प्रभाष जोशी | उनकी तरह ‘कागद कारे’ अब भला कौन करता है

  • 9:16 pm
  • 15 July 2020

प्रभाष जोशी का शुमार उन संपादकों में होता है, जिन्होंने हिन्दी की पत्रकारिता को नई दिशा, भाषा और तेवर दिया, विशिष्टता दिलाई. ‘जनसत्ता’ में उनके स्तम्भ ‘कागद कारे’ में समाजी, सियासी मुद्दों पर उनकी टिप्पणियों में निहित बेबाकी और निर्भीकता उनकी ख़ास पहचान बनी. वे जो कुछ सोचते, पहले उसे तर्क की कसौटी पर कसते, फिर उसे लिखते. उनके तरकश से निकला तीर हमेशा निशाने पर लगता. देश में महत्व के ऐसे कई काम हैं, जो उनकी लेखनी से मुमकिन हुए. 1972 में समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण के साथ चम्बल के डाकुओं के आत्मसमर्पण से लेकर सूचना के अधिकार और रोजगार गारंटी आंदोलनों में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई. प्रेस की स्वतंत्रता बरकरार रखने के हक़ में लगातार कोशिशें की.

आपातकाल का भयावह दौर रहा हो या भ्रष्टाचार, आतंकवाद या फिर साम्प्रदायिकता का मुद्दा – उनकी क़लम ऐसे हर मसले पर आमजन के पक्ष में खड़ी दिखती, जूझने की अलख जगाती. आठवें दशक में पंजाब से उठी आतंकवाद और नवें दशक से फैली साम्प्रदायिक लहर के ख़िलाफ़ तो उन्होंने बाक़ायदा मोर्चा खोलकर लड़ाई की. फ़िरकापरस्त ताक़तों से वह अपनी ज़िंदगी के आख़िरी वक़्त तक लोहा लेते रहे. अपने तीखे और तार्किक लेखन की वजह से प्रभाष जोशी हमेशा चरमपंथियों और कट्टरपंथियों के निशाने पर रहे. पर उन्होने सच का दामन नहीं छोड़ा. गांधीवादी और सर्वोदयी मूल्यों में उनका गहरा यक़ीन था. और ये जीवन मूल्य उनके व्यक्तित्व में भी साफ़ झलकते थे.

हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत उन्होंने 1960 में इंदौर के ‘नई दुनिया’ से की. वहां कुछ साल काम करने के बाद वह दिल्ली चले गए. कुछ समय तक भवानी प्रसाद मिश्र के संपादन में निकलने वाले ‘सर्वोदय जगत’ में काम किया. 1975 में वह ‘इंडियन एक्सप्रेस समूह’ से जुड़े और यहीं से उनकी एक अलग पहचान बनी. एक्सप्रेस से वह एक बार जुड़े, तो हमेशा के लिए वहीं के हो गए. 1975 में उन्होंने ‘एक्सप्रेस समूह’ के हिन्दी साप्ताहिक ‘प्रजानीति’ का संपादन किया. आपातकाल में साप्ताहिक के बंद होने के बाद इसी समूह की पत्रिका ‘आसपास’ उन्होंने निकाली. बाद में वह ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के अहमदाबाद, चंडीगढ़ और दिल्ली में स्थानीय संपादक रहे.

सन् 1983 में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने उन्हें अपने हिन्दी अख़बार ‘जनसत्ता’ की बागडोर सौंपी. 1983 के बाद का इतिहास ‘जनसत्ता’ और प्रभाष जोशी की कामयाबी का मिला-जुला इतिहास रहा. पूरे अख़बार पर उनकी छवि साफ़ नज़र आती थी. उन्होंने सम्पादकीय सहयोगियों को वह छूट दी, जो अब के मीडिया में तो दुर्लभ है. पत्रकारों को उनका एक ही निर्देश था – ‘‘जो भी लिखो सच लिखो.’’ नए पत्रकारों को समझाते हुए कहते, ‘‘जो लिखते हो, उससे प्रभावित होने की बजाय समाचारों में निष्पक्ष और तटस्थ बने रहो.’’ उनके दौर के ‘जनसत्ता’ ने लोकप्रियता का नया मानक तय किया. अख़बार ने अपने पाठकों से लिखकर आग्रह किया कि ‘‘पाठक अब इसे मिल-बांट कर पढ़ें, इससे ज्यादा प्रिंट ऑर्डर बढ़ाने की हमारी मशीनों की सामर्थ्य नहीं है.’’ 1995 तक वह ‘जनसत्ता’ के संपादक रहे और रिटायर होने के बाद संपादकीय सलाहकार.

साल 1992 में ‘जनसत्ता’ में शुरू हुए उनके स्तंभ ‘कागद कारे’ का लोग हफ़्ते भर बेसब्री से इंतज़ार करते थे. ‘कागद कारे’ की अहमियत समझने के लिए नामवर सिंह की इस टिप्पणी पर ग़ौर कर सकते हैं, ‘‘‘कागद कारे’, एक तरह से आज का महाभारत है और इसके लेखक प्रभाष जी आधुनिक व्यास. व्यास जी की तरह प्रभाष जी ने यह दावा तो नहीं किया कि ‘यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्’ अर्थात् जो कुछ यहां है, वह दूसरी जगह भी है, और जो यहां नहीं है, वह कहीं नहीं है. फिर भी समग्रता ‘कागद कारे’ में कथित युगांत का प्रतिबिंब पर्याप्त समावेशी है.’’

‘जनसत्ता’ के अलावा दीगर पत्र-पत्रिकाओं में भी उनका लेखन चलता रहता था. जिस मौजू पर लिखते, वह दस्तावेज़ हो जाता. मुहावरों, कहावतों और मालवी बोली से लबरेज़ उनकी भाषा चुटीलापन लिए होती थी. उनके पैने विचार और भाषा उनकी ताक़त थी. वह उन संपादकों में से एक थे, जिन्होंने संपादन के साथ-साथ हर विषय पर जमकर लिखा. पत्रकारिता के अलावा सामयिक प्रसंगों पर अख़बारों में समय-समय पर लिखे हुए उनके लेखों का संकलन करके कई किताबें छपीं – ‘मसि कागद’, ‘हिन्दू होने का धर्म’, ‘चंबल की बंदूकें’, ‘गांधी के चरणों में’ और ‘खेल सिर्फ़ खेल नहीं’. इनमें ‘हिन्दू होने का धर्म’ उनकी चर्चित किताब है, जिसमें उन्होंने अपने समय की साम्प्रदायिक राजनीति की जमकर बखिया उधेड़ी है. गांधी और उनके विचारों की हत्या करने वाली विचारधारा से उनकी लम्बी मुठभेड़ रही. 1993 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद अपने ऐसे ही एक लेख में उन्होंने लिखा था,‘‘किसी भाजपा नेता ने कहा कि यह साल छद्म धर्मनिरपेक्षता और असली पंथ निरपेक्षता के संघर्ष का साल होगा. लेकिन अगर आप छह दिसंबर के सारे अर्थ समझ लें, तो अगला साल ही नहीं आने वाले कई साल प्रतिक्रियावादी छद्म और संकीर्ण हिन्दुत्व और धर्म के संघर्ष के साल होंगे.’’ अपने डर और चिंताओं को सच होता देखने के लिए हालांकि वह रहे नहीं.

ज़िंदगी के आख़िरी वक़्त तक उन्होंने सक्रियता से काम किया. उम्र बढ़ने के साथ-साथ उनकी लेखकीय ऊर्जा भी बढ़ती गई. वह प्रभाष जोशी ही थे, जिन्होंने आम चुनाव के दौरान अख़बारों के चुनाव पैकेज के ख़िलाफ़ मुखर आवाज़ उठाई. उनके पचास साल लंबे पत्रकारिता के कॅरिअर पर कुछ दाग भी लगे. मसलन, राजस्थान में ‘रूप कंवर सती कांड’ पर ‘जनसत्ता’ में उनके स्टैंड को लेकर देश भर में उनकी तीखी आलोचना हुई. प्रगतिशील और जनवादी समाज ने इसके विरोध में अखबार का बहिष्कार तक किया.

संगीत और क्रिकेट से उन्हें जुनून की हद तक लगाव था. क्रिकेट और क्रिकेटरों पर उनका लेखन इतना विरल है कि हिन्दी पत्रकारिता में उसकी दूसरी मिसाल मुश्किल है. सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता को अर्थपूर्ण बनाने वाले प्रभाष जोशी संपादकों की बिरादरी में शीर्ष-पुरूषों की परम्परा की आख़िरी कड़ी बन गए. पत्रकारिता के मौजूदा माहौल में प्रभाष जोशी की याद बहुत लाज़मी है. कितने पत्रकार हैं, जो प्रभाष जोशी की तर्ज पर कर रहे हैं कागद कारे?


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