नौशाद | जिनके संगीत में मिट्टी की गंध और ज़िंदगी की शक्ल थी

  • 5:47 pm
  • 5 May 2020

नौशाद, हिन्दी सिनेमा के ऐसे जगमगाते सितारे हैं, जो अपने संगीत से आज भी दिलों को मुनव्वर करते हैं. अपने नाम के ही मुताबिक नौशाद का संगीत सुनकर, उनके चाहने वालों को एक अजीब सी ख़ुशी, मसर्रत मिलती है. दिल झूम उठता है. हिन्दी सिनेमा की शुरूआत हुए एक सदी से बीत गई, लेकिन कोई दूसरा नौशाद नहीं आया. फ़िल्मी दुनिया में उनकी कामयाबी की कहानी मुख़्तसर नहीं, बल्कि इसके पीछे एक लंबा संघर्ष और संगीत के लिए हद दर्जे की दीवानगी थी.

लखनऊ में जन्मे नौशाद अली को शुरू से ही संगीत से लगाव था. यों वह साइलेंट फ़िल्मों का दौर था, लेकिन अलग-अलग सिचुएशन पर पर्दे के क़रीब बैठे साजिंदे और गवैये गाते-बजाते भी रहते थे. उन दिनों अमीनाबाद में एक रॉयल टॉकीज हुआ करता था, नौशाद जब इस इलाके से गुज़रते, तो गीत-संगीत की गिरफ़्त में आ जाते. वहीं खड़े-खड़े वह संगीत सुना करते. फिर रोज़ का सिलसिला हो गया.

संगीत सुनते हुए अब उन्हें साज़ बजाने की चाहत जागी. मगर साज़, तो उनके पास था नहीं. संगीत के जानिब उनकी ये चाहत, उन्हें बाजों की एक दुकान तक ले गई. और वहां उन्होंने नौकरी कर ली. ख़ाली वक्त में वे चोरी-छिपे हारमोनियम पर सुर साधने की कोशिश करते. एक दिन उनकी यह ‘चोरी’ पकड़ी गई. संगीत के प्रति नौशाद का जुनून देखकर, दुकान के मालिक गुरबत अली ने न सिर्फ उन्हें वह हारमोनियम तोहफे में दे दिया, बल्कि गज्नफर हुसैन उर्फ लड्डन साहब से भी मिलवाया. लड्डन साहब वही थे, जो रॉयल टॉकीज़ में ऑर्केस्टा बजाते थे. लड्डन साहब ने उन्हें अपना शागिर्द बना लिया. इसके अलावा उस्ताद बब्बन और यूसुफ अली खान ने भी उन्हें मौसीक़ी का ककहरा सिखाया.

ऑर्केस्टा में संगीत सीखने-बजाने के बाद, नौशाद ने नाटकों में संगीत देना शुरू कर दिया. हीरोज़ एसोसिएशन के अलावा पारसी रंगमंच के आला ड्रामा निगार आगा हश्र काश्मीरी के कुछ नाटकों में भी उन्होंने संगीत दिया. नाटक कंपनियों और स्टेज प्रोग्रामों में हिस्सेदारी की वजह से वे देर से अपने घर लौट पाते.

नौशाद के वालिद वाहिद अली, जो कचहरी में मोहर्रिर थे, गाने-बजाने के सख़्त ख़िलाफ थे. लिहाज़ा बाप-बेटे के बीच तनाव बढ़ता गया और एक रोज़ उनके अब्बा ने उन्हें यह कहकर घर से निकाल दिया कि ‘‘घर चुनो या संगीत?’’ अठारह साल के नौजवान नौशाद ने संगीत में अपनी बेहतरी देखी और घर को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया. लखनऊ से वे सीधे बंबई पहुंचे. कुछ अरसे के संघर्ष के बाद उन्हें फ़िल्म ‘समंदर’ में काम मिला. इस फ़िल्म के संगीतकार मुश्ताक हुसैन ने उनसे अपने ऑर्केस्टा में पियानो बजवाया.

संगीत का गहरा इल्म और कई तरह के वाद्य कामयाबी से बजाने के अपने हुनर से वे जल्द ही संगीतकार के असिस्टेंट के ओहदे तक पहुंच गए. ‘निराला हिंदुस्तान’ और ‘पति-पत्नी’ फ़िल्मों में नौशाद ने संगीतकार मुश्ताक हुसैन, ‘सुनहरी मकड़ी’ में उस्ताद झंडे खां, ‘मेरी आंखें’ में खेमचंद प्रकाश और ‘मिर्ज़ा साहेबान’ में डी. एन. मधोक के साथ असिस्टेंट के तौर पर काम किया. उनकी मेहनत रंग लाई और तीन साल के अंदर ही उन्हें फ़िल्म ‘कंचन’ में संगीतकार की हैसियत से काम मिल गया. यह बात अलग है कि साल 1940 में आई, ‘रंजीत मूवीटोन’ बैनर की इस फ़िल्म में उन्होंने सिर्फ़ एक गाना ही रिकॉर्ड कराया था.

साल 1940 में आई ‘प्रेम नगर’ वह फ़िल्म थी, जिसमें नौशाद ने सफलता का पहली बार स्वाद चखा. इस फ़िल्म के ज्यादातर गाने हिट हुए. ख़ास तौर पर फ़िल्म के हीरो रामानंद कथावाचक के द्वारा गाया गीत ‘फ़न के तार मिला जा, अपने हाथों को’. ‘प्रेम नगर’ की कामयाबी ने फ़िल्म इंडस्ट्री में नौशाद को स्थापित कर दिया. फिर आई फ़िल्म ‘स्टेशन मास्टर’, जो टिकट खिड़की पर बेहद कामयाब साबित हुई. नौशाद की यह पहली फ़िल्म थी, जिसने सिनेमाघरों में सिल्वर जुबली मनाई.

‘स्टेशन मास्टर’ की सफलता ने नौशाद के लिए बड़े बैनर की फ़िल्मों का रास्ता खोल दिया. ए. आर. कारदार ने, जिन्होंने नौशाद को यह कहकर कि ‘‘तुम अभी बच्चे हो, पहले तजुर्बा हासिल करो.’’ अपने स्टुडियो से बाहर निकाल दिया था, ख़ुद अपनी फ़िल्म ‘नई दुनिया’ के संगीत के लिए बुलाया. उम्मीद के मुताबिक फ़िल्म ‘नई दुनिया’ और उसका संगीत दोनों ही कामयाब रहे. इसके बाद नौशाद ने कारदार प्रोडक्शन की ज्यादातर फ़िल्मों ‘शारदा’, ‘दुलारी’, ‘नमस्ते’, ‘कानून’, ‘संजोग’, ‘जीवन’, ‘सन्यासी’, ‘नाटक’, ‘दर्द’, ‘शाहजहां’, ‘दिल्लगी’, ‘क़ीमत’, ‘दिल दिया दर्द लिया’, ‘दास्तान’, ‘जादू’ में संगीत दिया. उनके लाजवाब संगीत की वजह से ये फ़िल्में सुपरहिट रहीं.

इस दरमियान उनकी फ़िल्म ‘रतन’ (साल 1944, निर्देशक एम.सादिक), ‘मेला’ (साल 1949, निर्देशक एस.यू. सन्नी) और ‘बैजू बावरा’ (साल 1952, निर्देशक विजय भट्ट) आईं, जिनके गानों ने पूरे मुल्क में धूम मचा दी. यह तीनों ही फ़िल्में म्यूज़िकल हिट थीं. ‘रतन’ की कामयाबी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यह फ़िल्म सिर्फ पचहत्तर हज़ार रूपए में बनी थी. लेकिन इसके निर्माता जैमिनी दीवान को इस फ़िल्म के रिकॉर्डों की बिक्री से सिर्फ साल भर में साढ़े तीन लाख रूपए मिले. गाने भी एक से बढ़कर एक दिलफ़रेब ‘अंखियां मिला के जिया भरमा के’, ‘अंगड़ाई तेरी है बहाना’, ‘मिल के बिछड़ गईं अंखियां’, ‘परदेशी बालमा’. वहीं ‘बैजू बावरा’ के गीत आज भी जब बजते हैं, तो सुनने वालों पर नशा-सा तारी हो जाता है. ‘अकेली मत जइयो राधे’, ‘बचपन की मोहब्बत को दिल’, ‘ओ दुनिया के रखवाले’, ‘मोहे भूल गए सांवरिया’ आदि गानों की कम्पोज़िशन में नौशाद ने कमाल कर दिखाया है.

एक के बाद एक मिली इन कामयाबियों ने नौशाद को हिन्दी सिनेमा का सिरमौर बना दिया. एक दौर था, जब बड़े बैनर और बड़े निर्देशकों की फ़िल्में उन्हीं के पास थीं. महान निर्देशक महबूब की फ़िल्म ‘अनमोल घड़ी’, ‘अंदाज़’, ‘अनोखी अदा’, ‘आन’, ‘अमर’ एवं ‘मदर इंडिया’ और के. आसिफ की शाहकार फ़िल्म ‘मुगल-ए-आजम का संगीत नौशाद ने ही दिया था. इन फ़िल्मों की कामयाबी में उनके संगीत का बड़ा योगदान है. आज भी इन फ़िल्मों के गाने एक अलग ही जादू जगाते हैं.

‘उड़नखटोला’, ‘कोहिनूर’, ‘गंगा जमुना’, ‘मेरे महबूब’, ‘लीडर’, ‘राम और श्याम’, ‘आदमी’, ‘संघर्ष’ और ‘पाकीज़ा’ फ़िल्मों के गाने भी पूरे देश में मकबूल हुए. उनके गाने गली-गली में बजते थे. फ़िल्म ‘रतन’ (साल 1944) से लेकर ‘पाकीज़ा’ (साल 1971) तक यानी पूरे सत्ताइस साल नौशाद का हिन्दी सिनेमा में सिक्का चला. नौशाद ने टेली सीरियल ‘टीपू सुल्तान’ और ‘अकबर द ग्रेट’ में भी संगीत दिया. फिल्मों की तरह इन सीरियलों का भी संगीत हिट रहा. उन्हें कई सम्मानों और पुरस्कारों से नवाजा गया. फिल्मों में नौशाद के अनमोल, बेमिसाल योगदान के लिए उन्हें भारत सरकार ने ‘पद्मश्री’, ‘पद्मभूषण’ सम्मान और ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ से सम्मानित किया. इसके अलावा राज्य सरकारों ने भी उन्हें बेशुमार सम्मान और पुरस्कार दिए.

नौशाद ने अपने संगीत में न सिर्फ भारतीय वाद्य ढोलक, तबला, बांसुरी, शहनाई, जलतरंग, सितार का बख़ूबी इस्तेमाल किया, बल्कि पश्चिम के पियानो, एकार्डियन, गिटार, कोंगा और लोंगा आदि वाद्यों को भी उसी महारत से अपनाया. उनकी फ़िल्म ‘जादू’, ‘आन’ आदि में इन वाद्य यंत्रों का जादू महसूस किया जा सकता है. नौशाद पहले ऐसे भारतीय संगीतकार थे, जो अपनी फ़िल्म के बैकग्राउंड म्यूजिक के सिलसिले में विलायत गए. यह फ़िल्म थी – ‘आन’. इस फ़िल्म के संगीत की एक ख़ासियत यह थी कि उन्होंने सौ वाद्य यंत्रों के ऑर्केस्टा का इस्तेमाल किया था.

आज फ़िल्मों के म्यूज़िक और बैकग्राउंड म्यूज़िक में साउंड मिक्सिंग का चलन आम है. लेकिन एक ज़माना था, जब हिन्दी सिनेमा इस हुनर से वाकिफ़ नहीं था. वे नौशाद ही थे, जिन्होंने अपने संगीत में पहली बार साउंड मिक्सिंग का इस्तेमाल किया. नौशाद को लिखने का भी शौक था. उन्होंने कई फ़िल्मों की कहानियां लिखीं, लेकिन उनमें अपना नाम नहीं दिया. स्टोरी राइटर के तौर पर फ़िल्म में अज्म वाजिदपुरी का नाम जाता था. फ़िल्म ‘उड़नखटोला’, ‘मेला’, ‘बाबुल’, ‘पालकी’, ‘दीदार’, ‘शबाब’ और ‘तेरी पायल मेरे गीत’ की कहानी या कहानी आइडिया नौशाद का ही था.

नौशाद एक बेहतरीन शायर भी थे. ‘आठवां सुर’ नाम से उनका एक दीवान है, जिसमें उनकी ग़ज़लें और नज़्में हैं. नौशाद ने 1937 में लखनऊ को अलविदा कह दिया था, लेकिन यह शहर उनकी यादों में हमेशा ज़िंदा रहा. अपनी एक ग़ज़ल में वे लखनऊ को याद करते हुए कहते हैं, ‘‘वह गलियां वह मुहल्ले, सब बन गए कहानी/ मैं भी था लखनऊ का, यह बात है पुरानी/ इसमें वह दिल कहां है, वह जुस्तुजू कहां है/ कोई मुझे बता दे, वह लखनऊ कहां है.’’

नौशाद निहायत पारखी इंसान थे. होनहार लोगों को वे जल्द ही परख लेते थे. मोहम्मद रफ़ी, महेन्द्र कपूर, श्याम कुमार, सुरैया, उमा देवी ‘टुनटुन’ जैसे गायक-गायिकाओं का हिन्दी फ़िल्मों में आग़ाज़ कराने वाले नौशाद ही थे. फ़िल्म ‘पहले आप’ के एक गाने की सिर्फ एक लाइन गवा कर, उन्होंने फ़िल्मी दुनिया में मोहम्मद रफ़ी की इब्तिदा कराई थी. उसके बाद, तो रफ़ी ने उनके लिए अनेक नायाब गाने गाए. ‘ओ दुनिया के रखवाले सुन दर्द’, ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज’ सरीखे गानों में नौशाद और मोहम्मद रफ़ी की जुगलबंदी देखते ही बनती है.

नौशाद को इस बात का भी श्रेय है कि क्लासिकल म्यूज़िक के अजीम फ़नकार डी. वी. पलुस्कर और अमीर ख़ान ने उनके लिए ‘बैजू बावरा’ और बड़े गुलाम अली साहब ने ‘मुगल-ए-आजम’ में गाने गाए थे. वरना, ये लोग फ़िल्मों से हमेशा दूर ही रहे. शकील बदायूंनी, ख़ुमार बाराबंकवी और मजरूह सुल्तानपुरी जैसे बेहतरीन गीतकारों को भी पहली बार मौक़ा नौशाद ने ही दिया था. जिसमें शकील बदायूंनी के साथ उनकी जोड़ी खूब जमी. इन दोनों ने मिलकर कई सुपर हिट गाने दिए. नौशाद और शकील बदायूंनी की जोड़ी, किसी भी फ़िल्म की कामयाबी की जमानत होती थी.

शास्त्रीय संगीत पहली बार फ़िल्मों में आया, तो उसका भी श्रेय नौशाद को ही है. ख़ास तौर पर उन्हें ‘राग केदार’ बहुत पसंद था. उनकी ज्यादातर फिल्मों में एक गाना ‘राग केदार’ पर ज़रूर होता था. नौशाद ने अपने गीतों में लोक संगीत का काफी इस्तेमाल किया. ख़ासतौर से उत्तर भारत के लोक संगीत का. ख़ुद नौशाद कहते थे, ‘‘हमारे संगीत की अपनी परंपराएं हैं. ये परंपराएं सैकड़ों वर्षों की तपस्या, रियाज़ से बनी हैं. इसमें हमारी मिट्टी की सुगंध है, हमारी ज़िंदगी की शक्ल है.’’ फ़िल्म ‘गंगा-जमुना’ के सारे गीत भोजपुरी बोली में थे. शकील बदायूंनी के इन गीतों को नौशाद ने लोक धुनों में ढाला था.

सन् 2006 में आज ही के रोज़ नौशाद इस दुनिया-ए-फ़ानी से रुख़सत हुए. के.एल. सहगल की मौत पर उन्हें अपनी ख़िराजे अक़ीदत पेश करते हुए, नौशाद ने एक शे’र कहा था,‘‘संगीत के माहिर तो बहुत आए हैं, लेकिन दुनिया में कोई दूसरा सहगल नहीं आया.’’ उसमें सिर्फ़ नाम का रद्दोबदल करते हुए, क्या यह बात उन पर भी सटीक नहीं बैठती!


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