रज़िया सज्जाद | पहले ख़ुद जिया, फिर कहीं कहानियाँ
रज़िया सज्जाद ज़हीर उर्दू की उस शानदार प्रगतिशील विरासत की नुमाइंदगी करती थीं, जिसमें अदब ज़िंदगी के लिए और अदब इंसान के लिए था. तब इससे अलग इसमें सोचा ही नहीं जाता था.
‘‘चार सौ बरस पहले मेवाड़ में एक मीरा का जन्म हुआ था, जिसने समर्पण में कितना वक़ार, कितनी इज़्ज़त है…इसकी मिसाल कायम की थी. मेवाड़ से कोई सौ मील दूर, मीरा के चार सदी बाद, अजमेर में एक रज़िया हुई, जिसने मुस्तक़िल इंतज़ार को अपना अक़ीदा मान लिया, जिसने अपने वजूद को अपने साथी के रंग में ऐसे ढाल लिया था, जैसे गिरधर में मीरा समां गई थी, जिसका नाम शायद रज़िया इसलिए रखा गया था कि वह हर आने वाली मुश्किल को झेल लेने के लिए राज़ी रहेगी, जिसकी बड़ी-बड़ी हंसती हुई आंखों में एक बेहतर दुनिया को देखने का सपना इसलिए तैरता था कि उसके महबूब की आंखों ने वही एक ख़्वाब देखा और जाना था, जो बड़े-बड़े कारनामे करके संत नहीं बन सकती थी. क्योंकि उसकी प्रीत किसी देवता के साथ नहीं, एक इंसान, एक सिपाही के साथ थी.’’
अजमेर की रज़िया दिलशाद यानी कि रज़िया सज्जाद ज़हीर की शख़्सियत के बारे में नूर ज़हीर ने ‘मेरे हिस्से की रौशनाई’ में ऐसा लिखा है. माँ को उसकी औलाद से बेहतर भला कौन समझेगा! अपनी माँ के वक़ार, उनके संघर्षों और उनके मन को ख़ूब जानने वाली नूर ज़हीर ने बहुत मुख़्तसर कह के रज़िया सज्जाद ज़हीर की पूरी हस्ती का बयान कर दिया है.
बहुतेरे लोग रज़िया सज्जाद को सज्जाद ज़हीर की पत्नी के तौर पर ही जानते-पहचानते हैं. ज़ाहिर है कि ऐसे लोग अफ़सानानिगार और अनुवादक के नाते उनके कामों से नावाक़िफ़ हैं. उन्होंने कहानियाँ और उपन्यास तो लिखे ही, सफ़रनामे और रिपोर्ताज लिखे, रेडियों के लिए लिखा और बच्चों के लिए भी लिखती रहीं. कहानीकार के तौर पर वह अपने समकालीनों की तरह मकबूल भले नहीं हुईं, मगर उनकी कहानियों में सामाजिक चेतना और वर्ग चेतना के तत्व गहराई तक गुंथे हुए मिलते हैं.
ख़ुद जिया, फिर लिखी कहानियाँ
आलोचक डॉ. क़मर रईस उन को प्रेमचंद की परंपरा का कहानीकार मानते थे. ख़्वाजा अहमद अब्बास ने उनकी कहानियों पर टिप्पणी करते हुए कहा था, ‘‘वह ख़ुद तो औरत थीं, लेकिन उन्होंने मर्दाना समाज के चेहरे से नक़ाब उठाया और कई यादगार मर्द पात्र दिए.’’ सच भी है कि ‘अल्लाह दे बंदा ले’ का नायक ‘फखरु’ हो या फिर ‘सुतून’ कहानी का बूढ़ा नायक ‘अमीर खान’, अपनी बेमिसाल इंसानियत और बेदाग़ ईमानदारी की वजह से पढ़ने वालों के ज़ेहन में बस जाते हैं.
डॉ.शारिब रूदोलवी का मानना है कि ‘‘रज़िया सज्जाद ज़हीर, पहले अपनी कहानियों को ख़ुद जीतीं, तब काग़ज़ पर उतारती थीं.’’ बंटवारा और बंटवारे के बाद के हालात उन्होंने बहुत क़रीब से देखे और महसूस ही नहीं किए बल्कि इसका दंश भी भोगा. तो ऐसे अनुभव उनकी कहानियों में आने ही थे. पार्टी के काम से पंजाब गए सज्जाद ज़हीर बंटवारे के दिनों में बलूचिस्तान में थे, जहाँ पाकिस्तान सरकार के हुक्म पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया था. ‘इंतज़ार ख़त्म हुआ, इंतज़ार बाक़ी है’ उनकी ज़ाती ज़िंदगी से जुड़ा संस्मरण है, जिसमें वह अपने पति सज्जाद ज़हीर को बड़ी शिद्दत से याद करती हैं.
चेतना नहीं तो कहानी किसी काम की नहीं
सज्जाद ज़हीर की तरह ही रज़िया सज्जाद की भी प्रगतिशील विचारधारा में गहरी आस्था थी. अदब में कला से ज्यादा वे कथ्य पर ज़ोर देती थीं. उनका मानना था कि अगर किसी कहानी में समाजी, सियासी चेतना नहीं है, तो वह किसी काम की नहीं है. अपने एक लेख ‘कहानी और समकालीन चेतना’ में कहती हैं, ‘‘अगर चेतना में कोई तरक्कीपसंद नज़रिया या रवैया नहीं बनता, तो जो साहित्य लिखा जाएगा, उसमें माहौल के बिखराव और पेचीदगी का ऐसा असर पड़ेगा कि वह रचना भी बिखराव व पेचीदगी का शिकार हो जाएगी और दीवाने का ख़्वाब बन जाएगी.’’
आम आदमी हमेशा ही उनकी कहानियों के केन्द्र में रहा, उसके सुख-दुःख, उम्मीदें-नाउम्मीदें रहीं. ‘‘बेशक साहित्य में इंसान ही हीरो है, लेकिन जब चेतना की मज़बूत बुनियादों इंसान और प्रतीक को ज़रूरी मानते हुए तरक्कीपसंद नज़रिए के साथ रचना लिखी जाती है, तब ही बड़ी कहानियां वजूद में आती हैं, जैसे-‘पूस की रात’, ‘कफन’, ‘नया कानून’, ‘मुजैल’, ‘पेशावर एक्सप्रेस’, ‘कालू भंगी’, ‘ग्रहण’, ‘तीन पाथली चावल’, ‘आनंदी’, ‘गड़रिया’, ‘कारमन’ आदि.’’
उन्होंने अपनी जिंदगी के आख़िरी वक्त तक लिखा और बहुत ख़ूब लिखा. ज़िंदगी के संघर्ष उनके लेखन को रोक नहीं पाए. जब भी उन पर कोई मुसीबत आती, वे और भी ज्यादा मजबूत हो जातीं. शादी के बाद कुछ अरसे तक पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते उनके लेखन में ठहराव ज़रूर आया, लेकिन यह ज्यादा वक्त तक नहीं रहा. बच्चियों की परवरिश के दिनों में वह लखनऊ के करामत हुसैन गर्ल्स कॉलेज में पढा रही थीं. दिल्ली के दिनों में सोवियत सूचना विभाग में भी काम किया.
उनके घर में होने वाली प्रगतिशील लेखक संघ की बैठकों में वह बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती. अनुवाद जैसा श्रमसाध्य काम करतीं. साल 1952 तक आते-आते उनकी कहानियां रेडियो पर पढ़ी जाने लगीं और उनके लिखे ड्रामे खेले जाने लगे. रेडियो के लिए उन्होंने फ़ीचर और वार्ताएं भी लिखीं. ‘शमां’ और ‘बीसवीं सदी’ जैसी मशहूर पत्रिकाओं में उनकी कहानी और लेख छपते. ‘ज़र्द गुलाब’ और ‘अल्लाह दे, बंदा ले’ उनके प्रमुख कहानी संग्रह और ‘ये शरीफ लोग’, ‘अल्लाह मेघ दे’ ‘सुमन’, ‘सरेशाम’ और ‘कांटे’ उपन्यास हैं. बच्चों के लिए एक उपन्यास ‘नेहरू का भतीजा’ लिखा. नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए उन्होंने उर्दू कहानियों का एक संकलन संपादित किया. कुछ नाटकों के अनुवाद किए और नाटक लिखे भी.
चालीस किताबों का उर्दू में अनुवाद
1953 में उन्होंने और डॉ. रशीद जहां ने मिलकर प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ का नाट्य रूपान्तरण किया. अमृत लाल नागर ने इस नाटक का निर्देशन किया. उन्हें और नागर जी दोनों पर मुक़दमा हुआ हालांकि बाद में वे इस मुक़दमे से बाइज़्ज़त बरी हुए. रज़िया सज्जाद ने कई अहमतरीन किताबों का अंग्रेज़ी और हिंदी से उर्दू ज़बान में अनुवाद किया. इंसान के विकास पर रुसी भाषा की साइंस की एक किताब का ‘इंसान का उरुज़’ नाम से अनुवाद किया, दूसरी भाषाओं के तमाम बेहतरीन उपन्यास उनकी वजह से ही भारतीय पाठकों तक पहुंचे. मसलन मैक्सिम गोर्की के उपन्यास – ‘मां’, ‘माय चायल्डहुड’, ‘माय अप्रेंटिसशिप’, ‘माय यूनिवर्सिटीज़’, बर्तोल्त ब्रेख़्त का ‘लाइफ़ ऑफ़ गैलिलियो गैलिली’, रसूल गम्ज़ातोव का ‘माई दाग़िस्तान’, चंगेज़ ऐत्मतोव का ‘अमीला’ और ‘फ़ेयरवेल गुल्सरी’, ब्रूनो अपित्ज के ‘नेकेड अमंग वूल्वज़’ वग़ैरह-वग़ैरह.
अपने यहां के बड़े लेखकों की कई अच्छी किताबों के अनुवाद का ज़िम्मा उन्होंने ख़ुद उठाया. मसलन डॉ.मुल्कराज आनंद का ‘सेवन ईयर्स’, भगवती चरण वर्मा के ‘भूले बिसरे चित्र’ और अमृत लाल नागर के उपन्यास ‘बूंद और समुद्र’ का उर्दू में अनुवाद किया. सूजी थारू द्वारा संपादित ‘विमेन राइटिंग इन इंडिया: द ट्वेन्टिएथ सेंचुरी’ के दूसरे भाग में रशीद जहां की कहानी ‘वह’ और इस्मत चुगताई की ‘लिहाफ़’ के साथ रज़िया सज्जाद की कहानी ‘नीच’ भी शामिल है. ‘बीसवीं सदी में ख़्वातीन का उर्दू अदब’ नाम से छपी उर्दू की एक किताब में उनकी कहानी ‘ज़र्द गुलाब’ भी है. एनसीईआरटी की बारहवीं क्लास की हिंदी की किताब में उनकी चर्चित कहानी ‘नमक’ पढ़ाई जाती है.
तरक्कीपसंद साहित्यकार कभी नहीं मरता
आज़ादी के बाद एक दौर ऐसा भी आया जब मुल्क में साम्यवादी विचारधारा कमजोर हुई. कम्युनिस्ट पार्टी का बंटवारा हो गया. दीगर सियासी पार्टियों की तरह कम्युनिस्ट पार्टी में भी सियासत की कई बुराईयां, बदकारियां आ गईं. कई ज्वलंत मुद्दों पर पार्टी खामोश रही या उसने अपने विचारों से समझौता कर लिया. ऐसे मायूस माहौल में भी रज़िया सज्जाद ज़हीर की आस्था कमज़ोर नहीं हुई. उनका मानना था कि तरक्कीपसंद अदीब कभी अपने विचारों से समझौता नहीं करेगा.
उनकी मजबूत इच्छा-शक्ति और यह दृढ़ सोच उनके एक लेख के इस छोटे से अंश से जानी जा सकती है, ‘‘आज़ादी के बाद बदहाली बढ़ती जा रही है. पुराने मूल्य बिखर चुके हैं, यहां तक कि आज आर्थिक बदहाली ऊंचाई पर पहुंच गई है और सबसे ज्यादा परेशान करने वाला मुद्दा यह है कि तरक्कीपसंद सोच और सियासत भी बिखराव की शिकार है, लेकिन मुझे ये विश्वास है कि सियासी पार्टियों के कार्यकर्ता तो शायद इन हालात में मर सकते हैं, लेकिन इंसान दोस्त, तरक्कीपसंद साहित्यकार कभी नहीं मरता, क्योंकि उसका रिश्ता, उस मेहनतकश आदमी से बंधा है, जिसका शोषण करने के चक्कर में ही यह सारा बिखराव फैला हुआ है. तरक्कीपसंद साहित्यकार अपनी इकाई के द्वारा उस समूह का तर्जुमान है, जिसे कोई ताक़त ख़त्म नहीं कर सकती.’’
व्यक्तिवादी सोच के हमेशा ख़िलाफ़ रहीं
उनका मानना था कि साहित्य में व्यक्तिवादी सोच ने पूंजीवाद ने आगे बढ़ाया है. यह पूंजीवाद की साजिश है ताकि समाजवादी विचार समाज में न पनपे. पूंजीवादी और शोषणकारी व्यवस्था के ख़िलाफ लोग आवाज़ न उठाएं और अपने में ही उलझे रहें. इस तरह की प्रवृतियां अंततः साहित्य को कमजोर करती हैं. लिहाजा साहित्यकारों को इनसे दूर ही रहना चाहिए.
उर्दू कहानियों के एक विशिष्ट संचयन की भूमिका में साहित्यकारों को आगाह करते हुए वह लिखती हैं, ‘‘व्यक्तिगत और असफलताओं को प्रतिबिंबित करने वाले साहित्य की आयु बहुत थोड़ी है. इसलिए इसके भविष्य के संबंध में तो कुछ कहा नहीं जा सकता, लेकिन इतना अवश्य है कि यह प्रवृति एक स्थायी स्थिति बन सकती है, लोगों में निराशा तथा भाग्यवाद की भावना उत्पन्न कर सकती है तथा बाहरी तत्वों से अलग करके, आदमी को अपने आप में घुटे रहने और विष घोलते रहने पर तत्पर कर सकती है, अहसास के बाद अमल के तर्कसंगत रास्ते से हटाकर, उनके जीवन की शक्ति और हरकत की बरकत से अलग करके मृत्यु को प्रत्येक समस्या का समाधान बना कर प्रस्तुत कर सकती है. प्रत्येक सचेत व्यक्ति यह समझ सकता है कि ये प्रवृतियां कितनी अर्थहीन और साथ ही कितनी ख़तरनाक हैं. पराजय, घुटन, रोष, पलायन, अपने आप में ही उलझे रहना, किसी भी साहित्य को अधिक आगे नहीं ले जा सकता.’’
रज़िया सज्जाद की नज़र में लिखने वाले के लिए साहित्य स्वान्तः सुखाय नहीं होना चाहिए, बल्कि वह ऐसा साहित्य रचे, जो सबको सुख पहुंचाए. सबका कल्याण करे. साहित्यकार को अपने अतीत के उस गौरवशाली साहित्य का अनुकरण करना चाहिए, जिसमें मनुष्यता ही प्रमुख है. इसी सोच से वे वशीभूत होकर लिखती हैं, ‘‘हमारे युवक-युवतियां यदि अपने महान विरसे और जीवन के अत्यंत निकट अपने सनातन साहित्य की आत्मा को समझने और उससे कुछ सीखने का प्रयास करें, तो उन्हें मालूम होगा कि उनके अतीत का साहित्य सदा ‘साहित्य जीवन के लिए और साहित्य मनुष्य के लिए’ का समर्थक रहा है और कोई भी साहित्य अपने विरसे से बिलकुल अलग नहीं हो सकता.’’
कवर | रज़िया सज्जाद और सज्जाद ज़हीर
(नजमा ज़हीर बाक़र के सौजन्य से)
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