जब उग्र ने परसाई को गरियाया, और फिर लिख भेजा – शाबाश पट्ठे!

मैं सामान्यत: पिछले कई सालों में हर राजनैतिक पार्टी के शीर्षस्थ, मध्यम और छुटभइया नेताओं से कई बार मिला हूं. इनमें से कई के साथ कुछ मोर्चों पर काम भी किया है.

पर ज़बरदस्ती घुसने, अपना परिचय देने, दांत निपोरने व सम्बन्ध बनाने का स्वभाव मेरा नहीं है. फिर मुझमें विनोद-वृत्ति है और बनावट तथा अन्तर्विरोध को पकड़कर मुझे विरक्ति हो जाती है. इस प्रवृत्ति व स्वभाव के कारण मेरी बहुत रक्षा हुई. बहुत झंझटों से बचा. बहुत समय मेरा नष्ट होने से बचा. अनेक मेरे श्रद्धेय थे, परन्तु हास्यास्पद भी थे.

साहित्य में भी अखिल भारतीय कीर्ति वाले बड़ों से मैं अकारण मिलने की कोशिश नहीं करता था. उन दिनों साहित्य का तीर्थराज प्रयाग था. मैं वहां अक्सर जाता था. पर मेरी यह आदत नहीं है कि तीर्थ गए हैं तो हर मन्दिर और मढ़िया में जाकर नारियल फोड़ूं. सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ से आज तक मेरी दुआ-सलाम नहीं हुई. देखा कई बार है. इसका कारण मेरा अहंकार नहीं है. संकोच है. ‘अज्ञेय’ मुझे चित्र-से और सामने भी एक उदास दार्शनिक लगते हैं जिनके बन्द होंठ हैं. मैं उनसे मिलने जाता और वे बाईसवीं सदी के मनुष्य की चिन्ता में लीन हो जाते, तो मैं क्या बात करता. वैसे भी लेखकों से बात करना मेरे लिए कठिन है. वे कविता, कहानी की ही बात करते हैं या निन्दा. इस देश की हालत, दुनिया की हालत, देश-विदेश का घटना-चक्र, राजनीति, सामाजिक स्थिति आदि पर इनसे बात नहीं की जा सकती. ये विषय इनके दायरे के बाहर होते हैं.
मैथिलीशरण गुप्त से भी कभी नहीं मिला. उनके बारे में कहा जाता था कि जब कोई लेखक उनसे मिलने जाता था तो बाहर उनका कोई भाई या भतीजा मिलता था. वह लेखक से पूछता था – हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य कौन-सा है? यदि लेखक ‘कामायनी’ का नाम ले देता और ‘साकेत’ का नहीं, तो उससे वहां अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता था. सुमित्रानंदन पंत से एक बार मेरी बातचीत हुई – मुक्तिबोध जी के सम्बन्ध में प्रयाग में एक श्रद्धांजलि-सभा में. महादेवी जी से कई बार भेंट हुई. वे खुलकर बात करती हैं और खुली हंसी हंसती हैं. प्रयाग में ‘अश्क’ जी से मिलना एक विशिष्ट अनुभव है – अपने को कुछ नहीं बोलना पड़ता. वे ही बोलते हैं और अपने बारे में बोलते हैं. पूरी किताब सुना जाते हैं. उनके पास बैठने से सबसे बड़ी प्राप्ति यह होती है कि सारे लेखकों की बुराई मालूम हो जाती है, और उनकी नई से नई कलंक-कथा आप जान जाते हैं. ‘अश्क’ बड़े प्रेमी, मेहमाननवाज़ आदमी हैं, पर मेहमान पर एहसान का बोझ नहीं छोड़ते. मेहमान के जाने के बाद उसकी निन्दा व उपहास करके ‘पेमेंट’ वसूल कर लेते हैं. वैसे प्रयाग में मैं कमलेश्वर, मार्कंडेय, अमृतराय तथा अनेक दूसरे मित्रों से मिलता ही था.
जैनेंद्र जी से चार-पांच बार की मुलाक़ात है. उनसे मज़ेदार नोक-झोंक होती है. एक बार दिल्ली में अफ्रो-एशियाई शान्ति सम्मेलन में गया था. बाहर निकल रहा था कि जैनेंद्र जी चादर संभालते मिले. हम लोग बाहर आए. मैंने कहा – जैनेंद्र जी, आप यहां कैसे? उन्होंने जवाब दिया – अरे भई, सुना कि तुम लोग आए हो तो मैं भी आ गया. मैँने कहा – आपकी कार कहां है? वे बोले – मेरे पास कार कहां है? मैंने कहा – अज्ञेय के पास तो है. उन्होंने कहा – कहां अज्ञेय, कहां मैं. मैं तो ग़रीब आदमी हूं. उस समय जैनेंद्र ऋषि दुर्वासा की तरह लग रहे थे. सामने ‘अज्ञेय’ होते तो भस्म हो जाते. फिर जैनेंद्र सन्त की कुटिल मुद्रा से बोले – इस सम्मेलन में आने के लिए तुम्हें रूस से बहुत पैसा मिला होगा. मैँने कहा – जी हां, इस सम्मेलन को बिगाड़ने के लिए जितना पैसा सी.आई.ए. से आपको मिला है. जैनेंद्र हंसे. कहने लगे – तुम्हारी कटाक्ष की क्षमता अद्भुत है. तुमने ‘कल्पना’ में मुझ पर काफी कटाक्ष किए. कलकत्ता के सम्मेलन में भी तुमने मुझ पर ही प्रहार किए. पर मैं बुरा नहीं मानता, क्योंकि इसमें तुम्हारा कोई निहित स्वार्थ नहीं है. लेकिन तुम्हारे तीन-चार लुच्चे कहानीकार दोस्त हैं. ‘लुच्चे’ शब्द से जैनेंद्र ने किन लेखकों को विभूषित किया, ये वे लोग जान जाएंगे, सभी जान जाएंगे.
बुज़ुर्गों व महानों में मेरे प्रदेश के भी दो साहित्यकार थे – माखनलाल चतुर्वेदी और पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी. माखनलाल चतुर्वेदी ने भाषा को ओज दिया, कोमलता दी, मुहावरे को तेवर दिया और अभिव्यक्ति को ऐंठ दी. वे शक्तिशाली रूमानी कवि, ओजस्वी लेखक तथा वक्ता थे. ‘निराला’ के वाद वही थे, जिन्होंने काव्य-परिपाटी तोड़ी. उनमें विद्रोह और वैष्णव समर्पण एक साथ थे. एक तरह से वे ‘मधुर साधना’ वाले कवि थे. परन्तु ‘कर्मवीर’ में उनके सम्पादकीय लेख व टिप्पणियां आज पढ़ते हैं तो चौंक जाते हैं. उनमें वर्ग-चेतना प्रखर थी. अगर कहीं उनका वैज्ञानिक समाजवाद का अध्ययन हो गया होता तो बड़ा कमाल होता. पर वे मोहक किन्तु अर्थहीन भी लिखते थे. रंगीन, रेशमी पर्दे के पीछे कभी-कभी कुछ नहीं होता था. उनके लेखन के कुछ ‘मैनेरिज्म’ थे. उनके पहले ही दो पैराग्राफ में ‘तरुणाई’, ‘पीढ़ियां’, ‘मनुहार’, ‘बलिपथ’, ‘कल्पना के पंख’ आदि शब्द आ जाते थे. मेरी उनसे एक बार भेंट हुई थी, कुछ भाषण सुने थे. अन्तिम बार मैंने उन्हें गोंदिया में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में देखा. इसमें अध्यक्षता के लिए हमारे उम्मीदवार प्रखर समाजवादी पंडित भवानीप्रसाद तिवारी थे. मुक्तिबोध भी आए हुए थे. परन्तु प्रदेश के अर्थमंत्री बृजलाल बियाणी भी अध्यक्ष बनना चाहते थे. उनकी तरफ़ से पूरी शासकीय मशीनरी ओर व्यापारी वर्ग लगा था. पर पलड़ा भारी तिवारी जी का था और बियाणी जी हार भी गए थे. पर तभी परम श्रद्धेय पंडित माखनलाल चतुर्वेदी को पूरी नाटकीयता के साथ मंच पर लाया गया. दोनों तरफ से दो आदमी उन्हें सहारा दे रहे थे. माखनलाल जी को अभ्यास था कि कब और कैसे बीमार दिखना, कितने पांव डगमगाना, कितने हाथ कंपाना, कितनी गर्दन डुलाना, चेहरे पर कितनी पीड़ा लाना. उन्हें कुर्सी पर बिठाकर उनके सामने माइक लाया गया. उन्होंने कांपती आवाज़ में कहा – मैं चालीस वर्षों की साधना के नाम पर यह चादर आपके सामने फैलाकर आपसे भीख मांगता हूं कि बियाणी जी को अध्यक्ष बनाएं. वे सम्मेलन का भवन बनवा देंगे और बहुत रचनात्मक कार्य करेंगे. हम लोग क्या करते ? हमने अर्थमंत्री बियाणी को अपमान के साथ अध्यक्ष बन जाने दिया और माखनलाल जी का कर्ज़ पूरा उतार दिया. मुक्तिबोध ने नागपुर लौटकर ‘नया खून’ में एक तीखा लेख लिखा, जिसका शीर्षक था – ‘साहित्य के काठमांडू का नया राजा’.
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के आसपास सरलता, दैन्य और संतत्व का महिमा-मंडल निर्मित किया गया था. वे ‘सरस्वती’ के सम्पादक रहे थे और विश्व कथा-साहित्य का अध्ययन उनके बराबर तब शायद किसी का नहीं था. उन्होंने मेरी पहली पुस्तक पर सही टिप्पणी लिखी थी. फिर वे खैरागढ़ आ गए और अध्यापक हो गए. खैरागढ़ की सुन्दरी रानी पद्मावती की उन पर कृपा थी और उन्हें गुरु मानती थी. जब वे राजनीति में आईं, फिर मंत्रिमंडल में गईं, तब बख्शी जी उनके लिए बहुत कुछ लिखते थे. हम लोगों का अनुमान था कि बख्शी जी के मन में उनके प्रति बहुत कोमल भाव थे. आचार्यों के शब्दों में ‘मधुमती भूमिका’ थी, जो भूमिका ही रह गई. मामला शायद ‘प्लेटानिक’ था. उन्हीं बख्शी जी को रानी पद्मावती ने उस मकान से निकाल दिया, जिसे वे उन्हें लगभग दे चुकी थीं. तब वे मध्यप्रदेश के मंत्रिमंडल में थीं. हम लोगों ने बहुत ज़ोरदार आन्दोलन चालू कर दिया. लगातार अख़बारों में लिखा. लेखकों को संगठित किया. रानी से मिले भी. हम लोगों की योजना थी कि रानी के बंगले के सामने हम लोग धरना देंगे. तभी बख्शी जी ने अख़बारों में बयान दे दिया कि रानी पद्मावती मेरे लिए साक्षात् लक्ष्मी हैं. हम लोग ठंडे पड़ गए. भवानीप्रसाद तिवारी ने कहा – यारो, कमज़ोर आदमी के लिए लड़ने से अपनी ही दुर्गति होती है. मेरा खयाल है कि बख्शी जी के मन में रानी के आतंक के साथ जो रसात्मक भाव था, उसने उन्हें लड़खड़ा दिया. वे समर्पण कर गए. उनके समर्थक कहने लगे कि भाई, बख्शी जी सन्त हैं. वे किसी का बुरा करना नहीं चाहते. यह संतत्व भी बड़ी रहस्यमय चीज़ है. सबको अच्छा कहना और आशीर्वाद देना, यह कोई विवेक का काम नहीं है. सन्त की पहचान इससे होती हैं कि वह किन मूल्यों के लिए लड़ता है और किन चीज़ों से नफ़रत करता है. सही नफ़रत करना सन्त के लिए ज़रूरी गुण है. जो बुराई से ही नफ़रत नहीं करता, वह सन्त कैसे हो सकता है. जहां तक किसी का बुरा न करने की बात है, किसी का बुरा करने के लिए कुछ करना पड़ता है. कुछ क्रिया करनी होती है. कुछ लोग इतने अलाल होते हैँ कि वे बुरे का बुरा करने की क्रिया नहीं करते और उनकी निष्क्रियता संतत्व मान ली जाती है.
अपने बुज़ुर्ग लेखकों में दो की चर्चा और करूंगा. इनकी कृतियां ‘क्लासिक’ मानी जाएंगी. पर इन दोनों के पास जाकर साधारण लेखक आश्वस्त होता था, आतंकित नहीं. एक पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी थे और दूसरे यशपाल. द्विवेदी जी में अगाध पांडित्य, इतिहासबोध, सांस्कृतिक समझ, तर्क-क्षमता और विकट रचनात्मक प्रतिभा थी. उनकी चिन्ता ऐतिहासिक चिन्ता थी, वे सभ्यता के संकट को समझते थे और मनुष्य की नियति को हस्तामलकवत् देखते थे. कबीर की तरह फक्कड़ थे. बहुत विनोदी भी. वे मज़ाक करते थे और ठहाका लगाते जाते थे. लगता था, वे कह रहे हैं – ‘साधो, देखो जग बौराना !’ मुझसे मिलकर वे ख़ुश होते थे. मुझे अचरज और हर्ष होता था, जब वे मेरी कहानियों का उल्लेख करते थे. उम्हें मेरे निबन्धों के पैराग्राफ याद थे. उनके पास बैठकर लगता था कि इनकी ज्ञान-गरिमा कितनी सहज और कितनी विश्वासदायिनी है. जब भी उनसे भेंट होती, हंसी और ठहाकों का लम्बा दौर चलता. एक बार वे हमारे विश्वविद्यालय आए. मुझे हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ.उदयनारायण तिवारी का संदेशा मिला कि द्विवेदी जी ने कहा है कि शाम को परसाई को ज़रूर बुला लेना. मैं शाम को पहुँचा. उनका भाषण शुरू हो चुका था. विषय था – ‘वाणी और विनायक धर्म’. डेढ़ घंटे के पांडित्यपूर्ण भाषण के बाद बाहर निकले, तो मैं मिला. उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा – ‘ज्ञान से दुनिया का काफी नाश कर चुके. चलो कहीं बैठकर गप्प ठोंकेंगे.’ हम लोग डॉ.उदयनारायण तिवारी के घर बैठे, जहां डॉ.राजबली पांडेय और चार-पांच और आचार्य आ गए और लगभग दो घंटे अट्टहास होता रहा.
द्विवेदी जी के पास लतीफ़ों का भंडार था. वास्तविक घटनाओं में वे विनोद-तत्व ढ़ूंढ़ लेते थे. उनके मुख से सुने हुए लतीफ़े शायद बहुत प्रचलित हैं, फिर भी एक-दो मैं यहां लिखता हूं. द्विवेदी जी की ही ज़ुबानी – मैं एम.ए. की मौखिक परीक्षा ले रहा था. मैंने एक छात्र से पूछा कि हिन्दी के सबसे बड़े कवि कौन है, तो उसने जवाब दिया – सूरदास. मैंने पूछा – उनके बाद? उसने जवाब दिया – तुलसीदास. मैंने पूछा – तुलसीदास के बाद? उसने जवाब दिया – उडुगन. इसके बाद ठहाका लगा. उस लड़के ने आचार्यों की निर्णायक आलोचना का यह दोहा सुन रखा था – सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केसवदास. अब के कवि खद्योत सम, जहं-तहं करहिं प्रकास.
दूसरा वाकया. कहने लगे – मैं और धीरेंद्र वर्मा मौखिक परीक्षा ले रहे थे. एक लड़की घबड़ाती हुई आई. धीरेंद्र वर्मा ने उससे कहा – मीरा की विरह-वेदना का वर्णन करो. लड़की ने एक-दो वाक्य बोलने की कोशिश की और फिर रोने लगी. हमने उसे जाने के लिए कह दिया. धीरेंद्र जी ने कहा कि इसे तो कुछ नहीं आता. मैंने कहा – नहीं भाई, आपने इससे हास्यरस नहीं पूछा था, बल्कि मीरा की वेदना पूछी थी. वेदना का वर्णन इस लड़की से अच्छा और कौन कर सकता है! धीरेंद्र जी ने उसे पास कर दिया.
अन्तिम विनोद द्विवेदी जी के मुख से 1976 में राजकमल प्रकाशन में सुना. शीला संधू, नामवर सिंह तथा एक-दो और लेखक बैठे थे. पंडित जी ने कहा – यह विदेशी छात्राएं भी बड़ा गड़बड़ करती हैं. पोलैंड की एक छात्रा मुझसे मिलने वाराणसी गई. मैं लखनऊ गया हुआ था. उसने दिल्ली लौटकर मुझे पत्र लिखा – मैं आपके दर्शन हेतु वाराणसी गई थी. आपके दर्शन तो नहीं हो सके किन्तु आपकी ‘सुपत्नी’ से भेंट हो गई. पंडित जी ने ठहाका लगाते हुए कहा – ये विदेशी समझते हैं कि भारत में ‘सुपुत्र’ होता है तो सुपत्नी भी होती होगी. बताइए शीला जी, इस देश में कोई एक भी पत्नी कभी ‘सुपत्नी’ हुई है.
यशपाल जी से मेरी मुलाक़ात इलाहाबाद में कराई गई तो मैं अचकचा गया. मैं हाथ जोड़कर बहुत झुका उनके सामने, परन्तु यशपाल ने और भी झुककर मेरे हाथ पकड़ लिए और बोले-अरे महाराज, महाराज! मैं कब से आपसे मिलने को उत्सुक हूं. मैं सचमुच कृतज्ञ हूं कि आप मिले. मैं संकट में पड़ गया. मुझे पता नहीं, शायद वे हर एक को ‘महाराज’ कहते हों. ख़ैर, यह भ्रम तो हुआ नहीं कि यशपाल मेरी प्रतिभा के सामने इतने झुक गए हैं. इतना बेवकूफ़ मैं कभी नहीं रहा. इसके पहले मुझे कई लोग वाल्टेयर, बर्नाड शॉ, मोलियर, चेख़व आदि कह चुके थे और मैं उल्लू नहीं बना था. उल्लू बन जाता तो लिखने-पढ़ने में इतनी मेहनत न करता. मुझे इतना ज़रूर लगा कि यशपाल मेरा लिखा हुआ पढ़ते हैं और उस पर ध्यान देते हैं और उसका मूल्य भी आंकते हैं. उन्होंने लगभग आधा-पौन घंटे मेरी कहानियों के बारे में चर्चा की. यशपाल जब भी मिलते, यही कहते – अरे महाराज, अरे महाराज! वे तमाम विषयों पर बातें करते थे – इतिहास पर, राजनीति पर. अन्तिम भेंट उनसे भी मेरी 1979 में हुई. यह घटना याद रखने लायक है.
उत्तर प्रदेश हिन्दी परिषद का पुरस्कार लेने लखनऊ गया था. यशपाल भी पुरस्कार लेने आए. विशाल हॉल में संयोग से मेरी उनकी कुर्सी साथ लगी हुई थी. मैं बैठा तो उन्होंने कहा – अरे महाराज, आ गए. फिर बातचीत शुरू हो गई. हॉल पूरा भरा था. क़रीब पांच सौ लेखक और सरकारी अधिकारी होंगे. माइक से घोषणा होने लगी – अब राज्यपाल महामहिम डॉ. रेड्डी पधार रहे हैँ. सारे लोग खड़े हो गए. पर संयोग से एक’-सी भावना के कारण यशपाल और मैं बैठे रहे. आसपास के लोग खड़े होने के लिए कहते रहे, पर हम नहीं उठे. राज्यपाल हमारे बगल से निकलकर मंच पर पहुंच गए. यशपाल ने कहा-बहुत ठीक किया महाराज! आख़िर हम क्यों खड़े हों. होगा कोई गवर्नर. बहुत-से होते हैं. निकल जाएगा. इसके बाद राष्ट्रगीत शुरू हुआ तो यशपाल ने खड़े होते हुए कहा – अब खड़े होंगे. यह राष्ट्रगीत है.
बेचन शर्मा ‘उग्र’ फक्कड़ ‘लीजेंड’ थे. अक्खड़, फक्कड़ और बहुत बदज़बान. जीवन के अंधेरे से अंधेरे कोने में वे घुसे थे और वहां से अनुभव लाए थे. व्यापक गहन अनुभव उन्होंने बहुत ताक़तवर भाषा में लिखे हैं. वे महान गद्य लेखक थे. अति यथार्थवादी थे. मगर उनका यथार्थ इतिहास से जुड़ा नहीं था. विद्रोही थे, मगर वह दिशाहीन विद्रोह था. उनसे मेरी एक बार चिट्ठी-पत्री हो गई. एक प्रकाशक ने मुझे एक कहानी संग्रह तैयार करने को कहा. उसमें मैँने उग्र की कहानी ‘उसकी मां’ लेना तय किया. उग्र को लिख दिया कि प्रकाशक सौ रुपए आपको भेजेगा. उन्होंने स्वीकृति दे दी. पर प्रकाशक ने संग्रह छापने का विचार छोड़ दिया. क़रीब पांच महीने बाद मुझे ‘उग्र’ का पत्र मिला, जिसमें लिखा था – वह पुस्तक छपकर कोर्स में लग गई होगी, ख़ूब बिक रही होगी. प्रकाशक और तुम ख़ूब पैसे कमा रहे होगे. पर मुझे सौ रुपए नहीं भेजे. मैं तुम जैसे हरामजादे, कमीने, बेईमान, लुच्चे लेखकों को जानता हूं जो प्रकाशक से मिलकर लेखक का शोषण करते हैं. मैंने जवाब में उन्हें लिखा – प्रकाशक ने वह पुस्तक नहीं छापी, यह सच है इसीलिए आपको पैसे नहीं भेजे गए. जहां तक मुझे दी गई आपकी गालियों का सवाल है, मैंने काफी गालियां आपसे ही सीखी हैँ और अपनी प्रतिभा से कुछ और गालियां जोड़कर काफी बड़ा भंडार कर लिया है. मैं आपसे श्रेष्ठ गालियों का नमूना इसी पत्र में पेश कर सकता हूं. पर इस बार आपको छोड़ रहा हूं. इसके जवाब में उनका एक कार्ड आया, जिस पर सिर्फ़ इतना लिखा था – शाबाश पट्ठे!
(हरिशंकर परसाई के संस्मरणात्मक शब्दचित्रों का संग्रह ‘जाने पहचाने लोग’ राजकमल प्रकाशन से 1991 में छपा था. यह उसी किताब की भूमिका का अंश है, जिसमें परसाई ने अपने समकालीनों के बारे में लिखा है.)

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