राजेन्द्र यादव | नये विमर्शों के पैरोकार
हिन्दी साहित्य अपने लेखन से इतर दीगर लेखन और विमर्शों की वजह से ज़माने भर में पहचाने गए साहित्यकारों में राजेन्द्र यादव का भी शुमार होता है. वह जब तक रहे हिन्दी साहित्य में उनकी पहचान, जीवंत और चर्चित साहित्यकार के तौर पर होती रही.
‘नई कहानी’ के प्रर्वतकों में से वह एक थे, जिन्होंने कमलेश्वर और मोहन राकेश के साथ मिलकर ‘नई कहानी’ आंदोलन को नया तेवर दिया. स्त्री, अल्पसंख्यक, आदिवासी और दलित विमर्श को साहित्य के केन्द्र में लाने में भी उनका बड़ा योगदान था. ‘हंस’ के जरिए उन्होंने लगातार भारतीय समाज और साहित्य में हस्तक्षेप करने का काम किया. 31 जुलाई 1986 से ‘हंस’ के पुनर्प्रकाशन की ज़िम्मेदारी उन्होंने ली तो आख़िरी दम तक पूरे 27 साल निभाई. ‘मेरी-तेरी उसकी बात‘के तहत ‘हंस’ में उनके सम्पादकीय का पाठक और लेखक दोनों ही इंतजार करते. इन सम्पादकीय से भी कई बार नए विमर्श पैदा हुए. वाद-विवाद और संवाद हुआ. और यही उनकी ख़ूबी थी.
राजेन्द्र यादव और विवादों का हमेशा चोली-दामन का साथ रहा. विवादों के बिना उनका तसव्वुर नहीं किया जा सकता था. चाहे अपनी पत्रिका में वह सम्पादकीय लिखें, या कहीं कोई व्याख्यान दें या फिर ‘हंस’ की सालाना गोष्ठी का मौक़ा हो, कोई न कोई विवाद उनके साथ जुड़ ही जाता. और यह सिलसिला ताउम्र चलता रहा. स्त्री और दलित विमर्श को लेकर तो वह हमेशा मुखर रहते थे. इसके बारे में अपनी सोच और मंशा एक इंटरव्यू में उन्होंने विस्तार से बताई थी. उनके बारे में कोई राय बनाने से पहले यह जानना ज़रूरी हो जाता है.
उन्हीं के अल्फ़ाज़ में, ‘‘साहित्य में इस तरह का विमर्श कोई नई बात नहीं है. यह बहुत दिनों से चला आ रहा है. साहित्य हमेशा उन्हीं पक्षों के बारे में बात करता है, जो दबे-कुचले शोषित हैं. साहित्य हमेशा उन्हीं लोगों की आवाज़ बनता है, जिनके पास आवाज़ नहीं. लिहाजा मैंने कोई नया काम नहीं किया. मैंने वही किया, जो मुझे करना चाहिए था. यह विमर्श बहुत दिनों से चला आ रहा है. हमारा मध्यकालीन साहित्य इसका प्रमाण है. हमारा जो दलित साहित्य है, वह हमेशा श्रम को प्रधानता देता है. ‘हंस’ के माध्यम से मैंने कोशिश यह की कि उन्हें एक प्लेटफ़ॉर्म दिया और उन्हें एक सैद्धांतिक आधार दिया. हमारा जो अभी तक का साहित्य था, उसमें बाहर के लोगों का कोई प्रवेश नहीं था. इसमें दलित और स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध था. साहित्य भी बड़े-बड़े केन्द्रों जैसे दिल्ली, बनारस, इलाहाबाद आदि बड़े शहरों तक ही सीमित था. विषय बहुत सीमित थे. हमने साहित्य का लोकतांत्रिकीकरण किया. हमने हिन्दी साहित्य के दरवाज़े सबके लिए खोले. फिर हमने केवल स्त्री या दलित विमर्श ही नहीं किया. हमने भाषा पर विमर्श किया, साम्प्रदायिकता पर विमर्श किया. साम्प्रदायिकता के जो सवाल हैं, हमने उन्हें प्रमुखता से उठाया. कई नए विमर्श किए. लेकिन यह कुछ समस्याएं थीं, जो विषय लोगों को बहसों में परेशान किए हुए थे. उनके दिमाग़ में जो चल रहा था, हमने उनको आवाज दी. हुआ यह कि हमें कुछ लोगों ने केवल दलित, स्त्री और अल्पसंख्यक विमर्शों के खाते में बांध दिया. साहित्य में एक वर्ग का आधिपत्य था. जब दूसरे वर्ग साहित्य में आए, तो उन्हें लगा कि अरे, यह तो हमारे क्षेत्र में हस्तक्षेप है. यह साहित्य में क्यों आ रहे हैं? ये तो घुसपैठिए हैं. अगर ये साहित्य में आ गए, तो हमारा क्या होगा? स्त्रियों और दलितों की जो समस्याएं हैं, ये दोनों लगभग एक जैसी समस्याएं हैं. ये दोनों नाभिनाल की तरह जुड़े हुए हैं. जिन पर हमने अभी तक ध्यान नहीं दिया था. हमने उन पर ध्यान दिया.’’
जब तक वह ‘हंस’ के सम्पादक रहे, उन्होंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की कि पत्रिका हिन्दी जगत में सिर्फ़ साहित्यिक पत्रिका के तौर पर नहीं पहचानी जाए, बल्कि यह गंभीर विमर्श की पत्रिका के तौर पर पढ़ी जाए. इससे नवोदित रचनाकार और पाठक दोनों कुछ न कुछ सीखें. सच बात तो यह है कि रचनात्मकता के साथ जुड़ी तमाम समस्याओं को, जो एक संवेदनशील लेखक-पाठक को प्रभावित करती हैं, उन्होंने दीगर सम्पादकों के बनिस्बत ज्यादा बेहतर तरीके से जाना-समझा और उन्हें अपनी पत्रिका में अहमियत के साथ जगह दी.
उनके इस काम की वजह से उन पर कई इल्जाम भी लगे. मसलन ‘‘स्त्री विमर्श के नाम पर वे अपनी पत्रिका में सिर्फ देह ही देह प्रस्तुत करते हैं!, या फिर दलित विमर्श के नाम पर गालियां दी जा रहीं हैं !’’ अपनी इन आलोचनाओं और छींटाकशी पर वह ज़रा भी विचलित नहीं होते थे. आलोचना का जवाब, वे इतनी तार्किकता से देते कि विरोधी भी उनका लोहा मान लेते. दलित विमर्श की आलोचना पर उनका जवाब होता था, ‘‘दलित जब अपनी बात रखेगा, तो वह अपनी तरह की बात होगी. दलितों के जो पक्षकार हैं, जब वह अपनी बात रखते हैं, तो उन्हें लगता है कि यह कैसी बात है? इस तरह का तो हमारे पास कोई एजेंडा ही नहीं था. ज़ाहिर है, दलित जब ख़ुद अपनी बात रखेगा, तो वह बात अलग तरह की होगी. उसके भटकाव, उसके रास्ते अलग होंगे. उसकी शैली, सब बातें अलग होंगी.’’ उनकी इस को समझने के लिए ज़रूरी होगा कि एक दलित साहित्यकार और एक ग़ैर-दलित साहित्यकार दोनों का साहित्य उठा लीजिए, फ़र्क दिखाई दे जाएगा. राजेन्द्र यादव, किसी विषय पर जो स्टैंड लेते, उस पर आख़िर तक बने भी रहते. किसी विचारधारा, दबाव या प्रलोभन में उन्होंने अपना स्टैंड बदला हो, ऐसी मिसाल बहुत कम मिलती है. उनका विपुल लेखन, इस बात की गवाही भी देता है.
स्त्री विमर्श पर उनका स्पष्ट मानना था, ‘‘स्त्री को हमने देह के अलावा कुछ नहीं समझा है. शुरू से लेकर आज तक. हमारे संस्कृत साहित्य को ही ले लें. ‘नायिका भेद’ हो या वात्सायान का ‘कामसूत्र’, उसमें नायिका के रंग-रूप का नख से लेकर शिख तक चित्रण मिलता है. हमने स्त्री को बता दिया है कि वह शरीर के अलावा कुछ नहीं. हमने हज़ारों साल पहले उसे जो संस्कार दिए, जब हम उसे तोड़ेंगे, तो पुरुषों को परेशानी होगी. आदमी अपनी बेड़ियां वहीं तोड़ता है, जहां उसे सबसे ज्यादा जकड़ा गया है. जो उसे सबसे ज्यादा पकड़े हुए हैं. स्त्री के लिए उसकी देह एक पिंजरा है. आज भी जो सौंदर्य प्रतियोगिताएं होती हैं, टीवी, फ़िल्में हर जगह सिर्फ़ देह ही देह है. वहां अपना निर्णय लेने वाली स्त्री नहीं दिखाई देती. पुरुष के ढंग से निर्णय करने वाली, तो हमें बहुत दिख जाएंगी. हम चाहते हैं कि परिवर्तन हो, चीज़ें बदलें. जब वे चीज़ें वैसे नहीं बदलतीं, जैसा कि हम चाहते हैं, तो परेशानी होती है. दरअसल, परिवार और समाज को उन्हीं स्त्रियों ने आगे चलाया है, जिन्होंने अपने निर्णय ख़ुद लिए और अपने हिसाब से लिए. मैंने कभी यह नहीं कहा कि देह ही अंत है. लेकिन देह पहली सीढ़ी है. इसे हमें जीतना होगा. तभी हम इससे आगे बढ़ेगें.’’
राजेन्द्र यादव ऐसे बेदार दानिश्वर थे, जो नए विमर्शों के पैरोकार थे. जिनकी नज़र में दीगर मसलों की भी उतनी ही अहमियत थी, जितनी अदब की. कोई संवेदनशील रचनाकार, जिनसे अछूता रह भी नहीं सकता. यही वजह है कि वक्त आने पर वह एक्टिविस्ट के रोल में आ जाते थे और उनके प्रशंसकों को यह भाता भी था.
कहानी, कविता, उपन्यास और आलोचना समेत साहित्य की तमाम विधाओं में उन्होंने लिखा और ख़ूब लिखा. ‘देवताओं की मूर्तियां’, ‘खेल खिलौने’, ‘जहां लक्ष्मी कैद है’, ‘छोटे छोटे ताजमहल’, ‘टूटना’ उनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं, ‘सारा आकाश’, ‘उखड़े हुए लोग’, ‘शह और मात’, ‘एक इंच मुस्कान’ (मन्नू भंडारी के साथ सह-लेखन), ‘अनदेखे अनजान पुल’ उनके उपन्यास हैं. ‘हंस’ में छपे उनके सम्पादकीय ‘कांटे की बात’ नाम से बारह खंडों में छपे हैं. ‘कहानी : स्वरूप और संवेदना’, ‘कहानी : अनुभव और अभिव्यक्ति’, ‘प्रेमचंद की विरासत’, ‘अठारह उपन्यास’, ‘औरों के बहाने’, ‘आदमी की निगाह में औरत’, ‘वे देवता नहीं हैं’, ‘मुड़-मुड़के देखता हूं’, ‘अब वे वहां नहीं रहते’, ‘काश, मैं राष्ट्रद्रोही होता’ उनकी आलोचना और निबंधों की किताबें हैं.
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