चन्द्रमा का उजास देती रहेंगी चंद्रकांत देवताले की कविताएं

  • 5:11 pm
  • 14 August 2020

साठ के दशक में हिन्दी साहित्य में नई कविता आंदोलन प्रमुख कवियों में चंद्रकांत देवताले का भी शुमार था. वे मुक्तिबोध, नागार्जुन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल जैसे कवियों की परंपरा से आते थे. अपने अग्रज कवियों की तरह उनकी कविताओं में भी जनपक्षधरता और असमानता, अन्याय और शोषण के ख़िलाफ़ विद्रोह साफ़ दिखाई देता है. उनकी ज्यादातर कविताएं प्रतिरोध की कविताएं हैं. बचपन से ही उन्होंने अभाव और अन्याय देखा और भोगा था. सो उनकी कविताओं में निर्मम यथार्थ और व्यवस्था के प्रति गुस्सा दिखाई देता है.

पढ़ने-लिखने का शौक़ उन्हें बचपन से था. बड़े भाई के मित्र प्रहलाद पांडेय ‘शशि’, जो क्रांतिकारी कवि थे, की कविताओं का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा. ‘शशि’ के अलावा सियाराम शरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ और कथाकार प्रेमचंद और यशपाल की कहानियों ने उनके लड़कपन की रुचियों को आकार दिया. ख़ास तौर पर मुक्तिबोध की कविताओं ने उन्हें बेहद प्रभावित किया था. उनकी कविता ‘बुद्ध की वाणी’ को वह बार-बार पढ़ते. हिन्दी साहित्य में जब पीएचडी करने का मौक़ा आया, तो कवि के तौर पर उन्होंने मुक्तिबोध को ही चुना. मुक्तिबोध को जानना, उनके जीवन की बहुत बड़ी घटना थी.

अपने एक वक्तव्य में उन्होंने माना था, ‘‘जादू की छड़ी, सृजनात्मकता और एक बैचेनी देने वाला पत्थर, एक घाव, एक छाया, ये तमाम चीज़ें एक साथ मुक्तिबोध से मुझे प्राप्त हुईं.’’ मुक्तिबोध के अलावा महात्मा गांधी की किताब ‘हिंद स्वराज’ का भी उनके जीवन पर गहरा असर पड़ा. अपने लेख ‘किताबें और मैं’ में वह लिखते हैं, ‘‘साल 1955 में महाविद्यालयीन वाद-विवाद प्रतियोगिता में महात्मा गांधी का ‘हिंद स्वराज’ और विनोबा की ‘गीता प्रवचन’ किताब द्वितीय पुरस्कार में प्राप्त हुई. ‘हिंद स्वराज’ ने सोचने के लिए स्वतंत्रता, संप्रभुता, देशीयता और अपने समय, समाज, गांव, जीवन की धड़कन के वे संकेत दिए, जो आज के भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद की चपेट से हमें अब भी बचा सकते हैं.’’

चंद्रकांत देवताले ने 1952 में अपनी पहली कविता लिखी, जो 1954 में ‘नई दुनिया’ में प्रकाशित हुई. साल 1957 तक आते-आते उनकी कविताएं उस दौर की चर्चित पत्रिकाओं ‘धर्मयुग’ और ‘ज्ञानोदय’ में छपने लगीं. पढ़ाई पूरी होने के बाद रोजी की ज़रूरत पेश आई तो लिखने-पढ़ने का शौक काम आया. उन्होंने अख़बार में नौकरी कर ली. यह नौकरी उन्हें बहुत रास नहीं आई सो अख़बारों में कुछ समय तक ही काम कर सके. बाद में उन्होंने अध्यापन को चुना और मध्यप्रदेश के विभिन्न राजकीय कॉलेजों में पढ़ाया.

मालवा की मिट्टी से कई बड़े कवियों का नाता रहा है, जिसमें मुक्तिबोध, नेमिचंद्र जैन, प्रभाकर माचवे, प्रभागचंद्र शर्मा और माखनलाल चतुर्वेदी प्रमुख हैं. इन बड़े कवियों की बीच पहचान बनाना आसान नहीं था. चंद्रकांत देवताले ने इन बड़े कवियों के बीच न सिर्फ़ अपनी पहचान बनाई, बल्कि कविता का एक नया लहजा ईजाद किया, जो इन कवियों से उन्हें अलग करता है. उनकी संवेदनात्मक जड़ें गोंडवाना-महाकौशल और मालवा के उस अंचल में रहीं, जिसमें उन्होंने अपनी ज़िंदगी का ज्यादातर वक्त बिताया. इस अंचल के लोक जीवन को उन्होंने अपनी कविता का विषय बनाया. स्थानीय बोली और यहां की संस्कृति के दर्शन भी उनकी कविताओं में होते हैं. आदिवासियों, दलित जीवन और उनकी समस्याओं, संघर्षों पर देवताले ने ख़ूब लिखा. सरल शब्दों में लिखी उनकी कविताओं में गजब की संप्रेषणीयता है.

इक्यासी साल के जीवन में उनके कई कविता संग्रह संग्रह आए, जिनमें ‘हड्डियों में छिपा ज्वर’ (1973), ‘दीवारों पर खून से’ (1975), ‘लकड़बग्घा हँस रहा है’ (1980), ‘रोशनी के मैदान की तरफ’ (1982), ‘भूखंड तप रहा है’ (1982), ‘आग हर चीज में बताई गई थी’ (1987), ‘पत्थर की बैंच’ (1996), ‘इतनी पत्थर रोशनी’ (2002), ‘उसके सपने’ (1997), ‘बदला बेहद महँगा सौदा’ (1995), ‘उजाड़ में संग्रहालय’ (2003), ‘जहां थोड़ा सा सूर्योदय होगा’ (2008), ‘पत्थर फेंक रहा हूँ’ (2011) प्रमुख हैं.

‘मुक्तिबोध : कविता और जीवन विवेक’ उनकी आलोचनात्मक किताब है, जिसमें उन्होंने मुक्तिबोध की कविताओं की सामाजिक विवेचना की है. ‘दूसरे-दूसरे आकाश’, ‘डबरे पर सूरज का बिम्ब’ ऐसी दो किताबें हैं, जिनका उन्होंने सम्पादन किया. चंद्रकांत देवताले ने मध्यकाल के प्रमुख मराठी संत तुकाराम के अभंगों और आधुनिक काल के प्रमुख मराठी कवि दिलीप चित्रे की कविताओं का हिन्दी अनुवाद भी किया था. कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में देवताले की कविताओं का अनुवाद हुआ. उन्होंने बर्तोल्त ब्रेख़्त की कहानियों का नाट्य रूपांतरण भी किया, जो ‘सुकरात का घाव’ और ‘भूखण्ड तप रहा है’ के शीर्षक से छपा.

दीर्घ काव्य साधना के लिए ‘मुक्तिबोध फेलोशिप’, ‘माखनलाल चतुर्वेदी कविता पुरस्कार’, ‘शिखर सम्मान’, ‘सृजन भारती सम्मान’, ‘कविता समय पुरस्कार’, ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’, ‘पहल सम्मान’ मिले. कविता संग्रह ‘पत्थर फेंक रहा हूँ’ के लिए उन्हें 2012 का ‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार भी मिला.

स्त्रियों के प्रति उनके मन में बड़ा सम्मान था, जो उनकी कविताओं में भी झलकता है. स्त्री को वह पुरुष के मुक़ाबले ज्यादा मज़बूत मानते थे. उसे पुरुष के ऊपर रखते थे. अपनी एक कविता में स्त्री की जिजीविषा और उसका मानव जीवन में महत्व प्रतिपादित करते हुए लिखते हैं, ‘‘फिर भी/ सिर्फ़ एक औरत को समझने के लिए/ हज़ार साल की ज़िंदगी चाहिए मुझको/ क्योंकि औरत सिर्फ़ भाप या बसंत ही नहीं है/ एक सिम्फ़नी भी है समूचे ब्रह्मांड की/ जिसका दूध, दूब पर दौड़ते हुए बच्चे में/ खरगोश की तरह कुलांचे भरता है/ और एक कंदरा भी है किसी अज्ञात इलाके में/ जिसमें उसकी शोकमग्न परछाईं/ दर्पण पर छाई गर्द को रगड़ती रहती है.’’ हिन्दी साहित्य में माँ पर जो अच्छी और भावपूर्ण कविताएं लिखी गई हैं, उनमें चंद्रकांत देवताले की कविताएं भी शामिल हैं. कविता ‘माँ पर नहीं लिख सकता कविता’ में माँ की ममता के प्रति वे अपने उद्गार व्यक्त करते हुए लिखते हैं, ‘‘मैंने धरती पर कविता लिखी है/ चन्द्रमा को गिटार में बदला है/ समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया/ सूरज पर कभी भी कविता लिख दूँगा/ माँ पर नहीं लिख सकता कविता.’’

एक विचारसंपन्न कवि होने के नाते अपने समाज से उनका हमेशा जीवंत संपर्क रहा. राजनीतिक आंदोलनों और लेखक संगठनों से भी उनका गहरा नाता रहा. समाज के सूक्ष्म पर्यवेक्षण की उनमें बड़ी ख़ूबी थी. इंदौर में कम्युनिस्ट लीडर होमी दाजी के संपर्क में आकर, एक बार उन्होंने समाजवाद का जो ककहरा सीखा, फिर इस विचार से उनका नाता कभी नहीं छूटा. कर्मकांड, रूढ़िवाद, यथास्थितिवाद, सम्प्रदायवाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता और साम्राज्यवाद जैसी मानवता विरोधी प्रवृतियों का उन्होंने अपनी कविता में हमेशा विरोध किया. मानव जीवन की गरिमा के पक्ष में उनकी कविता हमेशा खड़ी रहीं. उनकी एक नहीं, कई ऐसी कविताएं मिल जाएंगी, जो आम जन को संघर्ष के लिए प्रेरित करती हैं. ‘‘मैं रास्ते भूलता हूँ/ और इसीलिए नए रास्ते मिलते हैं/ मैं अपनी नींद से निकल कर प्रवेश करता हूँ/ किसी और की नींद में/इस तरह पुनर्जन्म होता रहता है/ एक ज़िंन्दगी में एक ही बार पैदा होना/ और एक ही बार मरना/ जिन लोगों को शोभा नहीं देता.’’ (‘पुनर्जन्म’)

चंद्रकांत देवताले ने देश की ग़ुलामी, आज़ादी और बंटवारा देखा, तो आज़ादी के बाद इमरजेंसी, 1984 के सिख विरोधी दंगे और साल 2002 में गुजरात का नरसंहार भी देखा. देश में जब भी मानवविरोधी प्रवृतियां आकार लेतीं, उनका हृदय भावुक हो जाता. सच को सच कहने में उन्होंने कभी गुरेज नहीं किया. न किसी के डर से उनकी कविता की आग ठंडी हुई. बल्कि ऐसे वक्त में उनकी कविताएं और भी ज्यादा मुखर हो जातीं थीं. अपनी ऐसी ही एक कविता में वे कहते हैं,‘‘मेरी क़िस्मत में यही अच्छा रहा/ कि आग और गुस्से ने मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा/ और मैंने उन लोगों पर यकीन नहीं किया/ जो घृणित युद्ध में शामिल हैं/ और सुभाषितों से रौंद रहे हैं/ अजन्मी और नन्हीं खुशियों को.’’

उनकी एक और कविता ‘लकड़बग्घा हंस रहा है’ पढ़िये और महसूस कीजिए आज का समय…‘‘हत्यारे सिर्फ़ मुअत्तिल आज/ और घुस गए हैं न्याय की लंबी सुरंग में/ वे कभी भी निकल सकते हैं/ और किसी दूसरे मुकाम पर/ तैनात खुद मुख्त्यार/ कड़कड़ाते अस्पृश्य हड्डियों को/ हंस सकते हैं अपनी स्वर्णिम हंसी/ उनकी कल की हंसी के समर्थन में/ अभी लकड़बग्घा हंस रहा है.’’ इस कविता को लिखे हुए चार दशक होने को आए, लेकिन इसकी प्रासंगिकता बनी हुई है. मौजूदा दौर और माहौल पर आज भी उतनी ही सटीक है, यह कविता. अपने गठन और विचार के पैमाने पर यह कविता, मुक्तिबोध की कालजयी कविता ‘अंधेरे समय में’ के तेवर की बराबरी करती है.

साहित्य सृजन को उन्होंने अपना सौभाग्य नहीं माना. उनकी नज़र में साहित्य सृजन एक ‘सज़ा’ थी. सज़ा इस मायने में, ‘‘साहित्य में बहुत बेचैन ढंग से, तड़पते हुए अपनी बात की गवाही देना पड़ती है, अपने आपको खोदना पड़ता है और ये जो बेचैनी है, यह आदमी को चैन से जीने नहीं देती. कॉडवेल ने कहा था कि ‘‘बेचैन होकर ही कोई आर्टिस्ट हो सकता है.’’ मुक्तिबोध ने भी कहा था कि अपनी आत्मशांति को भंग किये बिना कोई कवि, कलाकार रचनाकार नहीं हो सकता.’’ ज़ाहिर है अंदर की ये बेचैनी ही थी, जिसने उन्हें कवि बनाया. शोषणमुक्त समाज और एक बेहतर समाज का सपना उन्हें सोने नहीं देता था. मानव जीवन और समाज की बेहतरी के लिए वे हमेशा बेचैन रहते थे. इस सृजनात्मक बेचैनी से ही उनका समग्र साहित्य उपजा था. चंद्रकांत देवताले आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी कविताएं हमें सदैव चन्द्रमा का उजास देती रहेंगी. ‘‘मैं आता रहूँगा उजली रातों में/ चन्द्रमा को गिटार सा बजाऊँगा/ तुम्हारे लिए/ और वसन्त के पूरे समय/ वसन्त को रूई की तरह धुनकता रहूँगा/ तुम्हारे लिए.’’ (कविता ‘मैं आता रहूँगा तुम्हारे लिए’)

जन्म | 7 नवंबर, 1936 को बैतूल के गांव जौलखेड़ा में. निधन | 14 अगस्त, 2017.


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.