राम मुहम्मद सिंह आज़ाद उर्फ़ ऊधम सिंह की याद
पंजाब की सरजमीं पर कितने ही ऐसे वतनपरस्त पैदा हुए, जिनकी बहादुरी के क़िस्से आज भी दोहराए जाते हैं मगर राम मुहम्मद सिंह आज़ाद उर्फ़ ऊधम सिंह इनमें भी कुछ ख़ास हैं. ऊधम सिंह हिन्दुस्तान की आज़ादी के ऐसे मतवाले रहे, जिनकी शख़्सियत के बारे में तमाम क़िस्से कहे-सुने जाते हैं, लेकिन मातृभूमि से अटूट प्रेम, त्याग और समर्पण की भावना हर क़िस्से का हिस्सा होती है. शेर सिंह का नाम ऊधम सिंह पड़ने का भी एक दिलचस्प क़िस्सा है. 1933 में वे जब जर्मनी गए, तो अंग्रेज़ हुकूमत से बचने के लिए उन्हें अपना नाम बदलना पड़ा. उन्होंने ऊधम सिंह के नाम से अपना पासपोर्ट बनवाया और इसी नाम से यूरोप के कई मुल्कों की यात्रा की और आख़िर में इंग्लैण्ड पहुंचे. ऊधम सिंह नाम से पासपोर्ट बनवाने और फिर इसी नाम से उन पर ओ’डायर की हत्या का मुक़दमा चलने से उनका यही नाम इतिहास में मशहूर हो गया.
संगरूर के सुनाम कस्बे में जन्मे ऊधम सिंह आठ साल की उम्र में ही अनाथ हो गए थे और उनकी परवरिश अमृतसर के खालसा अनाथालय में हुई. ऐसे संघर्षमय हालात में उन्होंने 1917 में मैट्रिक पास किया. जवान होते ऊधम सिंह का दौर, आज़ादी आंदोलन की सरगर्मियों का दौर था. पंजाब में उस दौरान कई आंदोलन एक साथ चल रहे थे. अलग-अलग धारायें अपने-अपने तरीके से आज़ादी के आंदोलन में योगदान कर रही थीं. इसमें गदर पार्टी के आंदोलन का नौजवानों पर सबसे ज्यादा असर था. पंजाब के नौजवान क्रांतिकारी विचारों वाली गदर पार्टी की तरफ़ खिंचे चले जा रहे थे. करतार सिंह सराभा, मदनलाल ढींगरा, सुखदेव, सेवा सिंह ठीकरीवाला और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी गदर पार्टी की ही देन थे. ऊधम सिंह पर भी इसका असर पड़ा और ताउम्र वह गदर पार्टी से ही जुड़े रहे.
1919 का साल उनकी ज़िंदगी में एक अहम् मोड़ लेकर आया. 13 अप्रैल वैशाखी के दिन अमृतसर में वह वाकया हुआ, जिसके बाद ऊधम सिंह ने ज़िंदगी का नया मकसद तय किया और जिसे हासिल करने में पूरी ज़िंदगी लगा दी. ब्रिटिश उपनिवेशवादी काले कानून ‘रोलेट एक्ट’ का शांतिपूर्ण प्रतिरोध करने हजारों वतनपरस्त जलियांवाला बाग़ में इकट्ठे हुये थे. सूबे की सरकार को यह बात नाग़वार गुजरी. तत्कालीन पंजाब गवर्नर माइक ओ’डायर ने अमृतसर के सेना अधिकारी जनरल डायर को यह आंदोलन सख़्ती से कुचलने को कहा. गवर्नर की सरपरस्ती से जनरल डायर के हौसले बुलंद हो गए. नतीजतन डायर ने प्रदर्शनकारियों पर अंधाधुंध गोलियां चलवा दीं, एक हज़ार से ज्यादा देशभक्त शहीद हुए. ऊधम सिंह ख़ुद जलियांवाला बाग़ की सभा में मौजूद थे. क़िस्मत थी कि वह बच गए. नौजवान ऊधम सिंह ने लगकर घायलों की सेवा की और जलियांवाला बाग़ के शहीदों के ख़ून से सनी मिट्टी को उठाकर कौल लिया कि वे इस क़त्ले-आम के ज़िम्मेदार डायर-ओ’डायर की जोड़ी को एक दिन ख़त्म करके बदला जरूर लेंगे.
सन् 1922 तक वह नैरोबी में रहे. नैरोबी जाने से पहले ही वह गदर आंदोलन में सक्रिय हो गए थे. बब्बर अकाली दल के मास्टर मोता सिंह और अमृतसर के गरम दल कांग्रेस नेता डॉ. सैफुद्दीन किचलू के वह निरंतर संपर्क में थे. 1922 में वह केन्या से लौटे तो उन्होंने कुछ समय बब्बर आंदोलन में भी हिस्सा लिया. 1924 में वह अमेरिका चले गए. वहां लाला हरदयाल के संपर्क में आए और फिर गदर पार्टी से जुड़ गए. इसके बाद पंजाब में उनका वास्ता क्रांतिकारी भगत सिंह से हुआ. भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों से वह बेहद प्रभावित हुए थे. अपने से कम उम्र होने के बावजूद भगत सिंह को वह अपना गुरु मानते थे. अमेरिका प्रवास के दौरान ऊधम सिंह ने जर्मनी, बेल्जियम, स्विट्जरलैंड, हॉलैंड, लिथुआनिया, हंगरी, इटली आदि की यात्रायें की और यूरोपीय मुल्कों में हो रहे बदलावों को क़रीब से देखा. 1927 में भगतसिंह के आदेश पर ऊधम सिंह हिन्दुस्तान वापस लौटे. आए तो अपने साथ क्रांतिकारी गुट के लिए बड़ी संख्या में हथियार लेकर आए. मकसद मुल्क में क्रांतिकारी गतिविधियां और तेज़ करना था. लेकिन बरतानिया पुलिस को इस बात की पहले ही भनक लग गई. उन्हें एयरपोर्ट पर ही असलाह समेत गिरफ्तार कर लिया गया.
पुलिस को उनके पास से गदर पार्टी के ज़रूरी दस्तावेज भी मिले. आर्म्स एक्ट में उन्हें पांच साल की सजा सुनाई गई. अदालत में पेशी के दौरान बड़ी बहादुरी से अपना जुर्म कबूल करते हुए उन्होंने कहा कि ‘‘इन हथियारों को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करना चाहते थे और उनका मकसद अपने मुल्क को आज़ाद कराना है.’’
जिन दिनों ऊधम सिंह सजा भुगत रहे थे, मुल्क में क्रांतिकारी घटनायें चरम पर थीं. क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल न हो पाने का उन्हें बड़ा मलाल था. इसी दौरान भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी दे दी गई, जिससे क्रांतिकारी आंदोलन कुछ समय के लिए बिखर-सा गया. 1932 में रिहाई के बाद ऊधम सिंह अपने गांव सुनाम चले गए. लेकिन वह अंग्रेज़ सरकार की नज़र में चढ़े हुए थे. पुलिस लगातार उनका पीछा कर रही थी. छुपते-छुपाते वह अमृतसर पहुंचे और अपना नाम बदलकर राम मुहम्मद सिंह आज़ाद रख लिया. आगे चलकर वह इसी नाम से आज़ादी के आंदोलन में हिस्सा लेते रहे.
इस दौरान उन्होंने लंदन जाने की कोशिशें बराबर जारी रखीं. जनरल डायर और गर्वनर माइकल ओ’डायर इंग्लैण्ड जा चुके थे और ऊधम सिंह का अकेला मक़सद जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड के गुनहगारों से बदला लेना था.
हत्याकाण्ड के इतने साल गुज़र जाने के बाद भी ऊधम सिंह अपने मक़सद से बिल्कुल नहीं भटके थे. उन्हें सिर्फ एक वाजिब मौक़े की तलाश थी. और ये मौक़ा इक्कीस साल बाद, यानी 13 मार्च 1940 को आया. जलियांवाला बाग क़त्लेआम का आदेश देने वाला जनरल डायर तो इंग्लैण्ड पहुंचकर जल्द ही मर गया था, लेकिन माइकल ओ’डायर और पूर्व भारत सचिव लार्ड जेटकिंस अभी ज़िंदा थे. उनसे बदला लेना अभी बाक़ी था.
उस दिन लंदन के कैक्सटन हॉल में एक मीटिंग थी. इत्तेफ़ाक़ से ये दोनों अफ़सर एक साथ इस मीटिंग में शामिल हुए. ऊधम सिंह को अपना बदला लेने के लिए यह घड़ी ठीक लगी. बैठक ख़त्म होते ही ऊधम सिंह ने दोनों पर दनादन गोलियां दाग दीं. अचानक हुई इस गोलीबारी से जेटकिंस तो गंभीर रूप से घायल हो गया, मगर ओ’डायर ने मौक़े पर ही दम तोड़ दिया. अपने काम को अंजाम देने के बाद ऊधम सिंह भागे नहीं, बल्कि उन्होंने ख़ुद पुलिस को गिरफ्तारी दी.
गिरफ्तारी के बाद अदालती कार्यवाही शुरू हुई. हालांकि अदालती कार्रवाई दिखावा भर थी. कोर्ट में जिरह के दौरान ऊधम सिंह ने अपना पूरा नाम राम मुहम्मद सिंह आज़ाद बताया और बयान दिया, ‘‘हां मैंने यह कृत्य किया और मुझे इसका कोई अफ़सोस नहीं है. मुझे उनसे नफ़रत थी. मैंने उन्हें वही सज़ा दी जिसके वे हक़दार थे.’’
ऊधम सिंह को 31 जुलाई, 1940 को पेन्टनविल जेल में फांसी दी गई और उन्हें वहीं दफ़्ना दिया गया. हिन्दुस्तानी नौजवानों के लिए ऊधम सिंह का यह कारनामा, फ़ख़्र का मौजू था. कैक्सटन हॉल की घटना से हर हिन्दुस्तानी का सिर ऊपर उठ गया था. लंदन में हुई इस घटना की सारी दुनिया में जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई. जर्मन रेडियो ने इस घटना पर एक कार्यक्रम प्रसारित करते हुए कहा, ‘‘दुःखी और सताए हुए लोगों की आवाज़ बंदूक की नाल से निकलकर आई है. घायल हाथी की तरह हिन्दुस्तानी कभी अपने दुश्मन को छोड़ते नहीं, बल्कि मौक़ा मिलने पर बीस साल बाद भी अपना बदला ले सकते हैं.’’
ऊधम सिंह ने जो क़सम खाई थी, उसे पूरा किया. उस समय ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ प्रतीकात्मक रूप से ही सही यह सबसे बड़ी जीत थी. ऊधम सिंह ने अंग्रेज़ों से राष्ट्रीय अपमान का बदला ले लिया था. राम मुहम्मद सिंह आज़ाद उर्फ़ ऊधम सिंह के इस कारनामे ने हिन्दुस्तानी नौजवानों में राष्ट्रीय स्वाभिमान का सोया हुआ जज़्बा जगा दिया. ऊधम सिंह जैसे क्रांतिकारियों द्वारा लगाई गई ये छोटी-छोटी चिंगारियां ही थीं, जिसने बाद में विस्फोट का रूप ले लिया और हमें आजादी मिली.
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