पुण्यतिथि | टैगोर की नसीहत ने पंजाबी को दिया नायाब नाटककार

  • 2:55 pm
  • 22 April 2020

पंजाबी में ऐसा कोई और गल्पकार नहीं हुआ, जिसने पंजाबी नाटकों की दुनिया में उन ऊंचाइयों को छुआ हो, जहां तक बलवंत गार्गी उसे ले गए. दुनिया भर घूम आने वाले वह बिरले भारतीय लेखक रहे, और उन्होंने सैलानी की तरह की घुमक्कड़ी नहीं की, बहैसियत नाटककार – पंजाबी थिएटर की अलख जगाते घूमे. दुनिया में वह पंजाब, पंजाबियत और पंजाबी नाटक के प्रतिनिधि थे. उनके बाद फिर ऐसी भूमिका किसी के हिस्से नहीं आई.

बलवंत गार्गी अविभाजित पंजाब के बठिंडा में शेहना गांव में पैदा हुए थे. वह इलाक़ा तब उत्तर भारत का रेगिस्तान कहा जाता था. गर्मियों के मौसम में रेत उड़ाती आंधियां इस क़दर तेज़ हुआ करती थीं कि पेड़ों की ही नहीं, कच्चे घरों की बुनियादें भी हिला देतीं. बचपन में ऐसा जीवन देखने-जीने वाले बलवंत गार्गी का अनूठा रचनात्मक सौंदर्यबोध यहीं से आकार लेना शुरू हुआ. उनका नाट्य-बोध भी एक तरह से ज़िंदगी और मिट्टी के गर्भ से जन्मा. उनकी कॉलेज तक की पढ़ाई बठिंडा में हुई. और जिस पंजाबी ज़बान ने आलमी मकबूलियत दिलाई, कॉलेज के दिनों तक उन्हें ढंग से आती भी नहीं थी. सो तकरीबन तीन सौ कविताएं अंग्रेज़ी और उर्दू में लिखीं. कविताओं का पुलिंदा लेकर मार्गदर्शन के लिए रविंद्रनाथ टैगोर के पास गए तो गुरुदेव ने उन्हें दो ख़ास नसीहतें दीं. कविता की बजाय गल्प लिखो और अपनी मां बोली में लिखो! टैगोर ने उनसे कहा था कि लेखक के भीतर की संजीदगी तभी चिरकाल तक ज़िंदा रहती और फलती – फूलती है जब वह अपने बचपन की बोली यानी मातृभाषा में लिखता – सोचता है.

गुरुदेव से इस मुलाक़ात के बाद बलवंत गार्गी के लेखन का नया सफ़र शुरू हुआ. बने-बनाए ढर्रों पर चल रहे पंजाबी थिएटर को एक जुनूनी शिल्पकार मिला. पंजाबी रंगमंच में अनिवार्य ‘प्रोफेशनलिज़्म’ का आगाज़ गार्गी की आमद से शुरू होता है. उनके नाटक विधागत कसौटी के लिहाज़ से कालजयी तथा बेमिसाल माने जाते हैं. गार्गी की रंगमंचीय कलात्मकता का प्रसार अन्य भारतीय भाषाओं में भी ख़ूब हुआ. नेमिचंद्र जैन, गिरीश कर्नाड, कृष्ण बलदेव वैद और धर्मवीर भारती से भी सराहना मिली. उनके नाटकों में इंसानी जज़्बात का रेशा-रेशा अद्भुत शिद्दत के साथ खुलता है और मंच पर ख़त्म होने के बाद भी नाटक भीतर जारी रहता है, मुद्दतों तक चलता रहता है. किसी भी रचनाकार का इससे बड़ा हासिल क्या होगा? काम, तृष्णा और नफ़रत के जज्बात से उपजे मानवीय संबंधों में तनाव उनकी कृतियों की ताक़त हैं. उनके आलोचक तक मानते हैं कि गार्गी के ज्यादातर नाटकों की ख़ूबियां उन्हें कालजयी बनाती हैं. पंजाबी नाटक की एक युगधारा और स्कूल बने बलवंत ने पंजाबी रंगमंच को विश्व रंगमंच के समकक्ष जगह दिलाई. विदेशों में जहां भी उनके नाटक मंचित हुए, खूब सराहे गए. वाशिंगटन यूनिवर्सिटी में पढ़ाने के साथ ही वह हार्वर्ड, येल, हवाई यूनिवर्सिटी, ट्रिनिटी कॉलेज में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर भी रहे.

बेशक मुफ़लिसी धूप-छांव की मानिंद रही मगर यारबाशी और मेहमाननवाज़ी के वह शहंशाह रहे. उनके घर पर अक्सर जुटने वाली महफ़िलों में देश-दुनिया की आला अदबी, सिनेमाई व सियासी शख़्सियतें शरीक़ होतीं. बहुत कम किसी के मेहमान होने वाले खुशवंत सिंह, चित्रकार सतीश गुजराल, गिरीश कर्नाड से लेकर परवीन बॉबी और लोक गायिका रेशमा तक.

दिल्ली के कर्जिन रोड (अब कस्तूरबा गांधी मार्ग) की एक गली में उन का छोटा-सा घर था. बेहद सुसज्जित. किसी ज़माने में यह घर एक नवाब की हवेली के पिछवाड़े वाले हिस्से में नौकरों की रिहाइशगाह हुआ करता था. बलवंत गार्गी ने इसे छोटे से बंगले में तब्दील कर दिया और इसमें सर्वेंट क्वार्टर भी बनवाया. दिल्ली बदली. कस्तूरबा गांधी मार्ग आलीशान इमारतों से घिर गया. आसपास के ढाबे बड़े रेस्टोरेंट-होटल बन गए, लेकिन गार्गी का यह जेबी साइज़ क़िला बाहरवीं सदी के स्पेनी किले की तरह तनकर खड़ा रहा. अब वहां न नेहरू-इंदिरा काल के सांस्कृतिक इतिहास का गवाह वह ‘फ़िल्म स्टूडियोनुमा’ घर है और न ही महान नाटककार बलवंत गार्गी की कोई निशानी. यही रहते हुए गार्गी को सन् 1962 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था और बाद में संगीत नाटक अकादमी का शिखर सम्मान भी.

आख़िरी दिनों में अलबत्ता वह मुंबई चले गए. उस चंडीगढ़ को उन्होंने नहीं चुना, जहां रहते हुए पंजाब विश्वविद्यालय में उन्होंने थिएटर विभाग की स्थापना की. उनकी कई चर्चित रचनाएं चंडीगढ़ प्रवास की देन हैं. आत्मकथानुमा कृति ‘नंगी धूप’ भी, जिसका आधार यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन में बिताए उनके दो बरसों के तर्जुबे थे. जिसे उन्होंने अंग्रेजी में लिखा था और ख़ुद ही उसका पंजाबी अनुवाद किया. पंजाब और पंजाबियत का शैदाई यह शख़्स आतंकवाद के काले दौर में बेहद विचलित रहता था. तब उन्होंने दूरदर्शन के लिए बहुचर्चित धारावाहिक ‘सांझा चूल्हा’ पंजाब समस्या को आधार बनाकर लिखा और निर्देशित भी किया. प्रसंगवश, बलवंत गार्गी ने उपन्यास, कहानियां, एकांकी और रेखाचित्र भी लिखे. पंजाबी साहित्य के गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी, नानक सिंह, करतार सिंह दुग्गल, प्रोफेसर मोहन सिंह के अतिरिक्त सआदत हसन मंटो, राजेंद्र सिंह बेदी और शिव कुमार बटालवी पर लिखे उनके रेखाचित्र बार-बार पढ़े जाते हैं.


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