गामा | वह नाम जो कहावतों में ताक़त-जीत का पर्याय बन गया
यह उन दिनों की बात है जब डब्ल्यूडब्ल्यूएफ़ का वजूद नहीं था, वर्जिश करके बनाया हुआ बदन, खा-पीकर हासिल ताक़त और अखाड़े के उस्तादों से सीखे दाँव की आजमाइश के लिए लोग कुश्ती के मैदान में उतरते थे. इन्हीं में से कुछ हार कर तो कुछ नायक बनकर बाहर आते, और लोक जिनको क़िस्सों-कहानियों-कहावतों में गूंथ दिया करता. ऐसा ही एक नाम है – गामा. गामा पहलवान. ताक़त और जीत के प्रतीक के तौर पर जो अब भी लोक चेतना में बसा हुआ है. वह गामा जिसने पचास साल तक कुश्ती लड़ी और इन पचास सालों में दुनिया का कोई पहलवान उन्हें हरा नहीं पाया.
गामा का असली नाम ग़ुलाम मोहम्मद था. अमृतसर के ऐसे कुनबे में पैदा हुए, जहाँ पहलवानी परवरिश का हिस्सा थी. उनके वालिद, चाचा और ताऊ भी पहलवानी किया करते थे. घर से मिली इस परवरिश का नतीजा यह कि पहली बार जब वह कुश्ती के मैदान में उतरे, उनकी उम्र दस साल थी.
यह सन् 1890 की बात है, जब जोधपुर के महाराजा की ओर से एक दंगल कराया गया. इस दंगल में पहलवानों को अपनी कसरत और कुश्ती का नमूना पेश करना था, ताकि महाराज ‘सबसे ताकतवर पहलवान’ का चुनाव कर सकें. देश भर के क़रीब चार सौ पहलवान इस दंगल में शरीक हुए. आख़िर तक बने रहे 15 पहलवानों में बारह साल के गामा भी थे. उनकी उम्र और उनके प्रदर्शन ने महाराजा को इतना प्रभावित किया कि विजेता का ख़िताब उन्हें ही मिला. शोहरत की बुलंदियों की तरफ़ यह उनका पहला क़दम था.
इसके बाद तो गामा ने एक के बाद एक तमाम नामचीन पहलवानों का मुक़ाबला किया और उन्हें धूल चटा दी. मगर गुजरांवाला के करीम बक्श सुल्तानी से उनका मुक़ाबला बाक़ी था. करीम बक्श वही पहलवान थे, जिन्होंने 1892 में कलकत्ते में हुए मुक़ाबले में मशहूर अंग्रेज़ पहलवान टॉम कैनन को पछाड़ कर ख़ूब शोहरत पाई थी. अंग्रेज़ी हुकूमत के दौर में कोई देसी पहलवान अखाड़े में अंग्रेज़ पहलवान को पटक दे, जनमानस के बीच वह महानायक से कम नहीं. करीम बक्श के नाम की तूती बोलती थी.
तो लाहौर में एक दंगल तय हुआ – गामा और करीम बक्श के बीच मुक़ाबला देखने लोग टूट पड़े. सात फ़ीट के करीम बक्श के सामने पांच फ़ीट सात इंच के गामा. भीड़ के ख़्याल से यह कुश्ती देर तक चलने वाली नहीं थी, कि करीम बक्श ज़रा देर में गामा को चित्त कर देंगे. मगर भीड़ का ख़्याल सही नहीं निकला. तीन घंटे तक चला वह मुक़ाबला बराबरी पर छूटा. कुश्ती का नतीजा नहीं निकला मगर गामा हिंदुस्तान भर में मशहूर हो गए.
पहले दतिया और फिर पटियाला के महाराजा की सरपरस्ती गामा की ज़िंदगी में ख़ासी अहम् रही. तमाम रजवाड़ों की तरफ़ से होने वाले दंगल और ऐसे दंगलों में विजयी गामा को मिलने वाले इनाम-इक़राम और ख़िताब उनकी शोहरत में और इज़ाफ़ा करते रहे. 1899 में कुश्ती के लिए वह बड़ौदा बुलाए गए. दो बरस बाद ग्वालियर में लाला अग्रवाल को हराने पर महाराज ने उन्हें जवाहरात जड़ा हार उपहार में दिया.
सन् 1898 से 1907 के बीच उन्होंने दतिया के गुलाम मोहिउद्दीन, भोपाल के प्रताप सिंह, इंदौर के अली बाबा सेन और मुल्तान के हसन बख़्श जैसे नामी पहलवानों से मुक़ाबले जीते. लखनऊ, इलाहाबाद और कलकत्ते तक कुश्ती लड़ने गए. गामा के रुस्तम-ए-हिंद से रुस्तम-ए-जहाँ बनने का क़िस्सा भी कम दिलचस्प नहीं.
यह 1910 की बात है, जब वह अपने भाई इमाम बक्श पहलवान के साथ लंदन गए. उन दिनों वहाँ ‘चैंपियंस ऑफ़ चैंपियंस’ नाम से कुश्ती का एक मुक़ाबला चल रहा था. गामा ने भी इस मुक़ाबले में शामिल होने की अर्ज़ी दी, मगर उनकी अर्ज़ी यह कहकर ख़ारिज़ कर दी गई कि उनकी लंबाई मुक़ाबले की शर्त पूरी नहीं करती. इस शर्त और अस्वीकार से ग़ुस्सा गामा ने मुक़ाबले के आयोजकों को चुनौती दे डाली, कहा कि वह दुनिया के किसी भी पहलवान को हरा सकते हैं. और अगर ऐसा नहीं हुआ तो जीतने वाले को पांच पाउण्ड का इनाम अपनी जेब से देकर वह वतन लौट जाएंगे.
अमेरिका के बेंजामिन रोलर ने गामा की यह चुनौती स्वीकार कर ली. पहले राउंड में गामा ने उन्हें पौने दो मिनट में चित कर दिया. फिर दूसरे राउंड में दस मिनट से भी कम वक़्त में पटखनी दे दी. आयोजकों को इतने से संतुष्टि नहीं हुई. मगर अगले रोज़ जब उन्होंने दुनिया भर से आए बारह पहलवानों को चुटकी बजाते चित्त कर दिया तो खलबली मच गई. उनको ‘चैंपियंस ऑफ़ चैंपियंस’ मुक़ाबले में शामिल होने की इज़ाजत मिल गई.
सन् 1910 की वह तारीख़ थी – 10 सितम्बर. जॉन बुल प्रतियोगिता में विश्वविजेता पोलिश पहलवान स्तानिस्लॉस ज़्बयिशको और गामा आमने-सामने थे. गामा को गिराने में एक मिनट का वक़्त लगा, फिर अगले ढाई घंटे तक ज़मीन पर ही चलती रही गुत्थमगुत्था में मैच बराबरी पर छूटा. विजेता का फ़ैसला करने के इरादे से हफ़्ते भर बाद दोबारा मुक़ाबला तय हुआ. मगर तय तारीख़ यानी 17 सितम्बर को स्तानिस्लॉस ज़्बयिशको कुश्ती लड़ने आए ही नहीं. गामा को विजेता घोषित कर दिया गया और वर्ल्ड हेवीवेट चैंपियन बनने वाले वह पहले भारतीय पहलवान बन गए.
अख़बारनवीसों ने जब ज़्बयिशको को मुक़ाबले में नहीं पहुंचने के बारे में घेरा तो उन्होंने जवाब दिया, ‘ये आदमी मेरे बूते का नहीं है.’ अलबत्ता गामा ने कहा था, ‘लड़े बग़ैर ही जीतने के बजाय लड़कर हारने में मुझे ज़्यादा ख़ुशी होती.’
हिंदुस्तान लौटे गामा ने अगले साल करीम बक्श सुल्तानी से फिर मुक़ाबला किया. इस बार गामा ने उन्हें शिकस्त दे दी. एक अख़बारनवीस ने उनसे इंटरव्यू में सवाल किया कि अपना सबसे तगड़ा प्रतिद्वंद्वी वह किसे मानते हैं? गामा ने करीम बक्श का नाम लेकर कहा था, ‘हमारे खेल में अपने से बड़े और ज़्यादा क़ाबिल खिलाड़ी को गुरु माना जाता है. मैंने उन्हें दो बार हराया ज़रूर, मगर दोनों मुक़ाबलों के बाद उनके पैरों की धूल अपने माथे से लगाना नहीं भूला.‘
बंटवारे के बाद गामा लाहौर जा बसे. जब वहाँ दंगे फैले, मोहिनी गली में आबाद हिंदुओं की हिफ़ाज़त के लिए जो शख़्स दीवार बनकर खड़ा हुआ वह गामा ही थे. अपने पट्ठों के साथ मिलकर उन्होंने न सिर्फ़ गली में रह रहे लोगों को बलवाइयों से बचाया बल्कि उनको सुरक्षित निकालने का इंतज़ाम भी किया.
गामा कुश्ती से रिटायर कभी नहीं हुए, अलबत्ता कुश्ती लड़ना उन्होंने यूं छोड़ा कि जोड़ का कोई पहलवान ही नहीं मिला. हाँ, नौजवानों को सिखाते हमेशा रहे. लाहौर में रावी के पश्चिमी किनारे पर उनके नाम का अखाड़ा उनकी निशानी है.
हिंदुस्तान में उनकी निशानियां कई जगह महफ़ूज़ हैं. बड़ौदा म्यूज़ियम में ढाई फ़ीट ऊंचा 1200 किलो एक पत्थर रखा है, 23 दिसम्बर, 1902 को मांडवी के नज़रबाग़ पैलेस में गामा जिसे उठाकर कुछ क़दम चले थे. पटियाला के नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ स्पोर्ट्स म्यूजियम में ऐसी कई चीजें देखी जा सकती हैं, जिन्हें गामा अपनी कसरत के लिए इस्तेमाल करते थे. दतिया के वीरदेव महल में वह अखाड़ा है, जिसमें वह पहलवानी के दांव-पेच सीखते रहे थे. दतिया के म्यूज़ियम में पत्थर के डंबल, हंसली और गोला भी देखे जा सकते हैं, जिन्हें वह कसरत में इस्तेमाल करते.
और हिंदुस्तानियों के ज़ेहन में तो गामा का नाम बसा हुआ है ही.
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