिना’ में लिखा था,‘‘मार्क्सवाद कोई रामनामी दुपट्टा नहीं है, जिसे ओढ़ लिया, या ऐसे कोई सूत्र नहीं हैं जिन्हें कंठस्थ कर लिया तो मार्क्सवादी आलोचक बन गए. मार्क्सवाद एक दृष्टि है, जिसका प्रयास जीवन के यथार्थ को एकांगिता में न देखकर समग्रता में, व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने का है, जो व्यक्तिनिष्ठ न होकर वस्तुनिष्ठ होती है. इस मार्ग पर बहुत लोग नहीं चले हैं, और जो चले हैं उनका रास्ता भी हमेशा आसान नहीं रहा. इस रास्ते पर चलते हुए, तथाकथित विसंगतियों और भटकावों का महत्व नहीं है. महत्व उस सतत प्रयास का है जो पूर्वाग्रहों और संस्कारों से मुक्त, साहित्य में लक्षित होने वाले अपने काल के यथार्थ को समझने और परखने में लगा है. और अकेले ही सही, नामवर जी इस रास्ते पर ख़ूब चले हैं और चलते जा रहे हैं.’’ (वसुधा-54, अप्रैल-जून 2002)

नामवर सिंह ने तमाम नए प्रतिमान स्थापित किए. ‘नई कहानी’ आंदोलन को आगे बढ़ाने का भी उन्हें ही श्रेय जाता है. ‘हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योगदान’, ‘कविता के नए प्रतिमान’, ‘छायावाद’, ‘दूसरी परंपरा की खोज’, ‘इतिहास और आलोचना’, ‘कहानी : नई कहानी’, ‘वाद-विवाद-संवाद’, ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृतियां’, ‘बकलम खुद’, ‘प्रेमचंद और भारतीय समाज’ आदि उनकी प्रमुख कृतियां हैं. ‘कहानी : नई कहानी’ किताब में जहां नामवर सिंह ने नई कहानी से संबंधित सैद्धांतिक सवालों की पड़ताल की है, तो ‘कविता के नए प्रतिमान’ किताब में वह नई कविता के काव्य सिद्धांतों का व्यापक विश्लेषण करते हैं. कहा जा सकता है कि हिन्दी साहित्य में एक नई आधार भूमि तैयार करने में उनका बड़ा योगदान है.
नामवर सिंह की शुरूआती किताबें आवेग में लिखी गई हैं. बक़ौल नामवर,‘‘छायावाद पुस्तक मैंने कुल दस दिन में लिखी. ‘कविता के नए प्रतिमान’ इक्कीस दिन में लिखी गई किताब है. ‘दूसरी परम्परा की खोज’ दस दिन में लिखी हुई किताब है.’’ इस बात से सहज ही अंदाज़ लगाया जा सकता है कि लिखने का उनमें किस तरह का जबर्दस्त माद्दा था. अध्यापन और प्रगतिशील लेखक संघ की सांगठनिक ज़िम्मेदारियों और दीगर साहित्यिक, सांस्कृतिक मसरूफ़ियतों के चलते वह ज्यादा नहीं लिख सके.

अपनी ज़िंन्दगी के आख़िरी दो-तीन दशकों में हालांकि नामवर सिंह ने कुछ नया नहीं लिखा था, लेकिन देश के अलग-अलग हिस्सों में वे जहां जाते और वक्तव्य देते थे, वे वक्तव्य भी लिपिबद्ध होते रहे. पिछले कुछ सालों में उनकी जो नई किताबें आईं, वे इन्हीं वक्तव्यों का संकलन है. कहा जा सकता है कि देश की वाचिक परम्परा को भी आगे बढ़ाने में उनका अहम् योगदान है. एक बार उन्होंने खुद तस्दीक की कि व्याख्यान के सिलसिले में इस पूरे महादेश को वह तीन बार नाप चुके हैं. नामवर सिंह का मन भाषण में ज्यादा रमता था. वाचिक परम्परा की अहमियत बतलाते हुए एक जगह उन्होंने कहा है, “जिस समाज में साक्षरता पचास फीसदी से कम हो, वहां वाचिक परम्परा के द्वारा ही महत्वपूर्ण काम किया जा सकता है. मेरी आलोचना को, मेरे बोले हुए को, मौखिक आलोचना को आप लोक साहित्य मान लीजिए.”

नामवर सिंह धर्म निरपेक्षता के घनघोर हामी रहे. कई मर्तबा हिन्दी में साम्प्रदायिकता विरोधी साहित्यिक मोर्चे की अगुआई की. हिन्दी के विद्वान तो वह थे ही, उर्दू, अंग्रेजी और संस्कृत पर भी उनका अधिकार था. किसी व्याख्यान से पहले वह ख़ूब तैयारी करते, छोटे-छोटे नोट्स भी बनाते और जब मंच पर व्याख्यान देने के लिए खड़े होते, तो समां-सा बंध जाता.
लेखन और अध्यापन के साथ ही उन्होंने ‘जनयुग’ और ‘आलोचना’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन भी किया. 1959 में उन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर चंदौली से लोकसभा चुनाव लड़ा. लंबे समय तक प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष रहे. नामवर सिंह के समकालीनों ने उनकी प्रतिभा को बराबर सम्मान दिया. नागार्जुन ने उन्हें चलता-फिरता विद्यापीठ बतलाया था, तो विश्वनाथ त्रिपाठी उन्हें अज्ञेय के बाद हिन्दी का सबसे बड़ा ‘स्टेट्समैन’ मानते. एक नामवर और अनेक विश्लेषण. हर एक के अलग नामवर! आख़िरी दम तक वह साहित्य साधना में जुटे रहे. उनकी इस दीर्घ साधना के लिए उन्हें कई पुरस्कार और सम्मान मिले, जिसमें ‘कविता के नए प्रतिमान’ किताब के लिए ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ भी शामिल है. हिन्दी साहित्य में शायद अकेले ऐसे साहित्यकार हुए, 2001 में जिनके हयात रहते सरकारी तौर पर दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, भोपाल, लखनऊ, बनारस समेत देश भर में पंद्रह जगहों पर ‘नामवर निमित्त’ का आयोजन हुआ.

जन्म | 28 जुलाई, 1926 | चंदौली के जीयनपुर गांव में. अवसान | 19 फरवरी 2019 | नई दिल्ली.


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