नेमि बाबू मानते थे कि आत्मसाक्षात्कार भारतीय रंगमंच की सबसे बड़ी चुनौती
नेमिचंद्र जैन हिन्दी साहित्य में अकेली ऐसी शख़्सियत हैं, जिन्होंने ज़िंदगी के मंच पर कवि, साहित्य और नाट्य आलोचक, अनुवादक, पत्रकार और संपादक जैसे मुख़्तलिफ़ किरदारों को एक साथ बख़ूबी निभाया. जिस भी विधा में उन्होंने काम किया, अपनी गहरी छाप छोड़ी. अपने दौर तथा अपने समकालीनों को प्रभावित किया.
‘तार सप्तक’ के इस प्रतिनिधि कवि ने कविता, उपन्यास, नाट्य समीक्षा में तो नए प्रतिमान स्थापित किए ही, भारतीय रंगमंच को एक नई दृष्टि देने वाली पत्रिका ‘नटरंग’ भी दी, जो पचास वर्षों से अनवरत निकल रही है. नेमि बाबू की ज़िंदगी में तमाम उतार-चढ़ाव आते रहे. एक दौर था, जब उनका बसेरा आगरा में था और आज़ादी की जिद्द-ओ-जहद अपने चरम सीमा पर थी. कम्युनिस्ट लीडर प्रकाशचंद गुहा और दीगर साथियों के संपर्क में आने के बाद युवा नेमिचंद्र जैन ने प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा के कार्यक्रमों में शरीक होना शुरू किया. मार्क्सवाद की ओर उनका झुकाव बढ़ता चला गया.
उस समय तक इप्टा ने पूरे उत्तर भारत में जन आंदोलन का रूप ले लिया था. नेमि बाबू की भागीदारी प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा दोनों में ही समान रूप से रहती थी. इप्टा के तो केन्द्रीय दल का हिस्सा थे. बंगाल में जब सदी का भयानक अकाल पड़ा, तो उन्होंने नाटकों के अनुवाद और उनके लिए गीत से लेकर सड़कों पर अकाल पीड़ितों के लिए चंदा तक इकट्ठा किया. आगरा इप्टा के ये बीज ही थे, जिन्होंने नेमिचंद्र जैन को आगे चलकर आधुनिक रंग समीक्षा का अगुवा बना दिया.
आगरा की राष्ट्रवादी सरगर्मियों से वह अंग्रेज़ी हुकूमत की निगाह में चढ़ गए. जासूस उनका पीछा करते रहते और गिरफ़्तारी की आशंका बनी रहती. लिहाजा आगरा छोड़कर वह ग्वालियर चले गए. ग्वालियर और उनका साथ मगर कुछ दिन का रहा. विद्रोही स्वभाव, बेचैनी और रोजी-रोटी की तलाश उन्हें शुजालपुर मंडी खींच लाई. शुजालपुर मंडी के शारदा शिक्षा सदन में वे पढ़ाने लगे. यहीं उनकी मुलाक़ात मुक्तिबोध और डॉ. विष्णुनारायण जोशी से हुई. जल्दी ही उनसे मैत्री हो गई. संस्कारों की भिन्नता के बावजूद मुक्तिबोध से उनकी मित्रता बड़ी आत्मीय थी. दोनों घंटों मार्क्सवाद पर बात करते. नेमि बाबू और मुक्तिबोध के बीच पत्र संवादों से पता चलता है कि गजानन माधव को ‘मुक्तिबोध’ बनाने वाले नेमिचंद्र जैन ही थे.
नेमि बाबू कुछ साल कलकत्ते में भी रहे. जहां उन्होंने वामपंथी साप्ताहिक ‘स्वाधीनता’ में काम किया. बीसवीं सदी के चालीस के दशक में नेमिचंद्र जैन की पहली कविता ‘विजयादशमी’ पत्रिका ‘लोकयुद्ध’ में छपी. भाषा शैली की नवीनता, शिल्प के क्षेत्र में नए प्रयोगों से साहित्य जगत में उनकी पहचान जल्दी ही बन गई. उस दौर के अधिकांश कवियों भारत भूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, रामविलास शर्मा, गिरिजा कुमार माथुर, मुक्तिबोध की तरह उनकी कविता में भी मार्क्सवाद का गहरा प्रभाव दिखलाई देता है. मसलन ‘‘पर मैं नहीं हूं नगण्य/ डाल दी है दरार मैंने इस पक्के भवन में/ यही अब फैलेगी लाएगी ध्वंस चरम.’’
जटिल मानवीय क्रियाशीलता की प्रकृति के कवि नेमिचंद्र जैन के 1973 में छपे काव्य संग्रह ‘एकांत’ का मूल्यांकन करते हुए शमशेर बहादुर सिंह ने कहा था,‘‘नेमिचंद्र जैन को मैं बड़ा संयत और सुथरा कवि मानता हूं. मात्र प्रभाव के लिए किसी उपकरण को लाने में वे प्रकृत्या बचते हैं. इसलिए मेरे मन में उनके लिए ख़ास सम्मान है.’’ 1943 में छपे ‘तार सप्तक’ को यूं तो अज्ञेय के नाम से जोड़ा जाता है, लेकिन यह बात बहुत कम लोगों को मालूम होगी कि ‘तार सप्तक’ के नामकरण से लेकर, इसमें शामिल होने वाले कवियों के नाम तक नेमिचंद्र जैन की योजना थी. ‘पहला सप्तक’ छपने के बाद कई और ‘सप्तक’ निकले. एक समय ऐसा भी आया कि अज्ञेय से वैचारिक मतभिन्नता की वजह से उन्होंने ख़ुद को तार सप्तक से अलग कर लिया.
उनकी ज़िंदगी का दूसरा अहम हिस्सा कवि से आलोचक, नाट्य आलोचक के रूप में उनका विकास है. आज़ादी मिलने के बाद संगीत अकादमी की नौकरी में आकर उनका ध्यान एक बार फिर नाटक की ओर गया. संगीत, नाटक से शुरूआती लगाव ने उन्हें पूरी तरह से नाटक का बना दिया. उस समय केवल अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं में ही रंग समीक्षाएं छपती थीं, नेमि बाबू ने उसे हिन्दी में भी संभव कर दिखाया. ‘कल्पना’, ‘धर्मयुग’, ‘दिनमान’ आदि उस दौर की चर्चित पत्रिकाओं में उन्होंने रंग समीक्षा के नियमित कॉलम लिखे. नाटक के बहुस्तरीय माध्यम के प्रति उनके विशिष्ट बोध और संवेदनशीलता ने आधुनिक रंग समीक्षा को नए आयाम दिए.
रंग समीक्षा के बारे में उनका कहना था कि ‘‘रंग समीक्षा को सार्थक और मूल्यपरक होना चाहिए.’’ वहीं वह मानते थे कि समीक्षा बेहद ज़रूरी है और इसके बिना रंगमंच का विकास नहीं हो सकता. आधुनिक रंगमंच को उनका एक और ख़ास योगदान नाटक और नाट्य समीक्षा को समर्पित पत्रिका ‘नटरंग’ का प्रकाशन था. 1965 में ‘नटरंग’ छपने से पहले हिन्दी में रंगमंच और नाटक से जुड़ी कुछ पत्रिकाएं ‘अभिनय’ एवं ‘नटराज’ ही निकलती थीं. अंग्रेज़ी में जरूर उस समय कई स्तरीय प्रकाशन थे, जन नाट्य संघ की ‘यूनिटी’, भारतीय नाट्य संघ की ‘नाट्य’ और इब्राहम अलकाजी का ‘थिएटर बुलेटिन’.
रंग कला के चिंतन-विवेचन की उनकी अद्भुत क्षमता, बौद्धिक संवेदनशीलता और कल्पनाशीलता ने जल्दी ही ‘नटरंग’ को रंगमंच की प्रमुख पत्रिका बना दिया, जो आज भी कमोबेश वही भूमिका बख़ूबी निभा रही है. अच्छे नाट्य लेखन को वह हमेशा रंगमंच का ज़रूरी हिस्सा समझते थे, जिसके बिना अच्छी प्रस्तुति नामुमकिन है. रंगमंच और नाटक के प्रति यह उनके सरोकार ही थे कि वे ‘नटरंग’ के हर अंक में वह एक नया नाटक छापते रहे.
नेमि बाबू ने रंगमंच से संबंधित कई किताबें लिखीं. ‘दृश्य-अदृश्य’, ‘तीसरा पाठ’, ‘रंगकर्म की भाषा’, ‘रंगदर्शन’, ‘भारतीय नाट्य परम्परा’, ‘इंडियन थिएटरः ट्रेडिशन, कन्ट्यूनिटी एंड चेंज’ जैसी उनकी किताबें रंगमंच से जुड़े हर विद्यार्थी, लेखक और आलोचक के लिए बहुत काम की हैं. ‘अधूरे साक्षात्कार’ और ‘जनांतिक’ में उन्होंने औपन्यासिक आलोचना को नए आयाम दिए हैं. ‘बदलते परिप्रेक्ष्य’, ‘रंग परम्परा’ और ‘मेरे साक्षात्कार’ उनकी अन्य महत्वपूर्ण किताबों में हैं.
इसके अलावा ‘मुक्तिबोध रचनावली’ और ‘मोहन राकेश के संपूर्ण नाटक’ जैसी किताबों का संपादन भी किया है. नाट्य विशेषज्ञ के तौर पर उन्होंने अमेरिका, इंग्लैंड, पूर्वी एवं पश्चिमी जर्मनी, फ्रांस, यूगोस्लाविया, चेकोस्लोवाकिया, पौलेंड की यात्राएं की. हिन्दी साहित्य, नाटक और रंगकर्म के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए उन्हें ‘पद्मश्री’ अलंकरण, संगीत नाटक अकादमी का राष्ट्रीय सम्मान और दिल्ली हिन्दी अकादमी का ‘शलाका सम्मान’ मिले.
नेमि बाबू ने रंगमंच को मनोरंजन से बढ़कर कलात्मक, उद्देश्यपरक विधा के रूप में प्रतिष्ठित किया. हिन्दुस्तानी रंगमंच की समस्याओं और उसके समाधान के बारे में उनक मत था, ‘‘सृजनात्मक विधा के रूप में भारतीय रंगमंच के सामने सबसे बड़ी चुनौती आत्मसाक्षात्कार की है.’’ आत्म साक्षात्कार की यह समस्या केवल भारतीय रंगमंच की ही नहीं, बल्कि आज साहित्य- कला से जुड़े हर क्षेत्र की है, और जिसके बिना विकास संभव नहीं.
आधुनिक रंगमंच को देश में समर्थ और सृजनशील अभिव्यक्ति माध्यम के रूप में स्वीकृति दिलाने के लिए वह हमेशा प्रयासरत रहे. कभी ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ में प्राध्यापक के तौर पर (1959-1976), तो कभी ‘जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय’ के कला अनुशीलन केन्द्र के प्रभारी (1976-1982) या संगीत नाटक अकादमी के सहायक सचिव और कार्यकारी सचिव का दायित्व निभाते हुए. ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ आज जिस रूप में है, उसे बनाने में नेमिचंद्र जैन का अहम् योगदान है.
सन् 2019 उनका जन्मशती वर्ष रहा. हिन्दी रंगमंच में नए रंग भरने वाले नेमिचंद्र जैन 24 मार्च 2005 को ज़िंदगी के रंगमंच पर एक लंबी भूमिका निभाकर हमेशा के लिए नेपथ्य में चले गए.
सम्बंधित
पुण्यतिथि | आधुनिक हिन्दुस्तानी थिएटर के प्रणेता आग़ा हश्र कश्मीरी
हबीब तनवीर | ठेठ हिन्दुस्तानी मुहावरा गढ़ने वाले नाटककार
अपनी राय हमें इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.
अपना मुल्क
-
हालात की कोख से जन्मी समझ से ही मज़बूत होगा अवामः कैफ़ी आज़मी
-
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता
-
सहारनपुर शराब कांडः कुछ गिनतियां, कुछ चेहरे
-
अलीगढ़ः जाने किसकी लगी नज़र
-
वास्तु जौनपुरी के बहाने शर्की इमारतों की याद
-
हुक़्क़ाः शाही ईजाद मगर मिज़ाज फ़क़ीराना
-
बारह बरस बाद बेगुनाह मगर जो खोया उसकी भरपाई कहां
-
जो ‘उठो लाल अब आंखें खोलो’... तक पढ़े हैं, जो क़यामत का भी संपूर्णता में स्वागत करते हैं